अमेरिका के न्यू जर्सी स्थित ड्रियू यूनिवर्सिटी में राजनीतिशास्त्र के एसोसिएट प्रोफेसर के तौर पर भारत और अमेरिका में मानवाधिकारों की स्थिति के बारे में पढ़ाने और शोध करने के नाते मैं जाने – माने मानवधिकार कार्यकर्ता एवं पत्रकार गौतम नवलखा (के साथ – साथ पीयूसीएल की वकील / कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज, प्रख्यात कवि वरवर राव, अधिवक्ता अरुण फरेरा एवं अन्य लोगों) की गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम, जोकि बुनियादी अधिकारों का हनन करता है, के तहत मनमानी गिरफ़्तारी से आश्चर्यचकित हूं.

नवलखा (और भारद्वाज) सरीखे मानवाधिकार कार्यकर्ताओं द्वारा किये गये उल्लेखनीय कार्य लोकतंत्र और मानवाधिकारों के शोधार्थियों के लिए जानकारी का एक महत्वपूर्ण स्रोत हैं. वे उन्हें मानवाधिकारों के उल्लंघनों और उनके प्रति भारतीय राज्य के रवैये के बारे में बताते हैं. इन कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीश न्यायमूर्ति डी. वाई. चंद्रचूड़ ने हाल में ठीक ही कहा है : “असहमति लोकतंत्र का ‘सुरक्षा कपाट’ है और अगर आप इन सुरक्षा कपाटों को काम नहीं करने देंगे, तो यह फट जायेगा.”

यह निश्चित रूप से चिंताजनक है कि कमजोर और वंचितों के अधिकारों की रक्षा एवं उसके प्रोत्साहन में अपना सारा जीवन खपा देनेवाले प्रख्यात मानवाधिकार कार्यकर्ता आज खुद निशाने पर हैं. मानवाधिकार रक्षकों से संबंधित संयुक्त राष्ट्र घोषणा – पत्र में कहा गया है : “राज्य ‘किसी भी हिंसा, धमकी, प्रतिशोध, प्रतिकूल भेदभाव, दबाव या घोषणापत्र में निर्दिष्ट अधिकारों के वैध क्रियान्वयन के परिणामस्वरूप होने वाली किसी भी अन्य मनमानी कार्रवाई के खिलाफ हर किसी की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सभी आवश्यक कदम उठाने को बाध्य होगा.”

मानवधिकारों से जुड़े भारतीय एवं वैश्विक विमर्शों में गौतम नवलखा, जो कई दशकों से पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स के सदस्य हैं, की भूमिका को याद करने का मतलब भारतीय संविधान में निहित समानता और स्वतंत्रता के बुनियादी मूल्यों को बचाने के प्रयासों को दर्ज करना है. इन मूल्यों के प्रति भारत के नागरिक स्वतंत्रता एवं लोकतांत्रिक अधिकार आंदोलन 1980 के दशक से समर्पित रहे हैं.

नवलखा के तमाम कार्य, चाहे वो पोटा और टाडा या अफस्पा जैसे असाधारण कानूनों के एक आलोचक के तौर पर हों या फिर कश्मीर, पूर्वोत्तर राज्यों और मध्य भारत में आतंकवाद के कारणों के टिप्पणीकार के रूप में, भारतीय लोकतंत्र की कमजोरियों को समझने की उनकी प्रतिबद्धता को प्रतिबिंबित करते हैं. और उनकी यह प्रतिबद्धता सभी के लिए लोकतंत्र और समानता के वायदे को पूरा करने के एक प्रयास के अनुरूप है.

उन्होंने जिन असाधारण कानूनों पर अपनी कलम चलायी, उन सबकी मनमानेपन और समाज के एक खास हिस्से को निशाना बनाये जाने के कारण व्यापक आलोचना हुई है. यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय को नियमित रूप से दखल देकर इन कानूनों के तहत हुई ज्यादतियों से निपटना पड़ा है. मणिपुर में गैरकानूनी तरीके से हुई हत्याओं के खिलाफ चल रहा एक मामला इसका स्पष्ट उदहारण है. राष्ट्रीय मानवधिकार आयोग सरीखी राष्ट्रीय संस्थाओं और यूनिवर्सल पीरियोडिक रिव्यू जैसी संयुक्तराष्ट्र की संस्थाओं ने भी इन कानूनों के तहत हुए मानवाधिकारों के उल्लंघनों को रेखांकित किया है.

वास्तव में, यह कहा जा सकता है कि गौतम नवलखा सरीखे मानवाधिकार कार्यकर्ताओं द्वारा मुहैया कराई गई व्यवस्थित जानकारियों ने ही लोगों को लोकतंत्र में ऐसे कानूनों की मौजूदगी और भारतीय समाज में व्याप्त असंतोष और असमानता के कारणों से निपटने में उनकी उपयोगिता के बारे में सोचने को मजबूर किया है.

श्री नवलखा एक समर्पित मानवाधिकार कार्यकर्ता होने के साथ - साथ एक संजीदा पत्रकार के तौर पर भी जाने जाते हैं. इकोनोमिक एंड पालिटिकल वीकली एवं अन्य पत्र – पत्रिकाओं में लिखे गये उनके लेख गहन शोध पर आधारित और ऐतिहासिक महत्व वाले होते हैं. भारतीय राज्य और राजनीति के बारे में उनकी व्यापक समझ की वजह से उनके लेखों में गहराई होती है. इकोनोमिक एंड पालिटिकल वीकली दक्षिण एशिया की बेहतरीन पत्रिकाओं में से एक है, जिसे दुनियाभर में पढ़ा जाता है और वह किसी अकादमिक शोध की नीतिगत एवं व्यावहारिक उपयोगिता का मानक है. एक सलाहकार संपादक के रूप में श्री नवलखा ने इस पत्रिका की उल्लेखनीय यात्रा को दिशा देने तथा इसकी उच्च गुणवत्ता बनाये रखने में अहम योगदान दिया है.

अगर इस किस्म के कार्यों को आदर देने के बजाय ऐसे कार्यों मे जुटे व्यक्ति को श्री नवलखा के माफिक निशाना बनाया जाता है, तो यह भारतीय लोकतंत्र पर नजर रखने वाले लोगों के लिए खतरनाक संकेत है. ठीक एक ऐसे समय में जब भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने समलैंगिकता को अपराध न मानकर आत्म – सम्मान, स्वतंत्रता एवं समानता के अधिकार को मजबूती दी है और दुनियाभर के लोकतांत्रिक कार्यकर्ताओं की वाहवाही अर्जित की है, सारी दुनिया इस बात के इंतजार में है कि इसी किस्म की परिपक्व संवैधानिक नैतिकता इन गिरफ्तार मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के अधिकारों के मामले में दिखाई जाती है या नहीं.

वर्ष 2014 में मानवाधिकार और यातना से जुड़ी अपनी एक अकादमिक परियोजना के लिए मैंने गौतम नवलखा का साक्षात्कार लिया था. इस विषय पर पीयूडीआर के जांच – रिपोर्टों एवं उनके अपने लेखन में श्री नवलखा के दृष्टिकोण की छाप नजर आती है.

लेकिन इन सबसे परे, उनके विचार स्वतंत्रता और गरिमा के सार को अमल में लाने के एक बेहद बुनियादी अभियान से निकले हैं जोकि भारतीय राजनीति और समाज के लिए जरुरी हैं. आज, कोई भी सिर्फ इस बात की जरुरत पर बल दे सकता है कि मनमाने और गलत तरीके से निशाना बने बगैर ऐसे मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के बोलने, सोचने, लिखने और असहमति रखने की स्वतंत्रता हो.

(जेनी लोकनीता, ड्रियू यूनिवर्सिटी, मैडिसन, न्यू जर्सी में राजनीति विज्ञान और अंतर्राष्ट्रीय संबंध विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं)