संविधान एक नया राजनीतिक शास्त्र के रुप में सामने आया जिनमें समानता के लिए यह भी स्वीकार किया गया कि हजारों वर्षों की असमान परिस्थितियों व हालातों को बदलने के लिए विशेष अवसर के सिद्धांत को लागू किया जाएगा और इसकी विधि सम्मत व्यवस्था की जाएगी।विशेष अवसर के सिद्दांत का आधार सामाजिक और शैक्षणिक स्तर पर पिछड़ापन इसीलिए संविधान में स्वीकृत किया गया।सामाजिक और शैक्षणिक स्तर पर पिछड़ा कौन है इसका बकायदा अध्ययन किया गया जिन्हें काका कालेलकर आयोग की रिपोर्ट और उसके बाद बीपीमंडल आयोग की रिपोर्ट के रुप में हम जानते हैं।इस तरह एक विधि सम्मत प्रक्रिया से गुजरकर हम सामाजिक और शैक्षणिक रुप से पिछड़े वर्ग की पहचान करते हैं।हमने सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन के आधार पर विशेष अवसर देने का सिद्धांत को थोड़ा और विस्तारित किया जिनमें हमने स्त्रियों की इस रुप में पहचान की कि वे इस पिछड़ेपन की दोहरी शिकार होती है।

एक कल्याणकारी राज्य के रुप में नई भारतीय राज्य व्यवस्था द्वारा आर्थिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए विभिन्न तरह के कार्यक्रम समाज में विभिन्न वर्गों के लिए अलग अलग चलाए जाते रहे हैं।ये कार्यक्रम भी अलग अलग इसीलिए है कि क्योंकि आर्थिक पिछड़ेपन की कई श्रेणियां समाज में है। विशेष अवसर के सिद्दांत के पीछे आर्थिक पिछड़ापन इसीलिए नहीं रहा है क्योंकि भारतीय वर्ण व्यवस्था में जन्म से ही सामाजिक स्तर पर पिछड़ा करार दिया जाता रहा है और शैक्षणिक अधिकारों से वंचित होने का कारण भी आर्थिक नहीं रहा है। भारत में संविधान की मूल भावना की व्याख्या करने का अधिकार सुप्रीम कोर्ट के अधीन है और उसने भी अपने कई फैसलों में यह कहा है कि भारत में आर्थिक पिछड़ेपन को आरक्षण का आधार स्वीकृत नहीं है।

आरक्षण सामाजिक और शैक्षणिक स्तर पर पिछड़ा बनाए रखने के सदियों पुराने ढांचे को तोड़ने के लिए एक उपकरण के रुप में स्वीकृत किया गया है।लेकिन यदि यह व्यवस्था की जाती है कि सामाजिक रुप से वर्चस्वशाली माने वाले वर्गों के लिए आर्थिक आधार पर शैक्षणिक और शासकीय आरक्षण होनी चाहिए तो यह एक गंभीर संकट का परिचायक है। इसका अर्थ यह निकाला जा सकता है कि यह सामाजिक स्तर पर भेदभाव को खत्म करने के उपकरण के बजाय उसे वर्चस्व कायम करने के उपकरण के रुप में धारदार हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है।

नरेन्द्र मोदी की सरकार का फैसला वास्तव में जातिगत आधार पर आरक्षण की शुरुआत है। क्योंकि यह घोषित रुप से सामाजिक स्तर पर वर्चस्व रखने वाली जातियों के लिए आरक्षण है। जैसे ब्रिटिशकाल में भारतीयों के नाम पर आरक्षण की मांग की गई थी।सरकार यदि आर्थिक पिछड़ेपन को किसी कार्यक्रम के लिए आधार बनाती है तो फिर वह यह भेदभाव नहीं कर सकती है कि इस जाति के गरीब को तो उस कार्यक्रम में शामिल होने का अधिकार होगा और उस जाति के गरीब को नहीं होगा। इस तरह भारतीय समाज में सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन को दूर करने के उद्देश्यों को ही यह एक सिरे से उलट देता है।

लेकिन नरेन्द्र मोदी की सरकार के इस फैसले को हमें भावनाओं के बजाय ठोस वास्तविकताओं की कसौटी पर भी कसना चाहिए। आखिर इसका वास्तविक उद्देश्य क्या है?सरकारी नौकरियों लगातार घट रही है।निजी कंपनियों में रोजगार के अवसर कम होते जा रहे हैं।फिर संविधान की मूल भावना से छेड़छाड़ करने का क्या अर्थ और इसका दूरगामी उद्देश्य क्या हो सकता है ? भारतीय समाज में एक आंतरिक संघर्ष के हालात बनाए रखें जाए ताकि आर्थिक वर्चस्व का ढांचा मजबूत हो और सामाजिक वर्चस्व को अपने वजूद का भ्रम बना रहें।

इस तरह के फैसलों का विभिन्न दृष्टि से विश्लेषण करना चाहिए।जब 1990 में सामाजिक और शैक्षणिक स्तर पर पिछड़ों को संविधान के मुताबिक आरक्षण देने का ऐलान किया गया तो एक तरफ साम्प्रदायिकता का नारा गूंजने लगा और दूसरी तरफ निजी करण की प्रक्रिया शुरु कर दी जाती है।यानी सामाजिक वर्चस्व के लिए साम्प्रदिकता और आर्थिक वर्चस्व के लिए निजीकरण की प्रक्रिया एक साथ चलती है। अब एक नई स्थिति बनी है ।साम्प्रदायिकता के नारे के बीच से निकली पार्टी की सरकार सामाजिक वर्चस्व का नारा लगा रही है।एक उदाहरण से इसे स्पष्ट कर सकते हैं।जब मंडल कमीशन की अनुशंसाओं को लागू किया गया तो उस वक्त निजीकरण की प्रक्रिया भी शुरु कर दी गई। तब उस समय सामाजिक न्याय के नेता यह मांग करने लगे कि निजी कंपनियों में भी पिछड़ों के लिए आरक्षण हो।इन दोनों रास्ते से एक ही जगह पहुंच रहे थे।

यह निजीकरण की प्रक्रिया को स्वीकृति दिलाने की राजनीति के दो रास्ते थे। आडवाणी की राम रथ यात्रा ने सामाजिक वर्चस्व को मिलने वाली चुनौती के लिए साम्प्रदायिकता का रास्ता निकाला और निजीकरण के विरोध को भमित किया तो दूसरी तरफ सामाजिक न्याय के नेताओं की इस मांग से निजीकरण को एक सांमाजिक आधार मिल गया और संविधान की मूल भावना के विपरीत होने वाले निजीकरण के खिलाफ संगठित होने की क्षमता क्षीण कर दी गई। यानी उस वक्त साम्प्रदायिकता और सामाजिक न्याय की मांग एक दूसरे के पूरक के रुप में खड़ी होते दिखती है।

गौरतलब है कि गुजरात से ख्याति प्राप्त नरेन्द्र मोदी की सरकार का गरीब सवर्णों को आरक्षण देने का फैसला उस नीति को सामाजिक आधार प्रदान करना भी है जिसके तहत सरकारी विश्वविद्यालय तो ध्वस्त कर दिए जाने चाहिए और मंहगे से मंहगे निजी विश्वविद्यालयों खड़े होने चाहिए। इसका अर्थ यह होता है कि सरकार गरीब सवर्णों के लिए महंगे विश्वविद्यालयों में पढ़ने के दरवाजे खोल रही है।यह गरीबों को जातिवाद की भावना से लैश करने की कोशिश भर है जो कि गरीबी के कारणों के खिलाफ लड़ने के लिए तैयार हुए है। जैसे सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए जब बहुजन तैयार होता है तो उसे साम्प्रदायिकता की तरफ ले जाने की उग्रता दिखती है।

ध्यान दें 2014 का लोकसभा चुनाव देश का पहला ऐसा चुनाव था जिसमें सवर्ण मतदाताओं का नरेन्द्र मोदी के पक्ष में ध्रुवीकरण हुआ था। लेकिन नरेन्द्र मोदी की सरकार के कार्यकाल में जो सबसे ज्यादा असंतोष उभारा वह उन्हीं मतदाताओं के बीच उभरा जो कि नरेन्द्र मोदी के पक्ष में मत देकर अपने हितों की रक्षा के लिए उम्मीद कर रहे थे। असंतोष तभी होता है जब कोई उम्मीद करता है और वह पूरा होता नहीं दिखाई देता है।यह असंतोष का ही लक्षण हैं कि बढ़ती गरीबी के खिलाफ सामाजिक रुप से वर्चस्व रखने वाली जातियों के सदस्य बड़ी तादाद में सड़कों पर उतरें। वोट के हिसाब के भी विश्लेषण करें तो यह साफ साफ दिखता है कि वह इस असंतोष को ही अब एक नये ढंग से अपने पक्ष में करने की कोशिश 10 प्रतिशत के आरक्षण के इरादे से कर रहे हैं। इसके लिए संविधान के प्रावधानों को भी उलटफेर करने का जोखिम ले रहे हैं। लेकिन शिक्षा और रोजगार के अवसर ठोस योजना के आधार पर ही हो सकते हैं ना कि महज किसी तरह के ऐलान से हो सकता है।

10 प्रतिशत के आरक्षण के पक्ष में सबसे ज्यादा आश्चर्य संसदीय पार्टियों की भूमिका को लेकर व्यक्त की जा रही है क्योंकि लगभग सभी संसदीय पार्टियों ने उसका समर्थन किया। यानी जो पार्टियां दो रास्ते पर पहले चलकर एक जगह पहुंच रही थी इस बार एक ही रास्ते में खड़ी मिंल रही है। इस राजनीतिक प्रवृति को समझना वक्त की जरुरत हैं कि सभी राजनीतिक पार्टियां आखिरकार एक ही जगह क्यों खड़ी दिखने लगती है। सभी राजनीतिक पार्टियों का रुझान साम्प्रदायिकता के पक्ष में पहले ही झुक गया है। लेकिन कोई भी समाज राजनीतिक पार्टियों के भरोसे ही जीवित नहीं रहता है और अपने उद्देश्यों के लिए उनपर ही आश्रित नहीं होता है। जैसा कि डा. अम्बेडकर कहते हैं कि राजनीतिक पार्टियां केवल उपकरण मात्र है।

2 अप्रैल 2018 को राजनीतिक पार्टियों ने अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम को लाचार करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ आंदोलन का समर्थन नहीं किया था और ना ही भारत बंद में अपनी कोई भूमिका अदा की थी। लेकिन भारत में पहली बार वास्तविक अर्थों में सामाजिक संगठनों ने भारत बंद को सफल किया। सामाजिक संगठन अपने आप में राजनीतिक संगठन ही होता है और वह जब मजबूत होता है तो संसद में जाने वाली पार्टियों के लिए वहीं दिशा तय करते हैं। 10 प्रतिशत आरक्षण का ऐलान समाज के लिए संविधान और 1947 में सभी वर्गों के बीच हुए समंझौते की रक्षा की चेतना पर हमले के इरादे से किया गया है। गरीबों के भीतर साम्प्रदायिकता की तरह सवर्णवाद की भावना को उग्र करके नरेन्द्र मोदी की सरकार राजनीतिक बदलाव की चेतना में एक भटकाव पैदा करने की कोशिश कर रही है।