सरकारी नौकरियों में दलितों और आदिवासियों के लिए आरक्षण और जिन्हें नौकरियां मिल गई है उन्हें पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था संविधान के अनुसार सरकारें तय करती है लेकिन जिन्हें आरक्षण की व्यवस्था से एतराज होता है वे संसद व विधानसभाओं द्वारा आरक्षण के लिए किए गए प्रावधानों को सॆंविधान की मूल भावना पर चोट पड़ने की शिकायत के साथ न्यायालयों में चले जाते हैं। न्यायालय संसद व विधानसभाओं द्वारा किए गए प्रावधानों की व्याख्या अपने स्तर पर करता है। इस रस्साकशी का एक लंबा इतिहास है। सुप्रीम कोर्ट ने 26 सितंबर को सरकारी नौकरियों में पदोनन्ति की प्रक्रिया में भी आरक्षण के प्रावधानों को लेकर जो अपना मत जाहिर किया है, वह इस इतिहास की नवीनतम कड़ी है।

सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय एक बैंच ने 19 अक्टूबर 2006 को एक फैसला सुनाया था। सुप्रीम कोर्ट के सामने यह शिकायत की गई थी कि संसद ने अनुच्छेद 335 में की गई व्यवस्था के अनुसार आरक्षण और पदोन्नति में आरक्षण के लिए अनुच्छेद 16(4) में संविधान संशोधन किया है और यह समानता के सिद्धांत के विरुद्ध है। इस शिकायत को एस नागराज बनाम सरकार के रुप में जाना जाता है। इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने ये कहा कि राज्य व केन्द्र सरकार पदोन्नति में आरक्षण के लिए जो प्रावधान कर रही है उसके लिए उसके पास दलितों व आदिवासियों के पिछड़ेपन के बारे में पर्याप्त आंक़ड़े होने चाहिए। सरकार के पास ये भी आंकड़े होने चाहिए कि आदिवासियों व दलितों का प्रतिनिधित्व का अभाव है।

इस तरह देश भर में प्रनोन्नति में आरक्षण के प्रावधानों को लागू करने के बारे में विभिन्न उच्च न्यायालयों व विभागों द्वारा फैसले लिए जाते रहे। 2006 के इस फैसले को प्रोन्नति में आरक्षण के लिए सरकार द्वारा किए गए प्रावधानों को लागू करने में कानून के व्याख्याकारों द्वारा अड़चनें पैदा की जा रही थी। तब सरकार के समाने एक विकल्प था कि वह अब तक कानूनी व्याख्यों की जितनी अड़चनें खड़ी हुई है उन्हें दूर करने के उद्देश्य से एक अध्यादेश लाया जाए लेकिन राजनीतिक कारणों से सरकार ने इस रास्ते के बजाय सुप्रीम कोर्ट के सामने गई । सरकार के साथ सामाजिक न्याय को लागू करने की चुनौती को पुरा करने में लगी संस्थाएं और व्यक्ति भी सुप्रीम कोर्ट को यह समझाने की कोशिश की एक प्रक्रिया में लगे कि दलितों व आदिवासियों के आरक्षण और पदोन्नति के लिए उनके पिछड़ेपन के आंकडों की जरुर नहीं है। क्योंकि दलितों और आदिवासियों की सामाजिक स्थिति पिछड़े वर्गों से भिन्न रही है। पिछड़े वर्गों के लिए सामाजिक और शैक्षणिक आधार पर आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था है। लेकिन दलित और आदिवासी समाज से बहिष्कृत की स्थिति में सदियों से रह रहे हैं। 30 अगस्त तक सुनवाई पुरी करने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने 30 सितंबर को यह कहा कि पिछड़ेपन का आंकड़ा जुटाने की जरुरत सरकार को नहीं है।

इस फैसले पर गौर करें तो एक बात स्पष्ट होती है कि सुप्रीम कोर्ट ने संसद और विधानसभाओं द्वारा नये प्रावधान करने के अधिकार को तो स्वीकार करते हैं लेकिन उन्हें लागू करने के लिए मानदंड तैयार करने का मसला संविधान की व्याख्याओं पर आकर टिक जाता है और व्याख्याएं करने का अधिकार सुप्रीम कोर्ट के पास सुरक्षित है।

इस फैसले के आधार पर हम मौटेतौर ये कह सकते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के कर्मचारियों व अधिकारियों को पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था को स्वीकार कर लिया है।लेकिन उसने पदोन्नति में आरक्षण को लागु करते वक्त पिछड़े वर्ग की तरह दलितों और आदिवासियों में क्रीमिलेयर के सिद्धांत और प्रसासनिक दक्षता पर पड़ने वाले प्रभाव के आकलन की जरुरत को उसमें शामिल कर लिया है।

दलितों और आदिवासियों पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण एक राजनीतिक मसला है। जब राजनीतिक स्तर पर सामाजिक तौर पर वंचित वर्गों की ताकत में इजाफा होता है तो आरक्षण और उससे जुड़े दूसरे प्रावधान सामने आते है या फिर राजनीतिक स्तर पर वंचितों के बीच अपने विस्तार की जरुरत करने वाली राजनीतिक शक्तियां आरक्षण जैसे मसले को छूने की कोशिश करती है। न्यायापालिका और स्सद के बीच आरक्षण को लेकर जो रस्साकशी चलती हैं वह राजनीतिक परिस्थितियों के अनुसार एक फैसले के रुप में सामने आती है।

हाल के वर्षों में दलितों और आदिवासियों के हितों के लिए किए गए प्रावधानों पर हमले की घटनाएं बढ़ी है। इसमे अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण कानून 1989 में भी सुप्रीम कोर्ट द्वारा 20 मार्च को किए गए संशोधन और उसके बाद केन्द्र सरकार द्वारा उक्त कानून को पुरानी स्थिति में लाने के लिए संसद में विधेयक पारित करने की एक प्रक्रिया को भी शामिंल किया जाना चाहिए। केन्द्र सरकार न्यायालयों द्वारा किए जा रहे फैसलों के राजनीतिक परिणामों को लेकर चिंतित रही है।लिहाजा उसे दलित और आदिवासी हितों के अनुकूल दिखने की कवायद से गुजरना पड़ता है जबकि सत्ताधारी पार्टी का सामाजिक आधार न्यायापालिका द्वारा किए गए संशोधनों की पक्षधर हैं।

सुप्रीम कोर्ट के 30 सितंबर के फैसले को दलितों और आदिवासियों के बीच पनप रहे असंतोष और असंतोष को जाहिर करने के लिए आंदोलनरत होने की स्थिति से जोड़कर देखा जाना चाहिए। अपने संघर्षों के बूते अपने लिए दलित और आदिवासी संबोधनों को जिस तरह से इन वर्गों ने सुरक्षित रखा है उसी संघर्ष की यह कड़ी है कि एक लंबी लड़ाई के बाद सुप्रीम कोर्ट और भाजपा की सरकार को पदोन्नति में कोटे को न्यायोचित ठहराने के लिए बाध्य़ होना पड़ा है।

यह एक प्रमाणित तथ्य है कि सरकार के उंचे पदो पर अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के पदाधिकारियों की संख्या न के बराबर होती है। 21 मार्च 2018 को राज्यसभा में भाजपा के डा. सत्यनारायण जतिया के एक प्रश्न के जवाब में सरकार ने बताया कि पीएसबी में अध्यक्ष/मुख्य प्रबंध निदेशक और क्षेत्रीय महाप्रबंधक के स्तर पर अजा और अजजा के लिए कोई आरक्षण नहीं है। 28 मार्च को लोकसभा में सरकार के एक जवाब के मुताबिक 77 मंत्रालयों, विभागों और उनसे जुड़े कार्यालयों में 1 जनवरी 2016 तक अनुसूचित जाति का प्रतिनिधित्व 17.29 प्रतिशत, अनुसूचित जनजाति का प्रतिनिधित्व 8.47 प्रतिशत और अन्य पिछड़े वर्ग का प्रतिनिधित्व 21.5 प्रतिशत होने का दावा किया है।

दरअसल पदोनन्ति में आरक्षण की व्यवस्था के विरोध में जो वातावरण तैयार किया गया उसके नतीजे के तौर पर न्यायालयों के भीतर भी उसका एक दबाव दिखाई देता है।सुप्रीम कोर्ट ने 20 मार्च को जो फैसला सुनाया था उसे लेकर सुप्रीम कोर्ट और सरकार की भूमिका को लेकर कई गंभीर सवाल खड़े हुए थे। इसके खिलाफ दलितों का ऐतहासिक आंदोलन 2 अप्रैल को देश भर में हुआ था । तब से खासतौर से दलितों के आंदोलन का दबाव सरकार महसूस कर रही है और पदोनन्ति में आरक्षण के मामले में ढिलाई बरतने के हालात में उसके राजनीतिक दुष्परिणाम को लेकर आशंकित थी।। आरक्षित वर्ग के अधिकारियों को प्रोन्नति में आरक्षण देने की व्यवस्था से ही आरक्षण के संवैधानिक सिद्धांत मुक्कमल होता है।