बीते 5 सिंतबर को दिल्ली के संसद मार्ग पर देशभर से लाखों की संख्या में मजदूर और किसान जुटे थे। नरेन्द्र मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों की वजह से न सिर्फ श्रमिकों की जीविका पर हमला बढ़ा है बल्कि खेती-किसानी के हालत भी खराब हुई है।

ठीक छह दिन बाद 11 सिंतबर को ट्विटर पर प्रधानमंत्री मोदी द्वारा आंगनवाड़ी और आशा कार्यकर्ताओं के साथ बातचीत की खबर ट्रेंड करती रही। 5 सिंतबर के किसान-मजदूर संघर्ष रैली में बड़ी संख्या में आंगनबाड़ी और आशा कार्यकर्ताओं ने भी हिस्सा लिया था।

इसी रैली में मेरी मुलाकात हैदराबाद की आशा और आंगनवाडी कार्यकर्ताओं से हुई थी। हैदराबाद की आशा कार्यकर्तोओं ने बताया कि उनकी सबसे बड़ी परेशानी ये है कि उनकी तनख्वाह फिक्स नहीं है और पी.एफ फन्ड ,पैंशन और स्वास्थ संबधित कोई भी सुबिधा उन्हें सरकार द्वारा प्राप्त नहीं होती है।

हैदराबाद के महबूब नगर जिला की आशा वर्कर कुशाल देवी की उम्र 55 साल है। वह आशा वर्कर के रूप में लगभग 17 सालों से वहाँ काम कर रही है और पूरे दिन काम करने पर भी उन्हें तनख्वाह के रूप में कुछ नहीं मिलता। वह बताती हैं कि हैदराबाद से लगभग 60 से 70 महिला किसान मजदूर संघर्ष रैली में शामिल हुई हैं। कुशाल देवी की उम्र अब धीरे धीरे रिटायरमेंट के करीब आ रही है और तनख्वाह बिल्कुल ना के बराबर है वह बताती हैं कि जब महबूबनगर जिले में कोई डिलीवरी का काम आता है तब उन्हें उस काम के ₹800 रूपए दिए जाते हैं और पोलियों टिकाकरण जैसे कैम्पों में उन्हे 75 रूपए दिए जाते हैं।

कुशाल कहती है, “मैं जितना काम करती हूं उस काम के ही पैसे दिए जाते हैं। कोई फिक्स तनख्वाह नहीं दी जाती। अगर काम आता है तो पैसे मिलते हैं और अगर काम नहीं आता तो पैसे नहीं मिलते कभी कभी पूरे महीने में केवल 1500 से 2000 भी बड़ी मुश्किल से कमा पाती हूं, जिसके चलते मुझे घर चलाने में काफी परेशानियां होती हैं”।

कुशाल अकेली नहीं है। उन जैसी हजारों लाखों महिलाएं हैं जो आशा वर्कर के रूप में दिन भर काम करती है और पूरा दिन काम करने पर भी उन्हें सरकार द्वारा न्यूनतम वेतन भी नहीं दिया जाता। कुशाल की चिंता है कि 5 साल बाद वह रिटायर हो जाएगी, पेंशन की सुविधा ना होने के कारण अभी जो वह 1500 से 2000 कमा लेती थी तब उन्हें वो भी नहीं मिल पाएगें। अपने रिटायर होने से पहले वह बाकी आशा वर्कर के लिए एक तनख्वाह फिक्स कराते हुए जाना चाहती है। उनका मानना है कि तनख्वाह कम से कम 18000 सरकार द्वारा कर दी जाए।

उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले की रहने वाली आगनबाडी कार्यकर्ता मालती देवी ने बताया कि कि टीकाकरण में ₹150 उन्हें मिलता है पर पिछले मार्च से वह पैसा भी काट दिया गया है। प्रसव में ₹600 उन्हें दिए जाते हैं और राष्ट्रीय प्रोग्राम जैसे पोलियो टीकाकरण आदि में उन्हें पूरे दिन का 75 रुपये दिया जाता है। मालती बताती हैं कि “न्यूनतम वेतन कुछ तय नहीं किया गया है जिसकी मांग को लेकर वह इधर जमा हुए हैं”।

उनकी मांग है कि ₹18000 न्यूनतम वेतन कर दिया जाए” तथा उन्हें स्वास्थ्य बीमा का भी लाभ दिया जाए। मालती कहती है, “हर बार चुनाव में वादे किए जाते हैं कि उनका वेतन निर्धारित कर दिया जाएगा पर चुनाव के बाद सरकार वह सब वादे भूल जाते हैं। अभी उन्हें कोई निर्धारित वेतन नहीं दिया जाता जिसके कारण वह सब बेहद परेशान है उनके साथ बस्ती से 50 से 60 लोग रैली में शामिल है”।

आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं के साथ केन्द्र सरकार 1975 से काम कर रही है। पूरे देश में लगभग 28 लाख आंगनबाड़ी कार्यकर्ता हैं। लेकिन आज भी इन्हें सरकारी कर्मचारी का दर्जा नहीं मिला है। 11 सिंतबर को इन आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं के साथ संवाद में प्रधानमंत्री ने कहा कि देशभर में कुपोषण से निपटने की लड़ाई में और राष्ट्र निर्माण में आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं की भूमिका काफी महत्वपूर्ण रही है। लेकिन फिर सवाल उठता है कि इन कार्यकर्ताओं को सिर्फ 3 हजार रुपये की सैलरी क्यो दी जा रही है?

क्या तीन हजार रुपये में ये कार्यकर्ता अपने ही बच्चों को कुपोषण से बचाने में सक्षम हो पायेंगी?

हालांकि चुनावी घोषणा करते हुए प्रधानमंत्री ने इनके वेतन को 3 हजार से 4500 करने की घोषणा की है, लेकिन फिर भी सवाल वहीं है कि क्या 4500 रुपये जो न्यूनतम वेतन से काफी कम है को एक सम्मानजनक और बेहतर वेतन माना जाना चाहिए?

क्या आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं की दशकों-दशक से वेतन सिर्फ इसलिए नहीं बढ़ाया गया क्योंकि इसमें महिलाएँ काम करती हैं और महिलाओं को सामान्यतः कम वेतन दिया जाता है?

देशभर में आंगनबाड़ी में काम कर रही महिलाओं ने बच्चों को कुपोषण से बचाने की, पोलियो जैसे अभियान को सफल बनाने की लड़ाई में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। क्या केन्द्र सरकार उनके योगदान को नजरअंदाज करना बंद करेगी?

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