प्रशिक्षण

राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ का मुख्य हथियार है- प्रचार। प्रचार से घेरना । मुझे याद है कि पत्रकारिता की कक्षा में मेरे समक्ष दो छात्र ऐसे आए जो खुद को बदलने के लिए बेचैन हो उठते थे। वे खुद कहते थे कि कक्षा में दूसरे सारे छात्र जो कहते हैं वह अच्छा लगता है और तर्कसंगत लगता है। लेकिन न जाने क्यों आखिरकार हमें वहीं बाते अच्छी लगती है जैसा कि हमें प्रशिक्षण मिला है। राजनीतिक तौर वे प्रतिक्रियावादी व दक्षिण पंथी कहें जा सकते हैं। लेकिन शायद ये परिभाषा भी उनके ‘राष्ट्रीय” प्रशिक्षण की मुक्कमल तस्वीर पेश नहीं करती । पूरे नौ महीने के पत्रकारिता प्रशिक्षण में एक शिक्षक के नाते मैंने ये पाया कि वे दोनों छात्र चाहें देश दुनिया की जितनी बातें कर लें लेकिन वे अपनी मूल अवधारणा के इर्द गिर्द पहुंचते। वे अवधारणा तथ्यों व वैज्ञानिक तर्को के आधार पर विकसित नहीं हुई थी। वे केवल अवधारणा ही थी और उसमें इधर उधर से ठूंसी गई सामग्री थी। शिक्षक के नाते बेचैनी यह होती थी कि इस उम्र में ही इतनी दिमागी तंगी कैसा ‘राष्ट्र’ बनाएगी। संभव है कि उनके हाथों में देश की बागडोर हो लेकिन तब वह देश कैसा होगा? राष्ट्र बनकर कैसा दिखेगा? कैसा समाज बनेगा ? दूसरी घटना मुझे याद है जब एनडीटीवी इंडिया वाले एंकर रविश कुमार ने मध्यप्रदेश में परीक्षा घोटाले को लेकर एक कार्यक्रम में बताया कि इस घोटाले के शिकार होने वाले लोगों में वे भी हैं जो संघ समर्थक परिवार के सदस्य है। लेकिन ऐसे बच्चों के पिताओं को इस घोटाले में केवल यह दिखा कि यह घोटला उनकी विचारधारा को बदनाम करने की साजिश का हिस्सा हैं।

स्वंय सेवकों के बीच और समाज के साथ संवाद में फर्क

संवाद वैसे लोगों के लिए एक रास्ता है जो संवाद की प्रक्रिया को मह्त्व देते हैं। यह फैसला करके बैठना कि उसकी भावना जैसी है वही सभ्यता और संस्कृति है तो वहां संवाद का दिखावा ढोंग के सिवाय कुछ नहीं है। संघ प्रमुख ने अपने हिन्दू राष्ट्र के इरादों में कोई फेरबदल नहीं बताया। उस इरादे के लिए वहीं कहा जो उन्हें आज के भारत और उसके समाज में सार्वजनिक तौर पर कहने की जितनी गुंजाइश मुहैया कराती है। संघ के सत्तर सालों के इतिहास में ऐसे मौके पर दिये जाने वाले भाषणों का अध्ययन करें तो यह विश्लेषण किया जा सकता है कि केवल स्वंय सेवकों के बीच दिए जाने वाले भाषण और स्वंय सेवकों को बीच में बैठाकर समाज के दूसरे लोगों के लिए भाषण में किस कदर और कितना बुनियादी अंतर होता है। संघ प्रमुख ने कहा कि प्रणव मुखर्जी जो हैं वो है और वहीं रहेंगे। ठीक उसी तरह जैसा संघ है वैसा है और वैसा ही रहेगा। संघ अपने उद्देश्यों को हासिल करने के लिए जल्दीबाजी में नहीं है । वह भारतीय समाज की संरचना को बदलना चाहता है। इसीलिए वह धीमी गति से हर उस मौके की योजना बनाता है ताकि वह समाज के उन हिस्सों में पहुंचने की कोशिश करें जो उससे एक समय काल में अछूते रह जाते हैं। वह हर मौके का इस्तेमाल अपने ‘हिन्दू राष्ट्र’ के उद्देश्यों को पुरा करने में करना चाहता है।

यह बौद्धिक जुगाली का हिस्सा हो सकता है कि महात्मा गांधी , सरदार पटेल और दूसरे नामचीन लोगों ने संघ के बारे में क्या कुछ कहा। संघ की गतिविधियां क्या रही है। वह इस मायने में प्लास्टिक है कि उसे अपने हिन्दू राष्ट्र की संकल्पनाओं को हासिल करना है। संघ का ‘हिन्दू’ एक राजनीतिक अवधारणा है। वह बौद्धिक स्तर पर हिन्दू के धर्म के लिए व्यक्त किए जाने वाला अर्थ और भारतीय संस्कृति की ऐतहासिक व्याख्या से बुनियादी तौर पर भिन्न हैं।

मुखर्जी के भाषण के वक्त का मनोवैज्ञानिक अध्ययन

डा. मुखर्जी को आमंत्रित कर संघ ने अपने इरादों को भी स्पष्ट किया और रणनीतिक तौर पर भारतीय समाज के उन हिस्सों में अपनी उदारता की एक छवि पेश करने के मौके के रुप में इस्तेमाल किया , आबादी का जो हिस्सा संघ को ‘संविधान सम्मत भारत’ के अलावे देखता है। इस बात कि कल्पना करें कि यदि डा. प्रणव मुखर्जी संघ मुख्यालय में बगल में नहीं बैठते तो क्या भारतीय समाज के एक प्रभावशाली हिस्से के बीच संघ प्रमुख को अपनी छवि इस तरह प्रस्तुत करते का कोई और अवसर मिलता? यह भी कल्पना करें कि यदि मोहन भागवत ने प्रणव मुखर्जी के बाद अपना अमृत वचन पेश किया होता तो वह कितना सुना जाता? प्रचार का सिद्धांत बेहद जटिल और महीन होते हैं। प्रचार की सतहें इस तरह से तैयार की जाती है जैसे दो सतहें मिलकर चार की ताकत हासिल कर लें।

डा. प्रणव मुखर्जी ने अपनी छवि उदार होने भर की पेश की लेकिन वह उनके सामने पेश की जो कि अपने फैसलों की सीमाओं के साथ अड़े हुए हैं। यह हिन्दू की उदारता नहीं बल्कि चेतना में हिन्दूत्व की स्वीकारोक्ति हैं। संघ मुख्यालय पर प्रणव मुखर्जी ये कहने की हिम्मत नहीं जुटा सकते थे कि महात्मा गांधी की हत्या में संघ के लोगों का हाथ था। ब्रिटिश शासन विरोधी आंदोलन में उसकी कोई भूमिका नहीं थी और उसने भारतीय संविधान और तिरंगे को स्वीकार नहीं किया था। संविधान का एक हिस्सा सुनाया लेकिन डा. अम्बेडकर का उल्लेख नहीं किया। भाषण देते वक्त प्रणव मुखर्जी के चेहरे पर जो तनाव दिख रहा था और जितना जोर देकर वे राष्ट्र, राष्ट्रवाद और राष्ट्रभक्ति का अर्थ बता रहे थे वह दरअसल भाषण में जिनका उल्लेख नहीं था उसकी गूंज को दबाने का प्रयास था। प्रणव मुखर्जी को एक बेटी के नाते शर्मिष्ठा ने ठीक ही कहा है कि भाषण याद नहीं रहेगा, तस्वीरे ही याद रहेगी। जिस तरह से संघ जय प्रकाश नारायण का हवाला देकर अपनी संकीर्णाताओं और अपने मूल इरादों को छिपाने में सफल होता है उस कड़ी में अब एक नया नाम प्रणव मुखर्जी का भी जुड़ गया है।

प्रणव मुखर्जी ने स्वंय सेवकों को तो संघ ने गैर सेवकों को संबोधित किया

प्रचार का यह भी सिद्धांत है कि मंच पर दिए जाने वाले भाषण से कई बार महत्वपूर्ण केवल मंच हो जाता है।मंच यदि भक्त जनों का हो तो वहां सब्जी नहीं बेची जा सकती है।संघ का मंच ही एक संदेश है और प्रणव मुखर्जी के अंग्रेजी में संदेश का कोई अर्थ नहीं है। वे भारत के इतिहास के ढाई हजार साल पहले के कुछ पन्ने पलट रहे थे जिस इतिहास को संघ अपने तरीके से लिख चुका है। मोहन भागवत अपने भाषण के वक्त तनावग्रस्त नहीं दिख रहे थे क्योंकि उनके इरादे बहुत स्पष्ट थे और उन्होने स्वंय सेवकों के सामने स्पष्ट कर दिया था कि प्रणव मुखर्जी को सुनकर भ्रमित होने की जरुरत नहीं है।

संघ मुख्यालय पर आयोजित प्रणव दा कार्यक्रम की सबसे खास बात यह थी कि प्रणव मुखर्जी अपने सामने भगवा झंडा फहराकर और हिन्दू राष्ट्र की आरती उतारकर अपने हथियार के साथ बैठे सात सौ स्वंय सेवकों के बहाने देश भर के उन प्रशिक्षित स्वंय सेवकों को संबोधित कर रहे थे जैसे मुझे छात्र के रुप में मिले थे। दूसरी तरफ संघ प्रमुख मोहन भागवत समाज के उन घरों में स्वंय सेवकों की उदारता, त्याग,तपस्या की घुसपैठ करा रहे थे जो कि इतिहास में खड़े होकर संघ को स्वीकार करना राष्ट्र हित में अच्छा नहीं मानते।