देश में लेखकों, कवियों और कलाकारों पर दक्षिणपंथी ताकतों का हमला दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है. ताज़ा मामला केरल साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता एस हरीश का है, जिन्होंने दक्षिणपंथी धमकियों से तंग आकर अपने उपन्यास को वापस लेने और उसे “उपयुक्त माहौल होने” पर प्रकाशित कराने की की घोषणा की है. हरीश को धमकाये जाने के विरोध में देश के चोटी के लेखक और साहित्यकारों ने “इंडियन राइटर्स फोरम” के बैनर तले अपनी आवाज़ बुलंद की है. अपनी आवाज़ मुखर करने वालों में रोमिला थापर, गीता हरिहरन, नयनतारा सहगल, के सच्चिदानंदन, पॉल ज़कारिया, पेरुमाल मुरुगन आदि जैसे प्रसिद्ध लेखक – साहित्यकार शामिल हैं. “इंडियन राइटर्स फोरम” ने लिखा –

हमारे सांस्कृतिक जगत को नियंत्रित रखने की मंशा पालने वाले ठगों ने एक बार फिर से हमला बोला है. अपने परिजनों के खिलाफ हिंसा की धमकियों के जवाब में मलयालम लेखक एस हरीश ने अपने उपन्यास ‘मीसा’ (मूंछ), जिसे मातृभूमि द्वारा श्रृंखलाबद्ध किया जा रहा था, को यह कहते हुए वापस ले लिया है कि “उपयुक्त माहौल होने” पर वे इसे प्रकाशित करायेंगे.

‘मीसा’, लघु उपन्यास की श्रेणी में केरल साहित्य अकादमी पुरस्कार जीतनेवाले हरीश का पहला उपन्यास है. इस उपन्यास के पहले तीन अध्याय को श्रृंखलाबद्ध रूप में साप्ताहिक पत्रिका ‘मातृभूमि’ द्वारा प्रकाशित किया जा रहा था, जिसे लेकर पाठकों में भारी उत्साह था. पर, दक्षिणपंथी समूहों ने इसके खिलाफ धमकी भरा अभियान शुरू कर दिया.

हरीश पर “धार्मिक भावनाओं को आहत करने” और “हिन्दुओं को बदनाम करने” का तोहमत लगाया गया. उन्हें “हाथ काटकर सबक सिखाने” की धमकी दी गयी. सोशल मीडिया पर उन्हें इस कदर धमकाया और अपमानित किया गया कि उन्होंने अपना एकाउंट ही बंद कर दिया. उनके परिवार के सदस्यों को भयानक तरीके से ट्रोल किया गया. साप्ताहिक पत्रिका ‘मातृभूमि’ की प्रतियां जलायी गयीं, जिससे दुखी होकर पत्रिका के संपादक ने ट्वीट किया कि साहित्य का “मॉब लिंचिंग” किया जा रहा है.

हरीश पर उस संदर्भ के लिए हमला बोला गया जिसमें उनके उपन्यास का एक पात्र महिलाओं की मंदिर यात्रा के बारे में जिक्र करता है. यह पात्र का पक्ष था, न कि लेखक का. इस उपन्यास का क्रमिकरण बस शुरू ही हुआ था और पात्र स्थापित ही किये जा रहे थे. इस किस्म का बिखरा हुआ और सतही आकलन समस्त साहित्य, सिनेमा और कला को इस किस्म के अनैतिक हमलों के आगे कमजोर बना देगा. यही नहीं, किसी उपन्यास के साथ असहमति और उसके प्रति अस्वीकृति को उत्पीड़न और धमकी का रूप नहीं दिया जा सकता. विविध संस्कृतियों की अभिव्यक्ति पर हमला बोलने वाले गुंडे हमें एक उपन्यास से कहीं ज्यादा बड़ी चीज खो देने को मजबूर करना चाहते हैं.

केरल में कई लेखकों ने इस मसले पर हरीश के साथ एकजुटता दिखाई है. एक लोकतांत्रिक देश के लेखक, पाठक और नागरिक के तौर पर हम “माहौल” बदलने का इंतजार नहीं कर सकते. ये हम लेखक और कलाकार ही हैं जो इस देश का सांस्कृतिक माहौल तैयार करते हैं, न कि कोई सांप्रदायिक राजनेता. हमें इस बात पर जोर देना ही होगा कि हमारे जैसे विविधता से भरे समाज के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बहुत जरुरी है. हमारे समाज के अतीत और वर्तमान के विभाजन को समझने और संविधान द्वारा दिए गये अधिकारों का उपयोग करने के लिए एक वस्तुनिष्ठ नजरिए की जरुरत है.

हम पेरुमाल मुरुगन की उस कहानी को नहीं दोहरा सकते जिसमें इस किस्म के उत्पीड़न से तंग आकर लेखक ने अपने भीतर के लेखक की मौत होने की घोषणा कर दी. हम केरल के कवि कुरीप्पुज्हा श्रीकुमार और देश के अलग – अलग हिस्सों में लेखकों पर हाल में किये गये हमलों को और अधिक बर्दाश्त नहीं कर सकते. इस किस्म का हमला झेलने वाले लेखकों की सूची लंबी होती जा रही है. सांस्कृतिक जगत के साथियों से हमारी अपील है कि वे दक्षिणपंथी समूहों के हमलों के खिलाफ उठ खड़े हों. हम केंद्र व राज्य सरकारों से यह मांग करते हैं कि वो लेखकों एवं कलाकारों को अपना काम करने के लिए सुरक्षित माहौल मुहैया करायें.

किसी भी लेखक को इस कदर तंग नहीं किया जाना चाहिए कि वो अपनी कलम ही उठाना बंद कर दे. लेखकों के खामोश हो जाने पर कोई भी लोकतंत्र और संस्कृति जिंदा नहीं बचेगी. इसलिए, लेखकों के इस उत्पीड़न के खिलाफ हमें लड़ना ही होगा.