गज़ब किताब है यह जो हाल में एकसाथ हिंदी और अंग्रेजी में भी रांची से प्रकाशित हुई है. प्रकाशन उनके जन्म दिन के उपलक्ष्य में तीन जनवरी 2018 को हुआ। बहुतों की जानकारी के लिए यह बताना जरुरी लगता है कि दिवंगत जयपाल सिंह मुंडा , 1928 में एम्सटरडम में नौंवे ओलंपिक में हॉकी स्पर्धा की विजेता भारतीय टीम के कैप्टन थे . वो भी महज 25 वर्ष की आयु में ! वह भारत की संविधान सभा के सदस्य और सांसद भी रहे . वे आदिवासियत के सबसे बड़े चिंतकों में से थे.

जयपाल सिंह मुंडा ने ही 1950 में ' झारखंड पार्टी ' का गठन किया था . लेकिन वह सिर्फ झारखंड के लिए महत्वपूर्ण नहीं है। उनका व्यक्तित्व और कृतित्व पूरे भारत और ख़ास कर सम्पूर्ण आदिवासी समाज के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है। जहां नागालैंड समेत पूर्वोत्तर भारत के कुछेक उग्रवादी आदिवासी नेता अपने क्षेत्रों के लिए स्वतंत्र राष्ट्र के गठन की मांग को शह देते रहे वहीं जयपाल सिंह मुंडा ( 1930 -1970 ) आदिवासियों को भारत में ही ' आंतरिक उपनिवेशवाद ' से मुक्ति और पारम्परिक स्वशासन की मांग पर जोर देते रहे।

इस पुस्तक को पढ़ने से यह समझने में सहायता मिलती है कि भारत के मूल लोग न आर्य है और न ही द्रविड़। बल्कि आदिवासी है . पृथ्वी ग्रह की विज्ञान -सम्मत " बिग बैंग " प्रक्रिया में भारत के आदिवासी अपने भू -भाग के संग , दूर -दूर छितरा गए होंगे .भाषा शास्त्र भी इसकी पुष्टि करता है कि भारत के आदिवासियों जैसी बोली , अफ्रीका जैसे अन्य महाद्वीपों के देशों में भी है . इस किताब को पढ़कर इस सहज निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि हम कितने अज्ञानी हैं अपनों के आदिवासियत से . बहुतों को तो ये भी नहीं पता होगा कि हमारे आदिवासी भारत , से नहीं भारत ' मे ' आज़ादी " चाहते रहे हैं। और उनकी यह चाहत , अब जेएनयू में गूंजने से बहुत पहले करीब 75 साल से है. पुस्तक में जयपाल सिंह मुंडा के कुछ भाषण के मूलपाठ भी शामिल हैं।

आदिवासियों को सरकारी शब्दावली में अनुसूचित जनजाति कहा जाने लगा है। भारत की कुल आबादी में आदिवासियों का हिस्सा 8 प्रतिशत है। नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे -2016 के अनुसार अनुसूचित जनजाति के कुल लोगों का 45.9 प्रतिशत संपत्ति के मामले में सबसे निचली श्रेणी में है . यह प्रतिशत अनुसूचित जनजाति में 26.6 प्रतिशत , अन्य पिछड़े वर्ग में 18.3 प्रतिशत और ज्ञात -अज्ञात अन्य जातियों के लोगों के बीच 9.7 प्रतिशत से लेकर 25.3% प्रतिशत है।

कई अध्येताओं को अंडमान-निकोबार के मूल लोगों को 'आदिवासी ' कहना कुछ खटकता है। कुछ वैसे ही खटकता है , जैसे आदिवासी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ वाले ' वनवासी ' कहते है. बेशक वो अब वन -विहीन हो गए हैं । तुर्रा तो यह है ये कि मुम्बई के उपनगर ' वाशी ' में बसे एक पूर्व -पत्रकार और अब एक प्रचार कम्पनी के कार्यकारी अधिकारी अंग्रेजी दैनिक फ्री प्रेस जर्नल के मुंबई संस्करण में ' आदिवासी ' छद्मनाम से विभिन्न विषयों पर स्तम्भ लिखते है. लखनऊ के फिल्मकार राकेश मंजुल ने अंडमान-निकोबार के ' लोगों ' पर वर्षों पहले घंटे भर से ज्यादा की एक डकुमेन्ट्री बनायीं थी। उसे दूरदर्शन पर प्रसारित किया जा चुका है। मगर फिर उसका कुछ ख़ास प्रचार -प्रसार नहीं हो सका। इसे एंथ्रोपोलोजी के हर अध्येता को देखनी चाहिए ताकि " उत्तर -आदिवासी " से पहले के जीवन और उसकी ' लोक कथाओं ' के बारे में सम्यक विमर्श हो सके.

बहरहाल , आदिवासियत स पुस्तक पर आपसी चर्चा में जब वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश ने कहा कि बिहार और झारखंड की सियासत को थोड़ा भी समझने और कवर करने वाले पत्रकारों के लिए इस चर्चा में दी गई जानकारी बहुत सामान्य है। जयपाल सिंह के बारे में झारखंड में ये आम तथ्य हैं। इस पर स्वयं आदिवासी , और नई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्राध्यापक , गंगा सहाय मीणा ने निवेदन किया कि यह कोई साधारण पुस्तक नहीं है। यह एक जीवंत दस्तावेज है जिसको छपने में आधी सदी बीत गए। बाद में उर्मिलेश ने स्पष्टीकरण दिया , " मैंने इस किताब पर कुछ नहीं कहा है भाई ! अभी तो बस आपसे सुन रहा हूं, पढ़ी नहीं है यह किताब। अच्छी होगी। लेखक को बधाई। मैं सिर्फ आपको ये बता रहा था कि जयपाल सिंह के बारे में आपने इस किताब के हवाले जो भी तथ्य अपने फेसबुक पोस्ट में दिये हैं, वे सब नयी खोज नहीं हैं, झारखंड आंदोलन के पाठकों या प्रेक्षकों को यह सब बातें पहले से मालूम हैं। जयपाल सिंह पर अलग से किताब की बात मैं नहीं कर रहा। पर झारखंड आंदोलन के इतिहास और उसके राजनीतिक पहलुओं पर काम पहले भी हुआ है।

चाहें तो वे जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर वीर भारत तलवार से इस बारे में बात कर सकते हैं! जहां तक जयपाल सिंह का सवाल है, वह झारखंड के किंवदंतीय और बहुआयामी व्यक्तित्व रहे हैं। उनका काम झारखंड आंदोलन के इतिहास का हिस्सा है। इस पुस्तक के लेखक को फिर बधाई। विश्वास है, जैसा आप बता रहे हैं, यह नया काम भी अच्छा होगा।

इस लेखक ने स्वीकार किया , " हम तो अविभाजित बिहार के हैं। झारखंड भी जाते रहे हैं . ऐसी किताब तो पढ़ी नहीं थी कभी पहले। इसलिए कहा कि मुझे पता नही था. ये भी नही पता था कि उनके बारे में यह पहली समग्र किताब है जो बड़े शोध और शिद्दत से लिखी गई है . किसी भी नई स्तरीय किताब का महत्व है. इस किताव में राष्ट्रीयता के मुद्दे पर जो सवाल खड़े होते हैं वह पठनीय है .

* 160 पृष्ठों की यह पुस्तक अश्विनी कुमार पंकज ने लिखी है , जो झारखंड आंदोलन से जुड़े रहे हैं। वह रंगकर्मी भी हैं। पुस्तक का प्रकाशन अंग्रेजी और हिंदी में भी ' प्यारा केरकेट्टा फॉउंडेशन ' ने किया है जो अमेज़ॉन पर उपलब्ध है। यह ' भाषा प्रकाशन ' से भी संपर्क कर प्राप्त की जा सकती है जिनका पता है : शॉप नंबर 1, श्री यमुने अपार्टमेंट, अनंतपुर, ओवरब्रिज ,रांची ( झारखंड ) 834002.