मछरा मध्य प्रदेश और उसे बांटकर 2002 में बनने वाले राज्य छत्तीसगढ़ और इनके राजस्थान के पहले अक्षरों का संक्षिप्त नामकरण हैं जहां विधानसभा के लिए चुनाव दस्तक दे रहे हैं। राजनीतिक हालात के मद्देनजर इन तीनों राज्यों में कई स्तरों पर बहुत समानता है। खासतौर से यह कि इन तीनों राज्यों में दो ही पार्टियां कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी आमने सामने रहती है। देश के लगभग दूसरे सभी राज्यों में तीसरी ताकत का उभार देखने को मिला है। मसलन दिल्ली जैसे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में भी आम आदमी पार्टी जैसे राजनीतिक दल का उभार हाल के वर्षों में दिखाई देता है। प्रश्न है कि क्या मछरा में होने वाले विधानसभा चुनाव राज्यों में तीसरी राजनीतिक शक्ति के उभार की भी पृष्ठभूमि तैयार कर रही हैं?

ब्रिटिश साम्राज्य से सत्ता के हस्तांतरण के बाद देश के दो पिछड़े और ग्रामीण बाहुल्य राज्यों खासतौर से राजस्थान और मध्य प्रदेश में कांग्रेस के मुकाबले भारतीय जनसंघ ही एक बड़ी ताकत के रूप में मौजूद थी। 1962 तक कांग्रेस की हुकूमत को छुआ नहीं जा सका लेकिन 1967 में पूर्व राजघराने की गायत्री देवी और भारतीय जनसंघ ने विधानसभा की सर्वाधिक सीटें जीत ली। वह दौर भारतीय राजनीति में कांग्रेस के मुकाबले नये राजनीतिक ध्रुवीकरण का था और देश के नौ राज्यों में संविद सरकारें बनी थी। राजस्थान में पहली बार जनसंघ के नेता भैरो सिंह शेखावत के नेतृत्व में 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी जिसे पहली गैर कांग्रेसी सरकार कहा जा सकता है। राजस्थान की राजनीतिक प्रवृत्ति यह दिखती है कि जनसंघ ही, जो कि 1980 में गांधी समाजवाद के रास्ते पर चलने की घोषणा कर भारतीय जनता पार्टी के रूप में सामने आई कांग्रेस के मुकाबले राज्य की राजनीति में उभरती विरोधी शक्तियों का केन्द्र बनती चली गई और पहली बार भैरोसिंह शेखावत कुछेक निर्दलीय विधायकों के समर्थन से 1993 में अपनी सरकार बनाने में कामयाब हुए। इस तरह भारतीय जनता पार्टी ने राज्य में अपने बूते खड़े होने की यात्रा हासिल की है।

राजस्थान में पार्टियां एक ही विचारधारा की प्रतिद्वंदी के रुप में एक दूसरे के मुकाबले रही है। जाति और धर्म पार्टियों का आधार-केन्द्र रही हैं और वह राजपूत और जाट के वर्चस्व के दायरे में सिमटी रही है। स्वतंत्रता के बाद एक नये राजनीतिक भूगोल के रुप में राजस्थान के स्तर पर राजनीति की नई जमीन तैयार करने के लिए जो प्रयास हुए वे राजस्थान के किसी एक हिस्से में सिमट कर रह गए। मसलन समाजवादी नेता मामा बालेश्वर दयाल ने समानता और बदहाली दूर करने की विचारधारा के आधार पर आदिवासी इलाकों में नई राजनीति खड़ी करने की कोशिश की लेकिन उनका विस्तार बासवाड़ा से बाहर नहीं हो सका। किसान और किसानी के आधार पर कभी कुमारानंद ने तो कभी पथिक जी ने वैसे ही कोशिश की जैसे सीकर के इलाके में हाल के दौर में सीपीएम कर रही है। लेकिन इस तरह के प्रयास संसदीय राजनीति में विस्तार के रास्ते के रुप में विकसित नहीं हो सकें। राजस्थान में जो भी तीसरी ताकत के रुप में खड़ी होने की कोशिश दिखी वह वास्तव में दो ताकतों के भीतर ही भागेदारी के नतीजे के साथ ठप्प पढ़ गई।

आदिवासी बाहुल्य पिछड़े राज्य मध्य प्रदेश में विधानसभा पहले पहल चुनाव के दौरान कांग्रेस के मुकाबले में दूर दूर तक दूसरी कोई राजनीतिक पार्टी नहीं देखने मिलती है। भारतीय जनसंघ ने 76 सीटों पर चुनाव लड़ा और 62 पर उसके उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई। कांग्रेस के 225 उम्मीदवारों में 194 को कामयाबी मिली थी। समाजवादी पार्टी ने 143 उम्मीदवार खड़े किए और 13.3 प्रतिशत मत पाकर केवल 2 पर ही जीत हासिल की। केएमपीपी दूसरी ऐसी पार्टी थी जिसे 14.22 प्रतिशत मत मिले थे और उसके 71 उम्मीदवारों में केवल 8 को कामयाबी मिली थी। जनसंघ की राजनीतिक मिजाज के विपरीत आदिवासियों, किसानों, मजदूरों के बुनियादी आर्थिक और सामाजिक हितों पर आधारित राजनीति करने वाले भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी समेत आठ दल थे। लेकिन मध्यप्रदेश में भारतीय जनसंघ और बाद में भारतीय जनता पार्टी अकेले कांग्रेस के मुकाबले सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरकर सामने आई। समाजवादी नेता रधु ठाकुर के अनुसार तीसरा मोर्चा बनाने की एक कोशिश 1989 में की गई लेकिन वह विफल हो गई। ण दो पार्टियों के भीतर के असंतोष के नतीजे के रुप में बाहर आए नेताओं का समूह तीसरा मोर्चा का नारा जरुर लगाता दिखता है लेकिन वह वास्तविक रुप में राजनीतिक विचारधारा के रुप में तीसरा मोर्चे नहीं होता है। यह आम प्रवृति है कि विभिन्न तरह के मिजाज वाले क्षेत्रों में बंटे किसी राज्य में एक कोने पर आधारित पार्टी खड़ी कर उसे तीसरा मोर्चे के रुप में संबोधित किया जाता जिसका मकसद सदन में प्रतिनिधित्व तक सिमटा रहता है। मध्य प्रदेश के विभाजन के बाद छत्तीसगढ़ में भी यही देखने को मिला। फर्क सिर्फ यह दिखाई देता है कि मध्यप्रदेश में जहां पिछड़े वर्ग के हाथों में नेतृत्व हैं वहीं आदिवासी बाहुल्य छत्तीसगढ़ में सवर्ण नेतृत्व है। मछरा में तीसरी शक्ति की राजनीति के संकेत भी धुंधले दिखते हैं। जहां देश भर में चुनाव आयोग द्वारा मान्यता प्राप्त पार्टियों की संख्या 51 है लेकिन इनमें एक भी मछरा में नहीं हैं। गैर मान्यता प्राप्त पंजीकृत पार्टियां भी इन राज्यों में वैसी नहीं है जो कि राजनीतिक स्तर पर तीसरे मोर्चे की दिशा में जाती दिखती है।

मछरा में एक तरह से राजनीतिक जड़ता बनी हुई है। नई शक्तियों के रुप में सामाजिक स्तर पर दमित हिस्से का उभार तो दिखाई दे रहा है लेकिन वे संसदीय प्रतिद्वंदता में नई राजनीति की तरफ बढ़ने का संकेत नहीं दे रही है। मछरा में संसदीय पार्टियों के बीच नई भाषा में राजनीति के लिए तीसरे मोर्चे की जरुरत बनी हुई है।