इतिहास के जंगल में पत्थर के निशान

पत्थलगड़ी तो मूलतः मुंडा आदिवासी समाज की परंपरा है, लेकिन यह अन्य आदिवासी समाजों में भी किसी न किसी रूप में देखा जा सकता है. मृत्यु के बाद आदिवासी मृतक के शरीर को जलाते भी हैं और मिट्टी भी देते हैं. यानी, मिट्टी के नीचे दबाते भी हैं. एक ही समाज के भीतर के अलग-अलग गोत्रों में अलग परंपरा हो सकती है. जो जलाते हैं, वे अस्थि-राख के अवशेष को मिट्टी के बर्तन में रख कर घर के करीब किसी पेड़-पौधे के नीचे दबा देते हैं और वहां एक पत्थर लगा देते हैं. जो जलाते नहीं, वे उसे ठीक से लपेट कर गांव के करीब ही चिन्हित एक स्थान विशेष में मिट्टी के नीचे दबा देते हैं. जाहिर है एक शरीर के भीतर होने की वजह से वहां की जमीन थोड़ी उंची हो जाती है. फिर उस पर एक चट्टान या पत्थर को सुला दिया जाता है ताकि जंगली जानवर या कोई अन्य पशु उसे नष्ट न कर सके और सिर की तरफ एक पत्थर गाड़ दिया जाता है जिस पर उस व्यक्ति विशेष का नाम, जन्म और मृत्यु की तिथि/वर्ष आदि लिख दिया जाता है. लिखा नहीं, उकेर दिया जाता है. लेकिन यह ससिंदरी या कब्रिस्तान जैसी जगह गांव से बहुत दूर नहीं होती और न उसकी घेराबंदी ही होती है. वह एक खुली जगह और पेड़-पौधों से घिरी जगह ही होती है और गांव, घर, खेत, खलिहान का हिस्सा.

इन सासिंदरियों की चर्चा रांची में आजादी के पहले सेटलमेंट अधिकारी के रूप में रहे जे रीड ने अपने सर्वे रिपोर्ट में इस रूप में की है कि मुंडा समुदाय पश्चिमोत्तर क्षेत्र से झारखंड में आये थे जिसका प्रमाण उन सासिंदरियों से मिलता है जिसे वे इतिहास के उस पथ पर जगह-जगह छोड़ते आये थे. वे बहुधा जमीन पर अपनी दावेदारी के लिए ससिंदरियों या अपने घर-जमीन पर गाड़े गये पत्थरों का इस्तेमाल प्रमाण के रूप में करते थे. अंग्रेजों और उनके पोषित जमींदारों ने जब छल-प्रपंच से उनकी जमीन छीननी चाही तो 25 नवंबर 1880 को ससिंदरी में पत्थरगड़ी के रूप में खड़े पत्थरों के ढेर उठा कर कोलकाता पहंचे थे और ब्रिटिश हुक्मरानों को सबूत के तौर पर सौंपा था.

जमीन से आदिवासियों की बढ़ती बेदखली और पत्थरगड़ी की बहस की शुरुआत

अस्सी के दशक में जंगल पर अपनी दावेदारी मजबूत करने के लिए हो और मुंडा आदिवासियों ने जहां तहां बिखरी ससिंदरियों को खोजा और सरकार को बताने की कोशिश की कि जिन जंगलों को सरकार सुरक्षित क्षेत्र या रिजर्व फारेस्ट के रूप में चिन्हित कर आदिवासी जनता को उससे बेदखल कर रखा है, वह तो उनका घर-गांव था. लेकिन भारत सरकार ने उनके दावे को लगातार होने वाली फायरिंग से दबा दिया. उस आंदोलन के दौरान दो दर्जन पुलिस फायरिंग में कम से कम दो दर्जन लोग मारे गये थे. कोल्हान क्षेत्र में दर्जनों लोगों पर राष्ट्रद्रोह के मुकदमे चले.

उसी दौर में पत्थरगड़ी का इस्तेमाल शहीदों के नाम को उकेरने में किया गया. रांची के करीब के दशमफाल देखने आप जब जायेंगे तो प्रवेश द्वार के आंगन में एक विशाल पत्थरगड़ी देखेंगे जिस पर उस इलाके के संघर्ष में मारे गये शहीदों के नाम दर्ज हैं. 24 दिसंबर 1996 को संसद में पेसा कानून पास हुआ जिसने आदिवासियों की पारंपरिक व्यवस्था और स्वशासन प्रणाली को कानूनी मान्यता दी. उस दौर में बीडी शर्मा के नेतृत्व में आदिवासी इलाकों में बड़े पैमाने पर पत्थलगड़ी की गई. यानी बड़े-बड़े चट्टानों पर ग्रामसभा की शक्तियों एवं अधिकारों को लिखा गया और अनुष्ठानपूर्वक गांवों में लगाया गया. पत्थर पर लिखने का काम सामान्यतः रंग रोगन से नहीं, बल्कि उसे खोद-खोद उकेरा जाता है ताकि वह कभी मिटे नहीं. कुल मिला कर पत्थलगड़ी का इस्तेमाल पेसा कानून के प्रावधानों को जनता को बताने के लिए सूचनापट्ट के रूप में किया गया. फर्क यह की सरकारी सूचना पट्ट भाड़े के मजदूर / ठेकेदार तैयार करते हैं और पत्थलगड़ी ग्रामीण जनता अपने संसाधन और थोड़े परंपरागत तरीके से अनुष्ठानिक रूप में. उस दौर में पत्थलगड़ी को लेकर कोई विवाद नहीं था. लेकिन अब एनडीए सरकार उसे एक आपराधिक कृत्य बता रही है.

आदिवासियों के खिलाफ विवाद खड़ा करने के बहाने

बहाना यह बनाया जा रहा है कि पेसा कानून या संविधान की धाराओं के रूप में कुछ ऐसी बातें या धाराओं का भी उल्लेख पत्थरों पर किया गया जो दरअसल है नहीं. खास कर पत्थलगड़ी के द्वारा आदिवासी इलाके को बहिरागतों के लिए प्रतिबंधित क्षेत्र घोषित करना, जहां वे ग्रामसभा की अनुमति के बगैर प्रवेश नहीं कर सकते. कानूनी पेचीदगियों में न जा कर हम कहें तो खूंटी के आदिवासियों व आंदोलनकारियों का कहना यह कि आप अपने घर में अनधिकृत प्रवेश का बोर्ड लगा सकते हैं, शहर के बीच किसी कालोनी विशेष के प्रवेश द्वार पर बैरिकेट लगा सकते हैं, तो आदिवासी अपने घर-गांव के द्वार पर बैरिकेट क्यों नहीं लगा सकता ? बहिरागतों को, पुलिस-प्रशासन को आदिवासियों से किसी तरह का संवेदनात्मक लगाव नहीं. वे कारपोरेट का लठैत, दलाल बन कर ही आदिवासी इलाके में प्रवेश करते हैं, इसलिए उनके लिए पत्थलगड़ी आंदोलन के क्षेत्र में ग्रामसभा से अनुमति लेकर ही प्रवेश की बात कही गई.

अब रही यह बात कि पत्थलगड़ी आंदोलन के क्षेत्र में सरकारी स्कूलों, अस्पतालों आदि का वहिष्कार किया जा रहा है. यहां तक कि आधार कार्ड को भी गैर जरूरी बताया जा रहा है. सवाल यह कि सरकारी स्कूल और अस्पताल इस लायक हैं कहां कि कोई वहां जाये. और आधार कार्ड की अनिवार्यता पर तो देशव्यापी बहस ही चल रही है. लेकिन पुलिस प्रशासन इन्हीं बातों को बहाना बनाकर पत्थलगड़ी को राष्ट्रद्रोह बता रहे हैं.

गुजरात और झारखंड़ का फर्क

वैसे, यहां एक बात समझने की है कि आंदोलनकारी या उसके कुछ अगुवा गुजरात के कुछ आदिवासी गांवों के जिस मॉडल से प्रेरित होकर यह सब झारखंड में करना चाहते हैं, वे यह भूल जाते हैं कि गुजरात या महाराष्ट्र में जमीन के नीचे खनिज संपदा नहीं और आदिवासी अपने इलाके में स्वायत्त तरीके से रहें तो सरकारों को कोई खास फर्क नहीं पड़ता, लेकिन झारखंड में जमीन के नीचे प्रचुर खनिज संपदा है. यहां तो सत्ता निरपेक्ष नहीं रहेगी. घुस कर आपका दमन करेगी और आपका ‘विकास’ करके मानेगी.

दरअसल पेसा, कानून की मूल भावना है कि राजसत्ता आदिवासी इलाकों में किसी तरह की भी विकास योजना के लिए आदिवासी जनता को भागिदार बनायेगी, यदि जमीन का अधिग्रहण करना चाहती है तो पहले ग्रामसभा की अनुमति लेगी. लेकिन झारखंड सरकार इस मूल भावना को ही नकारती है. सैकड़ों एमओयू बगैर ग्रामसभा की अनुमति के किये गये हैं. और अब आंदोलनकारियों के कुछ अतिवादी तरीकों को आधार बनाकर आदिवासी जनता को कुचलने की नीति पर काम कर रही है. मसलन, गत वर्ष 24 अगस्त को पुलिस ग्रामसभा द्वारा लगाये बेरिकोट को तोड़ कर गांव में घुस गई. उग्र ग्रामीणों ने एसपी, डीएसपी सहित 300 जवानों को बंधक बना लिया. वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को जमीन पर बिठा कर रखा, क्योंकि ग्रामसभा में तमाम ग्रामीण जमीन पर ही बैठते हैं. लेकिन इस बात को सत्ता ने अपना भीषण अपमान समझा.

देशद्रोह के मुकदमे से पुलिस ने चूंटी काटी है

इस बात का एहसास हमे तब हुआ जब देशद्रोह का मामला उठाने की मांग को लेकर जन संगठनों के सांझा अभियान का एक प्रतिनिधि मंडल हाल में झारखंड के गृह सचिव से मिला. इस प्रतिनिधि मंडल में पूर्व के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी रामेश्वर उरांव, जो अब कांग्रेस पार्टी के नेता हैं, निरसा के पूर्व विधायक अरूप चटर्जी, दयामनी बारला, सहित एक दर्जन लोग शामिल थे. गृह सचिव ने माना कि देशद्रोह के इस एफआईआर का कोई पुख्ता आधार नहीं, लेकिन उनका कहना था कि ‘एसपी को पंद्रह घंटे जमीन पर बिठा कर रखेंगे, तो पुलिस चूंटी भी नहीं काटेगी?’ यानी, झारखंड के बीस लोगों को फेसबुक पर लिखने का आधार बनाकर देशद्रोह का अभियुक्त बना देना प्रशासन के लिए एक ‘चूंटी’ काटना मात्र है.

और खूंटी की आदिवासी जनता को पुलिस-प्रशासन के उच्चाधिकारियों की अवमानना की किस तरह सबक सिखाई गई? पत्थरगड़ी इलाके में एक बलात्कार की घटना होती है. बलात्कार की घटना उन महिलाओं के साथ होती है जो सरकारी योजनाओं के प्रोपेगंडा के लिए क्षेत्र में नुक्कड़ नाटक करने गई थी. इस घटना के लिए पीआईएलएफ को जिम्मेदार ठहराया गया और कहा गया कि इस संगठन के सदस्यों ने पत्थरगड़ी आंदोलन के नेताओं के निर्देश पर ऐसा किया. फिर पांच अभियुक्तों की गिरफ्तारी के लिए हजारों की संख्या में पुलिस और सुरक्षा बल के जवानों ने खूंटी के कोचांग गांव में प्रवेश किया. घर-घर की तलाशी ली गई. गोली चली और एक और बिरसा मुंडा मारा गया. और उस आपाधापी में जब उत्तेजित ग्रामीणों ने भाजपा सांसद कड़िया मुंडा के चार सुरक्षा गार्डों को अगवा कर लिया, जिन्हें अगले दिन छोड़ भी दिया गया, तो तलाशी अभियान और पुलिस एवं सुरक्षा बलों की दबिश और बढ़ गई. करीबन 300 अज्ञात लोगों के खिलाफ मुकदमे दायर किये गये. ईसाई मिशनरियों से जुड़े लोग इस आंदोलन का समर्थन कर रहे हैं, इसलिए मदर टरेसा के निर्मल हृदय संस्थान को बच्चा बेचने का आरोप उसी दौरान लग गया.

पत्थरगड़ी आंदोलन के विरुद्ध प्रचार के हथकंड़े

अब हालत यह है कि पत्थरगड़ी आंदोलन राष्ट्रद्रोह का आंदोलन बना दिया गया है. उसको चलाने वाले उग्रवादी और बलात्कारी. उसे सपोर्ट करने वाली ईसाई मिशनरियां नवजात शिशुओं को बेचने वाली और पत्थरगड़ी आंदोलन का समर्थन फेसबुक पर करने वाले राष्ट्रद्रोही. कोचांग में स्थाई पुलिस कैंप बन गया. सरकार ऐलान कर रही है कि वह खूंटी का विकास करके ही मानेगी. दरअसल, उसे रांची शहर के बिस्तार के लिए जमीन चाहिए, खूंटी के आस पास निर्वाध उत्खनन का अधिकार. और इसके खिलाफ जो भी खड़ा होगा, उसे कुचल दिया जायेगा.

इस पूरे प्रकरण में स्थानीय मीडिया की भूमिका शर्मनाक रही है. खूंटी में हुई तमाम हाल फिलहाल की घटनाओं को उसने सिर्फ प्रशासन के नजरिये से देखा, सुना और नकारात्मक रूप से अखबारों की सुर्खी बनाया. भाजपा ने यह बता दिया कि मीडिया की मदद से कैसे लोकतांत्रिक व्यवस्था में फासीवादी तरीकों का इस्तेमाल किया जा सकता है.