स्वराज इंडिया के राष्ट्रीय अध्यक्ष और जय किसान आंदोलन के संस्थापक योगेंद्र यादव की किताब 'मोदी राज में किसान: डबल आमद या डबल आफत' के शीर्षक से लग सकता है कि ये किताब मोदी विरोध में लिखी गई है लेकिन पढ़ने पर पता चलता है कि हाल ही के कुछ सालों में कृषि पर आई किताबों में सबसे सरल किताब है.

योगेंद्र यादव अपनी इस किताब में बताते हैं कि किसान विरोधी सरकारें भारत में शुरू से ही रही हैं. पहले की सरकारों ने किसान को बीमार किया लेकिन मोदी सरकार ने किसान को सीधे ICU में ही पहुंचा दिया. किसी सरकार को किसान विरोधी कहने के तीन पहलू हैं. पहला, सरकार ही किसान वर्ग की विरोधी होती है। इस तरह के विरोध में सरकार किसानों के मुकाबले दूसरे वर्गों को आगे बढ़ाती है और जानबूझकर किसानों कोपीछे धकेलती है। यह भावनात्मक विरोध है जो बैर या दुर्भाव से पैदा होता है. जैसे किसी विशेष जाति के समर्थन से बनी सरकार या व्यापारी वर्ग के समर्थन से बनी सरकार.

दूसरा विरोध वैचारिक होता है. इसमें सरकार किसान की वैचारिक विरोधी हो जाती है. इसके लिए बैर या दुर्भाव की भावना आवश्यक नहीं है, किसान के प्रति दया का भाव रखने वाला भी किसान का वैचारिक विरोधीहो सकता है. वह दुनिया के किसी नक्शे में किसान के लिए जगह नहीं देखता. कह सकते हैं कि ऐसा विरोध पूर्वाग्रह या अज्ञानता से पैदा हुआ हो.

तीसरा विरोध व्यवस्थागत होता है. इसमें ऐसी नीतियों और संस्थाओं का निर्माण किया जाता है जिससे किसान का ही नुकसान हो. यह विरोध अनजाने में भी हो सकता है। अपने आपको किसान का हितैषी समझनेवाले लोग भी किसान का व्यवस्थागत नुकसान कर सकते हैं।

योगेंद्र यादव ने साफ-साफ कहा है कि यह देश की पहली ऐसी सरकार है जो तीनों अर्थों में किसान विरोधी है। मोदी सरकार न सिर्फ व्यवस्थागत रूप से किसान विरोधी है बल्कि अपनी सोच और दृष्टिकोण से भी यहकिसान-विरोधी सरकार है. इसकी मंशा ही किसान वर्ग के विरोध की है.

इसके पक्ष में योगेंद्र यादव उदाहरण देते हैं.

2014 से पहले बीजेपी का प्रमुख वादा था कि किसानों को खेती की पूरी लागत पर कम से कम डेढ़ गुना ज़्यादा मुनाफा दिया जाएगा. स्वामीनाथन आयोग ने 2006 में बनाई अपनी रिपोर्ट में कहा था कि किसानों कोघाटे से बचाने के लिए उन्हें सम्पूर्ण लागत का डेढ़ गुना दाम देना होगा. लागत को मापने के तीन पैमाने निर्धारित किए गए. पहला बिलकुल न्यूनतम पैमाना है. इसमें बीज, कीटनाशक, खाद, बिजली, कटाई, बुवाईजैसे खर्चे शामिल हैं. इसे A2 लागत कहते हैं. इसमें किसान और उसके परिवार की मेहनत मजदूरी शामिल नहीं है. लेकिन अगर इसमें अनुमान से कुछ राशि और जोड़ दें तो इसे आंशिक लागत कहा जाएगा. सरकारीभाषा में इसे A-2+FL लागत कहेंगे.

तीसरी लागत को C2 कहा जाता है जिसमें पंपसेट, ट्रैक्टर और ज़मीन का किराया और ब्याज सबके खर्चे शामिल हैं. स्वामीनाथन की रिपोर्ट ने C2 को आधार बनाकर फसलों के दाम डेढ़ गुना बढ़ाने की सिफारिश कीथी. इसे किसान की फसल का संपूर्ण लागत भी कहते हैं. विपक्ष में रहते हुए बीजेपी C2 को आधार बनाकर फसलों का MSP निर्धारित करने की मांग उठाती रही. लेकिन सरकार में आते ही बीजेपी ने इसके उलट कामकिया. सबसे पहले तो राज्य सरकारें घोषित MSP पर अपनी तरफ से जो बोनस किसानों को देती थीं, उसे हटवाया.

2015 में जब सरकार ने फसलों के डेढ़ गुना दाम देने से मना कर दिया तो एक किसान संगठन ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की. लेकिन केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दायर किया जिसमें कहा गयाकि फसलों के दाम डेढ़ गुना बढ़ा देने से बाज़ार के विकृत होने की संभावना है. शुरूआती 4 सालों में सरकार ने C-2 लागत के बराबर भी MSP घोषित नहीं किया. इस लागत पर डेढ़ गुना बढ़े हुए दाम तो दूर की बात है.ज्वार, रागी, तिल, सूरजमुखी और मूंग जैसी सात फसलों की सरकार द्वारा अनुमानित C-2 लागत अधिक थी और सरकार द्वारा घोषित MSP कम. कुल मिलाकर शुरुआती 4 सालों में मोदी सरकार ने UPA सरकारसे बेहतर दाम देने के बजाय उससे भी कम दाम दिए.

2018 के बजट में घोषणा की गई सरकार आगामी खरीफ की फसल का MSP लागत से डेढ़ गुना ज्यादा देगी. लेकिन इस बार सरकार लागत की परिभाषा ही बदल दी. C-2 की बजाय यानी आंशिक लागत A-2+FLको आधार मानकर ही दाम बढ़ाए गए.

इसी तरह योगेंद्र यादव फसल बीमा योजना के फ्रॉड होने और नोटबंदी से हुए नुकसान के बारे में भी बताते हैं. इससे प्रधानमंत्री के 2022 तक किसानों की आमदनी डबल करने के दावे की कलई खुलती है. योगेंद्र यादवलिखते हैं कि 2022 तक डबल आमदनी का मतलब भी समझ नहीं आया है. अभी हो रही आय का कागज़ी डबल या फिर उस समय की वास्तविक आय का डबल.

किताब पढ़ने के बाद जान पाते हैं कि 2014-2015 और 2015-2016 में पड़े सूखे के दौरान सरकार ने उचित कदम नहीं उठाए. पिछले 3 दशक में इसे खेती-किसानी का सबसे बड़ा संकट माना गया है. केंद्र सरकार केपास तमाम आंकड़े होने के बावजूद वो राज्यों को सूखे के बारे में आगाह करने में असफल रही. रिज़र्व बैंक ने साफ़ साफ़ कहा है कि सूखे के समय किसानों के क़र्ज़ माफ़ हों और उन्हें खुले हाथ से नया क़र्ज़ दिया जाए।सुप्रीम कोर्ट में दायर एक याचिका के जवाब में केंद्र सरकार ने कहा था कि सूखा राज सरकार की ज़िम्मेदारी है, केंद्र सरकार की नहीं. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार की आलोचना करते हुए कहा कि केंद्र सरकारअपनी सवैंधानिक ज़िम्मेदारियों से बचने की कोशिश कर रहा है. ना ही मोदी सरकार ने राष्ट्रीय लैंड यूज़ अथॉरिटी बनाने की दिशा में एक कदम उठाया. ना पशुपालन बढ़ाने पर ध्यान दिया गया. बल्कि गौ रक्षा केनाम मॉब लिंचिंग हुई. इसके परिणाम ये हुई कि किसानों की फसलें आवारा पशुओं की भेंट चढ़ने लगीं. आवारा गायों के लिए गौशला बनाने की दिशा में भी कोई खास काम नहीं किया गया. पर किसानों की आमदनी2022 तक डबल करने की बात भाजापा के छुटभैये नेता भी कर रहे हैं.