पिछले दो दशकों से मेरी पहचान आदिवासी जनता, उनके गौरव तथा आत्म सम्मान के लिए संघर्ष करने वाले व्यक्ति के रूप में रही है. झारखंड में एक लेखक के रूप में मैं उन सभी मुद्दों का विश्लेषण करने का प्रयास करता रहा हूँ जो आदिवासी जनता से सम्बन्धित रहे हैं. इसके तहत, भारतीय संविधान के आलोक में, मैं झारखंड सरकार की विभिन्न नीतियों और कानूनों के प्रति स्पष्ट रूप से अपनी असहमति प्रकट की है. मैंने समय समय पर सरकार और शासक वर्ग द्वारा उठाए गए विभिन्न कदमों की वैधता और उसकी न्यायपरकता पर सवाल उठाया जहाँ तक पत्थलगढ़ी का मुद्दा है, मैं यह सवाल पूछता हूँ कि ‘‘आखिर आदिवासी अभी ऐसा क्यों कर रहे हैं?’’

मेरा मानना है कि धैर्य की सभी सीमाओं के पार जाकर उनका दमन और शोषण किया गया है. प्रचुर खनिज सम्पदा जो उनकी जमीनों की खुदाई करके निकाला गया है, वह बाहरी उद्योगपतियों और व्यापारियों को मालामाल किया है और दूसरी तरफ यह आदिवासी जनता को इस हद तक दरिद्र बनाया है कि वे भुखमरी का शिकार होने को विवश हो गये हैं. जिस भी खनिज सम्पदा का उत्पादन यहाँ किया जा रहा है,उसमें उनका कोई हिस्सा नहीं है. इसके अलावा जो भी नीतियाँ और कानून उनके हित में बनाए गए हैं, जानबूझकर उनको लागू नहीं किया जा रहा है. और अंततः वे ‘‘अब बहुत हो चुका’’ की स्थिति में पहुंच गए हैं . अपनी पहचान को ग्राम सभा के सशक्तिकरण के द्वारा स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं.

लम्बे समय से मैंने जिन प्रश्नों को उठाया है वे निम्नवत हैं- मैंने संविधान की पॉचवी अनुसूची को लागू न किए जाने पर सवाल उठाया है- भारतीय संविधान का अनुच्छेद 244 (1) स्पष्ट रूप से यह प्रावधान करता है कि ‘जनजातीय सलाहकार परिषद’ जिसका गठन केवल आदिवासी समुदाय के सदस्यों को लेकर होगा तथा जो उनकी सुरक्षा, कल्याण और विकास के सम्बन्ध में राज्यपाल को सलाह देगाराज्यपाल आदिवासियों के संवैधानिक संरक्षक हैं. वे उनके हित में कानून बना सकते हैं या किसी भी कानून को निरस्त कर सकते हैं. जनजातीय सलाहकार परिषद की बैठक शायद ही कभी होती है. यह पूरी तरह से मुख्यमंत्री और शासक वर्ग के नियंत्रण में चला गया है. और इस प्रकार जनजातीय सलाहकार परिषद अर्थहीन हो चुका है. वास्तव में यह आदिवासी जनता के साथ संवैधानिक धोखाधड़ी है्र मैंने पेसा कानून को नजरअंदाज किए जाने पर सवाल उठाया है- पेसा कानून के द्वारा पहली बार इस बात को मान्यता दी गई है कि ग्राम सभा के माध्यम से आदिवासी समुदायों के स्वशासन की समृद्ध सामाजिक एवं सांस्कृतिक परम्परा रही है, परन्तु दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि संसद द्वारा पारित इस कानून को सभी आदिवासी बहुल नौ राज्यों में क्रियान्वित नहीं किया गया है. इसका तात्पर्य यह है कि सरकार नहीं चाहती कि आदिवासी स्वशासन की दिशा में आगे बढ़े.

मैंने सर्वोच्च न्यायालय के समता निर्णय, 1997 पर सरकार की चुप्पी पर सवाल उठाया है-समता जजमेंट जो अनुसूचित क्षेत्रों में आदिवासी समुदाय के लिए एक बड़ा राहत प्रदान करने वाला था, यह निर्णय ऐसे समय में दिया गया था जब वैश्वीकरण, बाजारीकरण, निजीकरण के दौर में राष्ट्रीय एवं अंतराट्रीय कम्पनियों द्वारा मध्य भारत के खास तौर पर आदिवासी बहुल क्षेत्रों में खनिज सम्पदा से समृद्ध क्षेत्रों में हमलावर रूप अख्तियार की थी. सरकार की तरफ से इन कम्पनियों को पूरा समर्थन था. आदिवासियों की तरफ से किसी भी प्रकार के प्रतिरोध को निर्दयतापूर्वक कुचल दिया जा रहा था. ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय आदिवासियों की सुरक्षा, खनिज सम्पदा पर उनके नियंत्रण तथा उनके अपने आर्थिक विकास के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण साबित हुआ था. परन्तु वास्तविकता यह है कि राज्य ने सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय को नजरअंदाज किया है.प्रभावित आदिवासी समुदाय द्वारा अनेक मुकदमें दाखिल किए जाने के बावजूद पुराने औपनिवेशिक कानूनों का प्रयोग करते हुए आदिवासियों को उनकी जमीन और खनिज सम्पदा से बेदखल किया जा रहा है.

मैंने वनाधिकार अधिनियम, 2006 के आधे-अधूरे कार्यवाही पर सवाल उठाया है- जैसा कि हम जानते हैं कि जल, जंगल और जमीन आदिवासी जनता के जीवन का आधार है. पारम्परिक रूप से वनों पर उनके अधिकार का लगातार उल्लंघन किया गया है. अंततः सरकार को इस बात का इल्म हुआ कि आदिवासी जनता तथा जंगल में रहने वाले अन्य समुदाय के साथ ऐतिहासिक अन्याय किया गया है. इस गलती को सुधारने के लिए ही यह कानून लाया गया. लेकिन वास्तविकता कुछ और ही है. सन् 2006 से 2011 तक 30 लाख आवेदन वन भूमि के हकदारी के संदर्भ में आदिवासियों एवं वनवासियों की तरफ से दिए गए जिसमें से केवल 11 लाख को ही माना गया तथा 14 लाख आवेदनों को निरस्त कर दिया गया है. अर्थात वनाधिकार कानून के तहत जंगलों के प्रबंधन, संरक्षण व लघुवनोपजों पर अधिकार के साथ ही व्यक्तिगत पट्टे और समुदायिक पट्टे देने में सरकार को रुचि नहीं है इसलिए वह बहाना बनाने से भी नहीं चुकर ही है और अब झारखंड सरकार ग्राम सभा को किनारे करके आदिवासियों की जमीन का अधिग्रहण कर उद्योगपतियों को दे रही है

मैंने सर्वोच्च न्यायालय के आदेश कि ‘‘जमीन का मालिक जमीन के अंदर पड़े खनिज सम्पदा का भी मालिक है’ को लागू न किए जाने के सम्बन्ध में सरकार की निष्क्रियता पर सवाल उठाया है- सर्वोच्च न्यायालय ने अपने उपरोक्त आदेश में कहा है कि ऐसा कोई कानून नहीं है जो यह कहता है कि जमीन के अंदर खनिज सम्पदा सरकारी सम्पत्ति है. इसके विपरीत जमीन का मालिक जमीन के अंदर पड़े खनिज सम्पदा का भी मालिक है, जब तक कि उसे उचित कानूनी प्रक्रिया द्वारा इससे वंचित न कर दिया गया होउनके जमीन के अंदर की खनिज सम्पदा को सरकार और निजी कम्पनियों द्वारा लूटा जा रहा हैसर्वाेच्च न्यायालय ने 219 में से 214 कोयला खदानों को अवैध घोषित किया है और उसे बंद करने का आदेश दिया है तथा अवैध खनन के लिए उन पर लेवी लगाया है. परन्तु केन्द्र और राज्य सरकारों ने नए तरीके से इन अवैध खदानों की नीलामी करके इसे वैधशक्ल देने का प्रयास किया है.

मैंने सर्वोच्य न्यायालय के इस कथन कि ‘‘केवल प्रतिबंधित संगठन का सदस्य होने मात्र से कोई व्यक्ति अपराधी नहीं हो जाता जब तक कि वह किसी तरह की हिंसा में शामिल न हो या लोक अव्यवस्था फैलाने के लिए हिंसा को उकसावा नहीं देता हो’’ को नजरअंदाज किए जाने पर सवाल पर उठाया है. सर्वोच्य न्यायालय ने केवल जुड़ाव के आधार पर अपराधी मानने के सिद्धांत को निरस्त कर दिया है.यह एक सामान्य बात है कि बहुत सारे नौजवान पुरूष और औरतों को केवल नक्सलियों के मददगार होने के संदेह में जेल में डाल दिया गया है. एकबार गिरफ्तार किए जाने के बाद उन पर अनेक गंभीर आपराधिक धाराओं के तहत मुकदमें दर्ज किए जाते हैं. यह किसी के साथ बड़ी आसानी से किया जा सकता है, जिसे पुलिस अपने गिरफ्त में लेना चाहती है. इसके लिए किसी साक्ष्य की आवश्यकता नहीं है. इससे यह बात स्पष्ट होती है कि कानून व्यवस्था लागू करने वाली ताकतें किस हद तक न्यायिक प्रक्रिया से कटी हुई हैं.

मैंने अभी हाल में झारखंड सरकार द्वारा भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 2013 में संशोधन पर सवाल उठाया है जो कि आदिवासी समुदाय के लिए बरबादी का माध्यम साबित हो सकती है. इस संशोधन के द्वारा ‘‘सामाजिक प्रभाव आकलन’’ की आवश्यकता को समाप्त कर दिया गया है, जो पर्यावरण की सुरक्षा की दृष्टि से तथा प्रभावित लोगों के सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों की सुरक्षा से सम्बन्धित था. इसका सबसे बुरा असर यह है कि इससे सरकार किसी भी कृषि भूमि को गैर कृषि कार्यों के लिए दे सकती है्र मैंने भूमि बैंक पर सवाल उठाया है जिसे मैं समझता कि यह आदिवासियों की जमीन के ऊपर सबसे ताजा हमला है. फरवरी 2017 में आयोजित मोमेंटम झारखंड के दौरान सरकार ने यह घोषणा की थी कि 21 लाख एकड़ भूमि, भूमि बैंक के अंतर्गत लिया गया है जिसमें से 10 लाख एकड़ उद्योगपतियों को दिए जाने की तैयारी है. ‘‘गैर मजूरआ’’ भूमि यानि ऐसी भूमि जिस पर खेती नहीं होती है, वह आम जमीन भी हो सकती है और खास जमीन भी. परम्परा के अनुसार व्यक्तिगत रूप से या सामुदायिक रूप से ऐसी जमीनों पर आदिवासियों या वहां के निवासियों का उन पर कब्जा रहा है या उसका इस्तेमाल वे करते रहे हैं. आश्चर्यजनक रूप से सरकार ने ऐसी सभी जमीनों जिसे ‘‘जमाबंदी’’ भी कहा जाता है को सरकारी जमीन घोषित की है और ऐसी जमीनों को उद्योगों के लिए दिया जा सकता हैलोगों की जमीन उनसे छीनी जा रही है और उन्हें इसके बारे में कुछ पता ही नहीं है. जन जातीय सलाहकार परिषद ने भी इस सम्बन्ध में अपनी सहमति नहीं दी है, जैसा कि संविधान की पॉचवी अनुसूची के तहत अनिवार्य है. इसके अलावा ग्राम सभाओं ने भी इस सम्बन्ध में अपनी सहमति नहीं दी है, जो पेसा कानून के अंतर्गत आवश्यक है . पुनः भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 2013 के अनुसार जन सुनवाई के द्वारा आदिवासियों की सहमति इस बारे में नहीं ली गई है. जनहित से जुड़े ये सारे सवाल मैं समयानुसार उठाता रहा हूँ यदि ये सवाल उठाना कहीं से भी देशद्रोह है तो मुझे इसकी रत्ती भर भी परवाह नहीं है.