शहरी नक्सली की चर्चा पर बात करने से पहले यह कल्पना करें कि दब पहली बार किसी को शहरी आतंकवादी घोषित किया गया होगा तो उस पर लोगों की क्या प्रतिक्रिया हुई होगी और जिसे शहरी आतंकवादी घोषित किया गया होगा, वह सचमुच क्या निकला होगा।जिनकी उम्र पचास वर्ष की नहीं हुई है उन्हें तो जरुर पहले शहरी आतंकवादी के बारे में जानना चाहिए।

शहरी नक्सल की तरह जानें पहले शहरी आतंकवादी को

राम नारायण कुमार को भारत का पहला शहरी आतंकवादी घोषित किया गया था। पहले जानें कि वे कौन थे। वे दक्षिण भारतीय ब्राहम्ण परिवार के सदस्य थे और अपने पिता के साथ अयोध्या के मठ में रहते थे । पिता उनके महंथ थे। लेकिन 1975 में उन्होने मठ छोड़ दिया और 19 वर्ष की आयु में आपातकाल के विरोध के जेल में बंद कर दिए गए।19 वर्ष की उम्र से लेकर 53 वर्ष की उम्र में मरने तक वे देश में उन लोगों के लिए लड़ते रहे जिन्हें मजदूर, किसान, आदिवासी, दलित और लाचार कहा जाता है। उन्होने तिहाड़ जेल में बंदियों के भी अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी और पंजाब में सिखों के मानवाधिकार के लिए भी लंबे समय तक जुझते रहें। उन्होने पंजाब में पुलिस द्वारा हत्याओं के वैसे सबूत जमा किए कि पुलिस ने जिन्हें आतंकवादी करार देकर मारा था वे निर्दोष नागरिक थे। लोकतंत्र को बचाएओ रखने के लिए उनके संघर्षों की एक लंबी फेहरिस्त है। उन्हें पहला शहरी आतंकवादी जिस वजह से घोषित किया गया उसकी कहानी ये है कि राम नारायण कुमार को जब झागराखंड के कोयला खादान की हालात नहीं देखी गई तो वहां के मजदूरों को लेकर सीधे दिल्ली स्थित संसद सदस्य दलबीर सिंह के घर आ गए और 13 अप्रैल 1982 को उनके घर को नौ घंटे तक कब्जे में रखा। तब जितने तरह के अखबार उतने तरह के आरोप रामनारायण पर लगाए गए।इंडिया टुडे ने उन्हें शहरी आतंकवादी बताया तो अमेरिका ने सोवियत संघ की खुफिया एजेंसी केजीबी का एजेंट करार दिया और सोवियत संध ने उन्हें अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए का सदस्य बताया।

आतंकवाद को जिस तरह से एक फार्मूले के तहत शहर और गैर शहर के बीच बांटा गया। उसी तरह से एक प्रशासनिक रणनीति के तहत नक्सलवाद को शहरी और गैर शहरी के रुप में बांटा गया है। जिस तरह से आतंकवाद से कनेक्शन के नाम पर पुलिस को पढ़े लिखे और आर्थिक रुप से मजबूत मुस्लिम युवकों की मनचाही गिरफ्तारी और उसे लंबे समय तक के लिए जेल में डाले जाने की छूट मिल जाती है उसी तरह से प्रचार माध्यमों की मदद से शहरी नक्सल के आरोप में वैसी ताकत पैदा करने की कोशिश की जाती रही है। उसी प्रचार के हिस्से के रुप में फिल्म अरबन नक्सल भी है। यह सर्वविदित है कि देश में आतंकवाद के नाम पर मुस्लिम युवकों की धड़ाधड़ गिरफ्तारियां और आरोपों के झुठे होने के कई दर्जन उदाहरण सामने हैं।इन गिरफ्तारियों से एक खास तरह की साम्प्रदायिक विचारधारा के संगठन और सत्ता को उससे लाभ पहुंचाने की कोशिश की गई है। इसी तरह से दलितों के भीतर जो वर्तमान सत्ता से नाराजगी है उसे निपटने के लिए शहरी नक्सल थ्योरी को सबसे ज्यादा कारगर माना जा रहा है।

किससे निपटा जा रहा शहरी नक्सल के नाम पर

28 अगस्त को दिल्ली, गोवा, मुंबई, हैदराबाद, थाणे, रांची जैसी जगहों से एक साथ जिन वकीलों ,पत्रकारों व शिक्षाविदों के घरों पर छापेमारी के बाद गिरफ्तार किया गया है उन्हें शहरी नक्सल कनेक्शन का आरोप लगाया गया है। उनमें सुधा भारद्वाज के बारे में पहले एक कुख्यात टीवी चैनल ने शहरी नक्सलवादी होने का प्रचार अभियान चलाया।ये छुपाते हुए कि वे देश के जाने माने बुद्धिजीवी परिवार से जुड़ी है और आदिवासियों, मजदूरों के बीच अपना पूरा जीवन लगाया है। वे पेशे से जानी मानी वकील है और उन्होने अपनी अमेरिकी नागरिकता को भी उस दौर में त्यागने का फैसला किया जिस समय हजारों का तादाद में ‘ हमारे देशभक्त” अमेरिकी नागरिकता के लिए मुंह बाए खड़े दिखाई देते हैं। एक़ॉनोमिंक एंड पॉलिटिकल वीकली के संपादक रहे गौतम नवलखा मानवाधिकारों के लिए लड़ने वाले देश के एक मशहूर कार्यकर्ता के रुप में जाने जाते हैं। आतंकवाद निरोधक कानून के खिलाफ संघर्ष में लगे रहे हैं। कवि वरवरा राव सेवानिवृत प्रोफेसर हैं और तेलुगु के मशहूर कवि हैं।इनके अलावा डा. भीम राव अम्बेडकर के परिवार से जुड़े डा. आनंद तेलतुम्बड़े पूरी दुनिया में अपनी बौद्धिकता के लिए जाने जाते हैं।अरुण फरेरा समर्पित वकील है और दलितों के आंदोलनों से जुड़े रहे हैं। उन्हें पहले भी माओवादी लिंक के आरोप में गिरफ्तार किया गया लेकिन अदालत ने छोड़ दिया और वर्नोन गोंजाल्विस मुबंई की एक मशहूर कॉलेज में प्रोफेसर थे।

इनसे पहले 6 मई 2018 को भी नागपुर के मशहूर वकील सुरेन्द्र ग़डलिंग, नागपुर विश्वविद्यालय में अंग्रेजी विभाग की प्रमुख प्रोफेसर शोमा सेन, मशहूर मराठी कवि व संपादक सुधीर धावले, राजनीतिक बंदी रिहाई अभियान के दिल्ली में सक्रिय रोमा विल्सन और ‘प्रधानमंत्री फेलोशिप’ धारक महेश राउत को 6 मई को गिरफ्तार कर लिया। वकील सुरेन्द्र गडलिंग दलितों, आदिवासियों के लिए लड़ने वाले वकील के रुप में लोकप्रिय है।

मजेदार बात है कि ये सभी गिरफ्तारियां भीमाजी कोरे गांव में इस वर्ष 1 जनवरी को दलितों के खिलाफ हिंसा की घटना से जुड़ी हुई है। 31 दिसंबर 2017 को दलित बड़ी संख्या में वहां जमा हुए थे और हिंसा के लिए जिम्मेदार हिन्दूत्ववादी तत्वों के खिलाफ थाने में एफआईआर दर्ज कराई गई थी। लेकिन उस एफआईआर पर कार्रवाई के बजाय हिंसा में जो लोग शामिल थे उनकी पुणे में 8 जनवरी को पुलिस ने यह एफआईआर दर्ज कर ली कि भीकाजी कोरे गांव में महार रेजिमेंट की जीत के दो सौ वर्ष पूरे होने के मौके पर विजय दिवस मानने के लिए 31 दिसंबर 2017 को अल्गार परिषद ने जो मिटिंग की थी उसमें दलितों को हिंसा के लिए उकसाया गया था।

दलित विरोध में कैसे आया नक्सली कनेक्शन

8 जनवरी के एफआईआर को पुणे पुलिस ने मार्च 2018 को आंतरिक सुरक्षा के खिलाफ षडयंत्र के रुप में बदल दिया और दलित उत्पीड़न की घटना को शहरी माओवादी कनेक्शन की घटना के रुप में स्थापित करने में कामयाबी हासिल कर ली। इसे फिर प्रधानमंत्री की हत्या के षडयंत्र से जोड़ा गया जैसे पिछले कुछ वर्षों में बड़े नेताओं की हत्या की साजिश के आरोप में दर्जनों लोगों को गिरफ्तार किया गया लेकिन अदालतों ने उन आरोपों को झुठा करार दे दिया। शहरी नक्सल कनेक्शन और प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश का आरोप पुलिस को बेशुमार पॉवर से लैश कर देती है। इसी पॉवर का इस्तेमाल कर महाराष्ट्र की पुलिस ने देश के विभिन्न हिस्सों दिल्ली, गोवा, हैदराबाद, रांची , थाणे, मुबंई में 28 अगस्त को एक साथ दर्जन भर प्रोफेसर, वकील, पत्रकार, सांस्कृतिक कर्मी, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के घरों पर सुबह छह बजे छापेमारी की और उन्हें देशद्रोह के षडयंत्र में शामिल होने की जानकारी दी।

पहले प्रचार फिर गिरफ्तारी

इन वर्षों में पुलिस और मीडिया का बड़ा हिस्सा एक दूसरे के पूरक के रुप में सक्रिय हुआ है। मीडिया ने पहले शहरी नक्सल का जोरशोर से प्रचार किया लेकिन बिना किसी नक्सल चेहरे के। केवल शब्द का प्रचार आम लोगों के बीच इसीलिए किया जाता है ताकि उस शब्द के रंग में जरुरत के अनुसार किसी भी चेहरे को रंग दिया जा सकें। शहरी नक्सल के आरोप का प्रचार सबसे पहले गिरफ्तार कार्यकर्ताओं को जनतांत्रिक चेतना से लैश उन लोगों से काट देता है जिनका दिमाग नक्सल आंदोलन को अपराधी होने के प्रचार से भरा जा चुका है।

शहरी नक्सल के प्रचार का उद्देश्य

शहरी नक्सल का प्रचार के केन्द्र में कौन है, ये समझना जरुरी लगता है।शिक्षक, वकील, पत्रकार, सांस्कृतिककर्मीयो, मानवाधिकार कार्यकर्ता और छात्र-युवा होते हैं।वकील इसीलिए कि वे समर्पित भाव से उन मुकदमों को लड़ने की ताकत दिखाते हैं जिन्हें पुलिस झुठे आरोपों में जेल में डाल देती है। आतंकवाद के झुठे मामलों को भी अदालत में चुनौती देने वाले वकीलों की हत्या और हमले की कई घटनाएं सामने आ चुकी है। शिक्षक कैम्पस में छात्र छात्राओं को समाज को देखने का नजरिया देता है और छात्रों को इसीलिए ताकि नई पीढ़ी में सत्ता की निरंकुशता के विरोध में संगठित होने के भाव को कुचला जा सकें जो कि वर्तमान दौर में सबसे ज्यादा सतह पर दिखाई देने लगा है। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की हत्या और हमले की दर्जनों घटनाएं सामने आ चुकी है।हर तरह के गाने और मनोरंजन करने वाले सत्ता को नहीं चुभते हैं बल्कि वे चुभते हैं जो समाज के बहुजनों के हालात को बदलने की जरुरत पर बल देते हैं। दरअसल ये पात्र समाजिक लिंक हैं जिन्हें तोड़ना सत्ता को सबसे ज्यादा जरुरी लगता है क्योंकि मौजूदा सत्ता के लिए यह लिंक ही सबसे बड़ी चुनौती बनी हुई हैं।नक्सल लिंक के आरोप को शिक्षकों, वकीलों, पत्रकारों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और छात्र युवाओं को एक साथ निपटने की क्षमता से लैश करने का प्रयास किया जा रहा है।