अठारहवीं शताब्दी की शुरुआत में मणिपुर आये हिंदू धर्मप्रचारक शांतिदास गोसाई द्वारा मैतेई समुदाय के लोगों को हिंदू धर्म में परिवर्तित करने के बाद उनके पवित्र ग्रंथ को जला दिया गया. मैतेई समुदाय के ग्रंथ को जलाने की घटना ने मणिपुरी समाज की संस्कृति, भाषा, धर्म और सामाजिक सदभाव पर हमला किया. मणिपुर में हिंदू धर्म के आने के बाद समाज के विभिन्न वर्गों के बीच शुद्ध और अशुद्ध की भावना ने वहां के लोगों के जीवन को बेहद प्रभावित किया.

अस्पृश्यता (छुआछूत) या मणिपुरी भाषा में इसके लिए इस्तेमाल किये गये शब्द की अवधारणा बहुत ही भ्रम पैदा करने वाली है. लोगों ने मैतेई समाज के भीतर जाति के अस्तित्व को नकार दिया. इस नकार की वजह यह रही कि मणिपुर के लोग खुद को भारत के अछूत लोगों के साथ चिन्हित किया जाना पसंद नहीं करते. जबकि, सारी जिंदगी और मरने तक जीवन के हर हिस्से में जाति का चलन और जातिवाद का लक्षण देखा जाता है.

हालांकि, अस्पृश्यता या मणिपुरी में इसके समान अर्थ वाला शब्द “अमांग - असेंग" ("शुद्ध और अशुद्ध") सोशल मीडिया में आजकल चर्चा का एक विषय बनी हुई है.

मणिपुरी में जातिवाद और अस्पृश्यता के लिए "अमांग-असेंग" शब्द का प्रयोग किया जाता है. "अमांग-असेंग" का हिंदी में शाब्दिक अर्थ "शुद्ध और अशुद्ध" है. शुद्ध और अशुद्ध रक्त की यह अवधारणा वैदिक ग्रंथ में वर्णित जातिवाद के करीब है.

केंद्र सरकार की ओर से मणिपुर विश्वविद्यालय में हिंदुत्व की मशीनरी को घुसाने के प्रयास और राज्य सरकार द्वारा अनजाने में उसे स्वीकार किये जाने के बाद मणिपुर के लोगों के बीच शुद्ध और अशुद्ध (अमांग-असेंग) के बारे में चर्चा आजकल सोशल मीडिया में विमर्श का हिस्सा बन गई है. इस चर्चा को मणिपुर के कंगला के पवित्र स्थान के भीतर राश लीला मंडप के निर्माण के बारे में अपुष्ट अफवाहों के जरिए हवा दी गयी. इस अफवाह से चौंके लोग कंगला को सनामाही मत के वास्ते पवित्र रखने के लिए चिंतित थे.

क्या मणिपुर में हिंदू धर्म के आने से पहले शुद्ध और अशुद्ध (अमांग-असेंग) मौजूद थे? या यों पूछें कि क्या इस जातिवाद या अस्पृश्यता का अर्थ एक ही है?

मैं पिछले बीस वर्षों से मणिपुर के लोगों के जीवन में जातिवाद और इसके प्रभावों पर बात कर रहा हूं. जब कभी भी मैंने जातिवाद की ओर इंगित किया है, मुझ पर ही मणिपुर में जातिवाद लाने का आरोप लगा है. इस दिशा में मैंने जो भी प्रयास किये, उसका मकसद अपने लोगों को मणिपुर के समाज के विभिन्न वर्गों के बीच जाति के चलन को समझने में मदद करना था.

ब्राह्मण समुदाय के लोग अन्य समुदाय के लोगों द्वारा पकाए गए भोजन नहीं खाते हैं. ब्राह्मणों और मैतेई एवं अन्य समुदायों के बीच कोई विवाह नहीं होता. गैर ब्राह्मणों का मंदिर प्रवेश पर प्रतिबंध मणिपुर के जनजीवन की हकीकत है. फिर भी, इन्हें जातिवाद के रूप में नहीं देखा जाता है. अगर यह जातिवाद नहीं, तो और क्या है?

हिंदू धर्म के आने से पहले मैतेई समुदाय के साथ-साथ मणिपुर के अन्य समुदायों में पवित्र स्थानों, पवित्र दिनों और पवित्र घटनाओं की अवधारणा थी. मैतेई समुदाय की विश्वास प्रणाली की पवित्रता या शुद्धता अस्पृश्यता या जाति व्यवस्था से अलग है. हालांकि, यह मैतेई समुदाय द्वारा हिंदू धर्म अपनाये जाने के बाद जातिवाद या अस्पृश्यता के चलन के साथ घुलमिल गया.

जातिवाद एवं अस्पृश्यता की भ्रमित और मिश्रित अवधारणा के लिए अमांग - असेंग (शुद्ध और अशुद्ध) उपयुक्त शब्द है.

अछूतों द्वारा छूए जाने पर ब्राह्मण की अवधारणा को अपवित्र करार दिया जा रहा है. मणिपुर में अछूतों द्वारा पकाए गए भोजन को ब्राह्मणों द्वारा नहीं खाये जाने का चलन कभी अस्तित्व में नहीं था. अब हिंदू धर्म के मणिपुर में आने के बाद यह चलन आम जीवन का हिस्सा बन गया है.

मणिपुर के इतिहास में पहाड़ी पर बसे लोगों का घाटी के लोगों के साथ विवाह का चलन रहा है. घाटी और पहाड़ी क्षेत्रों के राजाओं की पत्नियां दोनों क्षेत्रों से हुआ करती थीं. छुआछूत की कोई भावना नहीं थी. ऐसा नहीं था कि जनजातीय महिलाओं से शादी करने की वजह से मैतेई लोगों को अपवित्र करार दिया जाता था. लेकिन हिंदू धर्म के आने के बाद ये सारी चीजें अब होती हैं. किसी जनजातीय महिला से शादी करने के बाद शुद्धता संस्कार के लिए हिंदी में शुद्धिकरण और मणिपुरी में शेंग्दोक्पा शब्द है. मणिपुर में हिंदू धर्म के आने से पहले मैतेई समाज में यह चलन कभी नहीं था.

हिंदू धर्म के आने के बाद, छुआछूत मणिपुर में जीवन का हिस्सा बन गया. एक आदिवासी महिला से शादी करने वाले मैतेई समुदाय के व्यक्ति को शुद्धि संस्कार के दो तरीकों में से किसी एक से गुजरना होना होता था. एक पुराना तरीका यह था कि आदिवासी महिलाओं को गाय के मूत्र या पानी से सने गाय के गोबर को पीने के लिए दिया जाता था. दूसरा तरीका यह था कि आदिवासी महिलाओं को ब्राह्मणों के चरणों, जिसे ब्राह्मणों का पवित्र चरण या पावित्र चोरन के नाम से जाना जाता था, की धुलाई से एकत्रित पवित्र पानी को पीने को दिया जाता था.

मैतेई पुरुष और जनजातीय महिला शुद्धिकरण समारोह होने तक अशुद्ध रहती है. तब तक पुरुष के माता-पिता आदिवासी महिला को रसोई के अंदर खाना बनाने की इजाजत नहीं देते. यदि पुरुष के माता-पिता की मृत्यु हो जाती है, तो पुरुष और जनजातीय महिला दोनों को माता-पिता के लिए अनुष्ठान करने की अनुमति नहीं मिलती.

हिंदू धर्म के आने से पहले मणिपुर के विभिन्न समाजों में इन सामाजिक वर्जनाओं का कोई अस्तित्व नहीं था. मैतेई समाज की अमांग-असेंग की ये सामाजिक वर्जनाएं इस कदर बदतर हो गयीं हैं कि वे सिर्फ ब्राह्मणों और मैतेई समुदाय के बीच सीमित नहीं रहीं. छुआछूत शाही परिवारों से लेकर मैतेई समुदाय के आम लोगों बीच पसर चुका है. यह प्रसार और आगे जाकर मैतेई समुदाय के आम लोगों और अनुसूचित जाति समुदायों एवं पहाड़ी लोगों के बीच फ़ैल गया है.

हैदराबाद में स्थित एससी/एसटी संगठनों के अखिल भारतीय संघ के राष्ट्रीय सचिव हैं।