न्यायमूर्ति ललित ने अयोध्या मामले की सुनवाई से खुद को क्यों अलग किया?
बाबरी मुद्दे पर अदालत की अवमानना मामले में कल्याण सिंह के वकील थे ललित
सर्वोच्च न्यायालय ने राम जन्मभूमि – बाबरी मस्जिद के मालिकाना हक़ विवाद की सुनवाई 29 जनवरी तक के लिए टाल दी. इसकी वजह यह रही कि न्यायमूर्ति उदय यू. ललित ने इस मामले की सुनवाई से खुद को अलग कर लिया. ऐसा यूपी सेंट्रल सुन्नी वक्फ़ बोर्ड की ओर से पेश वरिष्ठ वकील राजीव धवन द्वारा यह बात उठाये जाने पर हुआ कि इस विवाद से जुड़े एक आपराधिक मुक़दमे में न्यायमूर्ति ललित ने उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह का प्रतिनिधित्व किया था.
24 अक्टूबर 1994 को सर्वोच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एम एन वेंकटचलैया एवं न्यायमूर्ति जी एन रे की एक खंडपीठ ने मोहम्मद असलम बनाम भारत सरकार मामले में सुनवाई शुरू की. इस मामले में तत्कालीन प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव, एस वी चव्हाण, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, कल्याण सिंह, विजयाराजे सिंधिया एवं अशोक सिंघल के खिलाफ जानबूझकर सर्वोच्च न्यायालय एवं इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेशों का उल्लंघन करने के लिए कारवाई की मांग की गयी थी.
उन याचिकाओं में एक महत्वपूर्ण सवाल यह उठाया गया था कि क्या अदालतें न्यायिक निर्देशों का पालन करने में असमर्थ रहने पर राज्य सरकार एवं उसके मंत्रियों के खिलाफ अवमानना की प्रक्रिया शुरू कर सकती हैं.
उस मामले में अपना फैसला सुनाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने टिप्पणी की, “हजारों निर्दोष नागरिकों की जानें गयीं, संपत्ति का व्यापक नुकसान हुआ और इन सबसे कहीं अधिक अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में इस महान देश की विभिन्न समुदायों के बीच सहिष्णुता, विश्वास एवं भाईचारे की छवि को खासा नुकसान पहुंचा.”
अदालत ने खुद से संज्ञान लेते हुए 6 दिसम्बर, 1992 की घटनाओं के संदर्भ में मुख्यमंत्री कल्याण सिंह एवं उत्तर प्रदेश सरकार के अधिकारियों के खिलाफ अवमानना की प्रक्रिया शुरू की थी.
अदालत की टिप्पणी थी कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की ओर से उसे इस बात का आश्वासन दिया गया था कि उनकी सरकार :
- इस मुद्दे का सर्वमान्य हल निकालने के लिए तमाम प्रयास करेगी,
- अंतिम हल निकलने तक सरकार बाबरी मस्जिद – रामजन्मभूमि ढांचे की सुरक्षा के लिए खुद को पूरी तरह जिम्मेवार मानेगी,
- भूमि अधिग्रहण प्रक्रिया के संबंध में अदालत के आदेशों का पूरी तरह पालन करेगी,
- विचाराधीन मामलों में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के उल्लंघन की अनुमति नहीं देगी.
मोहम्मद असलम मामले में अपने फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा, “हमारा मानना है कि श्री कल्याण सिंह द्वारा दिया गया आश्वासन निजी तौर पर और उनकी सरकार की तरफ से, दोनों ही था. उस आश्वासन का खुला उल्लंघन किया गया. आदेश की जान – बूझकर अवज्ञा की गयी.”
“यह बेहद अफसोसजनक है कि एक राजनीतिक दल के नेता और मुख्यमंत्री को अदालत की अवमानना के एक अपराध का दोषी करार दिया जाना होगा.”
“लेकिन कानून की महिमा को बनाए रखने के लिए ऐसा करना होगा. हम (कल्याण सिंह को) अदालत की अवमानना का दोषी करार देते हैं. चूंकि यह अवमानना कई ऐसे व्यापक मुद्दों को रेखांकित करता है जो हमारे राष्ट्र के धर्मनिरपेक्ष ताने – बाने को प्रभावित करते हैं, हम उन्हें प्रतीकात्मक रुप से एक दिन की जेल की सजा भी देते हैं. हम उनपर दो हजार रूपए का जुर्माना भी करते हैं.”
इस मामले में, वर्तमान अटर्नी जनरल के के वेणुगोपाल ने कल्याण सिंह का प्रतिनिधित्व किया था. 1997 में अन्य संबद्ध मामलों, जिसमें कल्याण सिंह को अदालत की अवमानना के लिए एक दिन की जेल की सजा के फैसले पर एतराज जताया गया था, में अदालत में कल्याण सिंह का प्रतिनिधित्व यू यू ललित द्वारा किया गया था.
आज जब न्यायमूर्ति ललित ने खुद को राम जन्मभूमि – बाबरी मस्जिद के मालिकाना हक़ विवाद मामले से अलग किया, तो मुख्य न्यायधीश रंजन गोगोई ने कहा कि अदालत 29 जनवरी को मामले की अगली सुनवाई के लिए एक नया खंडपीठ गठित करेगी.
अयोध्या मालिकाना हक़ विवाद की सुनवाई मुख्य न्यायधीश रंजन गोगोई और न्यायमूर्ति एस ए बोबडे, न्यायमूर्ति एन वी रमना, न्यायमूर्ति यू यू ललित एवं न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ की सदस्यता वाली एक संविधान पीठ द्वारा की जानी थी.
हालांकि श्री धवन ने अदालत में कहा कि उन्होंने न्यायमूर्ति ललित को हटाने की मांग नहीं की, लेकिन न्यायधीश महोदय ने हट जाने का विकल्प चुना.
न्यायमूर्ति ललित एवं अन्य जजों के साथ एक संक्षिप्त मशविरे के बाद मुख्य न्यायधीश ने कहा, “सवाल यह नहीं है कि वे जिस मामले में पेश हुए, वह मुख्य मामले का हिस्सा है या नहीं. न्यायमूर्ति ललित की राय है कि उन्हें इन कार्यवाहियों का हिस्सा नहीं बनना चाहिए.”