राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी को यह कहने में कभी कोई संकोच न था कि वे हिन्दू हैं। परन्तु, वे यह भी कहते थे कि उनके लिए धर्म एक निजी चीज़ है। उनके सबसे बड़े शिष्य जवाहरलाल नेहरु, तार्किक्तावादी और अनीश्वरवादी थे। नेहरु ने धर्मनिरपेक्ष भारत की नींव रखी - एक ऐसे भारत की, जहाँ धार्मिक मुद्दे, व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर तक सीमित थे और राज्य का उनसे कोई लेनादेना नहीं था। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री की मृत्यु को 54 साल गुज़र गए हैं और इस अवधि में भारत में अकल्पनीय परिवर्तन हुए हैं। नेहरु के पड़पोते राहुल गाँधी, जिन्होंने अपने राजनैतिक जीवन की शुरुआत में सार्वजनिक रूप से धर्म के प्रति किसी प्रकार का प्रेम प्रदर्शित नहीं किया था, अचानक अनन्य धार्मिक बन गए हैं। वे कह रहे हैं कि वे जनेऊ धारी हिन्दू और शिवभक्त हैं और एक मंदिर से दूसरे मंदिर के चक्कर काट रहे हैं। उनके कांग्रेस अध्यक्ष रहते हुए पार्टी की मध्यप्रदेश इकाई ने राम वन गमन पदयात्रा निकाली और यह घोषणा की कि सत्ता में आने पर वह हर ग्राम पंचायत में एक गौशाला खोलेगी। भाजपा के प्रवक्ता, कांग्रेस और उसके मुखिया के मंदिर और धर्मप्रेम पर इस तरह सवाल उठा रहे हैं मानो ऐसे मसलों पर उनका एकाधिकार हो।

इस सबका नतीजा यह है कि कांग्रेस के आलोचक उस पर नरम हिन्दुत्व की राजनीति करने का आरोप लगा रहे हैं। एक तरह से देखा जाए तो गांधी और नेहरू की पार्टी के बारे में इस तरह की चर्चाएं होना अपने आप में चिंताजनक है। परंतु फिर भी, हम यह नहीं कह सकते कि कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्षता की राह छोड़ दी है। वह अब यह स्वीकार नहीं करती कि हमारे संविधान का मूल चरित्र धर्मनिरपेक्ष है, जिसके अनुसार किसी धर्म को मानना या न मानना संबंधित व्यक्ति का निजी निर्णय है। क्या कांग्रेस उसी राह पर चल रही है जिस पर भाजपा और संघ बरसों से चल रहे हैं अर्थात समाज को धार्मिक आधार पर ध्रुविकृत कर वोट कबाड़ने की राह पर? क्या कांग्रेस ने विघटनकारी राजनीति करने का निर्णय ले लिया है? क्या वह लोगों का ध्यान मूल मुद्दों से भटकाकर राम मंदिर, पवित्र गाय और गौमांस जैसे मुद्दों पर केन्द्रित करना चाहती है? सन् 2014 के आम चुनाव में कांग्रेस की हार के कारणों पर विचार करने के लिए ए. के. एंटोनी कमेटी नियुक्त की गई थी। इस समिति ने अपनी रपट में कहा था कि कांग्रेस की हार का एक बल्कि प्रमुख कारण यह था कि आम लोग उसे मुस्लिम- परस्त पार्टी मानने लगे थे और बहुतों के लिए मुस्लिम-परस्त होने का अर्थ था हिन्दू विरोधी होना। इस प्रकार की धारणा के जड़ पकड़ने के पीछे था संघ-भाजपा का यह अनवरत प्रचार कि कांग्रेस, मुसलमानों का तुष्टिकरण करती आ रही है और उनकी ओर झुकी हुई है। इसके साथ ही, यह प्रचार भी किया गया कि जवाहरलाल नेहरू एक मुस्लिम के वंशज थे और यह भी कि कांग्रेस की हिन्दुओं के हितों की रक्षा करने में कोई रूचि नहीं है। यह भी कहा गया कि एक ओर हिन्दू भाजपा है और दूसरी ओर ईश्वर को न मानने वाले धर्मनिरपेक्ष।

इस दुष्प्रचार की जड़ें ढूंढने के लिए हमें कुछ पीछे जाना होगा। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का गठन तत्समय उभरते नए भारत का प्रतीक था। कांग्रेस सभी भारतीय समुदायों की प्रतिनिधि थी। फीरोजशाह मेहता और बदरूद्दीन तैय्यबजी उसके शुरूआती अध्यक्षों में से थे। उसी समय से, हिन्दू जमींदारों और साम्प्रदायिक तत्वों, जिन्होंने आगे चलकर हिन्दू महासभा और आरएसएस का गठन किया, ने यह कहना शुरू कर दिया था कि कांग्रेस मुसलमानों का तुष्टिकरण कर रही है। आरएसएस के प्रशिक्षित स्वयंसेवक नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी पर मुसलमानों को शह देने का आरोप लगाया। उसका कहना था कि गांधीजी के कारण ही मुसलमानों में इतनी हिम्मत आ सकी कि उन्होने पाकिस्तान की मांग की और भारत का विभाजन करवा दिया। इसी गलत धारणा के चलते गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या की। स्वाधीनता के बाद, प्रजातांत्रिक सिद्धांतों के अनुरूप, धार्मिक अल्पसंख्यकों को उनके शैक्षणिक संस्थान चलाने की अनुमति दी गई। इसके साथ-साथ, हज के लिए एयर इंडिया को अनुदान देना शुरू किया गया। इन दोनों मुद्दों ने संघ परिवार को यह गलत बयानी करने का हथियार दे दिया कि कांग्रेस अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण कर रही है।

फिर, कांग्रेस ने एक बड़ी भूल की। उसने शाहबानो मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्णय को पलटने के लिए संसद मे एक कानून पारित करवाया। इससे तुष्टिकरण के आरोप को और बल मिला। कांग्रेस ने पोंगापंथी मुसलमानों के आगे झुककर एक बहुत बड़ी गलती कर दी।

ऐसा नहीं है कि कांग्रेस धर्मनिरपेक्षता के प्रति पूर्णतः समर्पित थी और संपूर्ण प्रतिबद्धता से धर्मनिरपेक्ष नीतियों को लागू कर रही थी। साम्प्रदायिक हिंसा को नियंत्रित करने के मामले में उसकी सरकारों की भूमिका बहुत अच्छी नहीं थी। प्रशासनिक तंत्र केवल हिंसा को नियंत्रित करने के लिए पूर्ण निष्ठा से काम नहीं करता था वरन् वह मुसलमानों और सिक्खों के प्रति पूर्वाग्रहग्रस्त भी था। बाबरी मस्जिद के द्वार खुलवाना और उसे जमींदोज होते चुपचाप देखते रहना, कांग्रेस की अक्षम्य भूलें थीं। कुल मिलाकर, कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता में कई छेद थे और वह हिन्दू राष्ट्रवाद और हिन्दुत्व के बढ़ते कदमों को नहीं रोक पाई। आज देश के एजेंडे का निर्धारण हिन्दुत्व की राजनीति कर रही है। ममता बनर्जी ने हाल में दुर्गापूजा पंडालों के लिए सस्ती दर पर बिजली उपलब्ध करवाई और रामनवमी के उत्सव में भाग लिया।

सवाल यह है कि राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस आज जो कर रही है, क्या उसे नरम हिन्दुत्व कहा जा सकता है। ऐसा कतई नहीं है। वह अपनी धार्मिकता का प्रदर्शन कर अपनी मुस्लिम-परस्त छवि को बदलने का प्रयास कर रही है। वह नहीं चाहती कि उसे एक ऐसी पार्टी के रूप में देखा जाए, जो ईश्वर में आस्था ही नहीं रखती। दूसरी ओर, हिन्दुत्व की राजनीति, जाति और लिंग के ब्राम्हणवादी पदक्रम पर आधारित है। उसका लक्ष्य धर्मनिरपेक्ष प्रजातंत्र को समाप्त कर हिन्दू राष्ट्र की स्थापना करना है। हिन्दुत्व का मुकाबला करने के लिए हमें गांधी के हिन्दू धर्म की समावेशी अवधारणा को अपनाना होगा। हमारा हिन्दू धर्म वह होगा जिसमें बहुवाद और विविधता के लिए जगह होगी।

संघ परिवार के हिन्दू आरएसएस-भाजपा बनाम मुस्लिम-परस्त धर्मनिरपेक्ष नारे का मुकाबला कैसे किया जाए? कांग्रेस को हिन्दू धर्म के हाशिए पर पड़े वर्गों जैसे किसानों, दमित जातियों और पितृसत्तामकता की शिकार महिलाओं के मुद्दों को उठाना चाहिए। कांग्रेस के नेतृत्व में ब्रिटिश राज से मुक्ति मिली थी। अब उसे ही देश को जातिवाद, साम्प्रदायिकता और पितृसत्तामकता से मुक्त कराने का बीड़ा उठाना होगा।