जॉर्ज का जीवन समाजवाद से शुरू होकर गैर कांग्रेसवाद के रास्ते संसद के गलियारों में चला गया। यह बहुत संतोष की बात है कि समाजवादी जॉर्ज का कद इतना बड़ा था कि संसदवादी जॉर्ज की जीवन यात्रा की कहानियां तो कुछ दिनों में लोग भूल जाएंगे पर आने वाले समय में समाजवादी जॉर्ज आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणास्रोत बने रहेंगे।

जार्ज का जन्म मैंगलोर के मैंग्लोूरिन-कैथोलिक परिवार में हुआ था। वो परिवार की पहली संतान थे। अपनी सामान्य शिक्षा पूरी करने के बाद, उन्हें ईसाई धर्म का प्रचारक बनाने के लिए सेमिनरी में धार्मिक शिक्षा के लिए भेजा गया। जहां से वे ढाई साल में शिक्षा छोड़ भाग आए और मैंगलौर के रोड ट्रांसपोर्ट कंपनी तथा होटल एवं रेस्तवरां में काम करने लगे।

गरीबों, श्रमिकों के प्रति उनके मन मे जो भवनाएं थी, उन्हें लेकर वे बंबई आए और गरीब श्रमिकों के संगठनकर्ता बने। मोटे तौर पर, जॉर्ज फ़र्नान्डिस के राजनैतिक करियर की शुरूआत 50 के दशक में हुई जब उनका काम समाजवादियों की निगाह में आया। डॉ राम मनोहर लोहिया, मधु लिमये ने उनका नेतृत्व व मार्गदर्शन किया।

1961 की शुरुआती दिनों में, वह बंबई के महानगरपालिका के सदस्यि बन गए और उस दौरान उन्होंने जबरदस्त लोकप्रियता हासिल की, जिसके चलते 1967 के लोकसभा चुनाव में दक्षिण बंबई में 30,000 वोटों से जीते । लोकसभा के चुनाव की जीत ने उन्हें राष्ट्रीय मंच पर प्रवेश दिलाया। 1969 में वे संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के महामंत्री बने, उसके बाद 1973 में सोशलिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। साथ ही, 1974 में मजदूर आंदोलनों के योगदान के लिये सम्मान के तौर पर उन्हें भारतीय रेल फेडरेशन के यूनियन का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया।

एक यूनियन नेता के तौर पर उभरे

उन्होंने रेल मजदूरों की मांगों को लेकर देश के इतिहास में पहली रेल हड़ताल करवायी। 1950 से 1974 के बीच का उनका सफर राजनीतिक व्यक्तित्व के निर्माण का रहा।

आपातकाल (इमरजेंसी) के उस दौर में जब उन्होंने रेल मजदूरों को एकत्र कर एक नए जागरण का नेतृत्व किया और हड़ताल करवायी, तब भारत सरकार इस पूरी हड़ताल से हिल गई। जब इमरजेंसी का ऐलान किया गया तो जॉर्ज भूमिगत हो गए, क्योंकि वह जयप्रकाश आंदोलन और बिहार आंदोलन के समर्थक थे पर अभी वह बिहार से लोकसभा में नहीं आए थे। उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया और उन्हें गिरफ्तार किया गया।

उनपर तमाम तरीके के फर्जी आरोप लगाए गए। तब मजदूर संगठन और समाजवादियों ने उनके पक्ष में आवाज उठाई और सरकार पर दबाव बनाया। जब आपातकाल को हटाकर नए चुनाव कराये गये, तो जॉर्ज मुजफ्फरपुर लोकसभा सीट से भारी वोटों से जीत कर जेल से बाहर आए। जिस जॉर्ज पर राजद्रोह का मुकदमा चल रहा था, वही जॉर्ज भारत सरकार का उद्योग मंत्री बनाया गया।

जयप्रकाश की गिरफ्तारी के अलावा इमरजेंसी के दौरान जो राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया, वह भारत सरकार की लोकतंत्र विरोधी गतिविधियों का सबसे बड़ा उदाहरण बना।

जब भारत में ट्रेड यूनियन बहुत मजबूती में थी, उस वक्त एक ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता (एक्टिविस्ट) के रूप में जार्ज का योगदान रहा। जॉर्ज के आने से पहले कारखानों के मजदूरों पर ज्यादा जोर दिया गया था। जब जार्ज आए, तब उन्होंने रेस्तरां, चाय दुकान, नुक्कड़ पर लगाने वाले ठेलो के श्रमिकों, मजदूरों को और बाहरी मजदूरों को संगठित करना शुरू कर दिया और टैक्सी यूनियन बनाई। फिर एक कॉपरेटिव बैंक बनाया, जो मजदूरों का अपना बैंक बना और उस बैक के जरिए जो लोग पहले टैक्सी किराए पर लेकर चलाते थे, वे खुद की टैक्सी के मालिक बने।

जो लोग कारखानो में नहीं बल्कि महानगरी श्रमिक थे, बस कर्मचारियों से लेकर रेस्तराँ ओर चायखानो मे काम करनेवालो से लेकर रोज के दिहाड़ी मजदूरों को भी जोड़ा। दूसरा, उन्होंने मजदूर यूनियन की मांगें और श्रमिकों के बारे में उनके मालिकों से उनकी आमदनी बढ़ाने और काम की स्थिति सुधारने की मांग की, साथ ही मजदूर बैंक बना कर छोटी - छोटी पूँजी के आधार पर उनके स्वावलंबन का काम भी ट्रेड यूनियन के हिस्से में डाला।

समाजवाद से शुरू होकर दक्षिणपंथी राजनीति के करीब हुए

शुरू में, जार्ज राजनीति को वामपंथी और दक्षिणपंथी के खाचे मे देखते थे। लेकिन लोहिया के गैर कांग्रेसवाद की रणनीति को समझने के बाद उन्होंने राजनीति को कांग्रेसी और गैर कांग्रेसी के रूप में समझने की कोशिश की। शुरूआत में जार्ज गैर - कांग्रेसवाद के मुखर विरोधी थे, पर राममनोहर लोहिया के मरने के बाद वो गैर कांग्रेसवाद के करीब आए।

1977 में, जनता पार्टी की सरकार में उन्होने दोहरी सदस्यता का विरोध किया। आरएसएस का जो जनता पार्टी पर दबदबा चल रहा था, उसके खिलाफ चरण सिंह के साथ इस्तीफा दिया। 1977 - 80 में वो आरएसएस के खिलाफ थे। पर जब मंडलवादियों के बीच अंतरविरोध पैदा होने लगा और लालू यादव व्यक्तिवादी राजनीति करने लगे, तब उनके खिलाफ जार्ज ने समता पार्टी का गठन किया जिसमें नीतीश कुमार शामिल थे। पर वो जीते नहीं। उन्हें बिहार के चुनावो में बेहद कम वोट मिले, तो उन्होने भाजपा के साथ मिलकर एक नई रणनीति बनाई। जिससे राज्य ही नही बल्कि राष्ट्र मे भी एक नया विक्लप बना, जो राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) कहलाया। इसमें खुद अटल बिहारी प्रधानमंत्री और जार्ज रक्षामंत्री और नीतीश कुमार रेलमंत्री बने। कह सकते हैं कि जॉर्ज के अंदर एक लचीलापन था।

कुछ लोग उनके प्रशंसक थे, तो कुछ उनके घोर निंदक थे। आज जब वे हमारे बीच नहीं हैं, तो काफी लोगों का यह मानना है कि उन्होने भाजपा और आरएसएस के साथ मिलकर दक्षिणपंथी ताकतों और सांप्रदायिकता को मजबूत किया।

जहां एक तरफ जार्ज बेहद लोकप्रिय रहे, वहीं दूसरी तरफ विवादास्पद और आलोचना का केन्द्र बने रहे। 1967 में उन्होंने लोकप्रियता और बदनामी की परवाह किये बिना जो उचित लगा और जिससे कांग्रेस को कमजोर करने की संभावना बढ़ती हो, उस रास्ते को अपनाते चले गए।

जॉर्ज का राजनीतिक आधार नेहरू की नीतियों के विरोध में चल रहे आंदोलनों और अभियानों के जरिए बना था। नेहरू खुद विदेशी नीतियों में वामपंथी माने जाते थे। चीन और रूस का उन्हें समर्थन प्राप्त था, लेकिन जब राष्ट्रीय रक्षा के नाम पर चीनी हमला हुआ तब जॉर्ज ने लोहिया के मार्गदर्शन में कांग्रेस हटाओ की रणनीति को अपनाने वाले दलों का साथ दिया। ये वो परिस्थितियां थी जब एक समाजवादी नेता होते हुए भी उन्हें संघ और भारतीय जनता पार्टी के साथ मंच साझा करना पड़ा। आजीवन वह तिब्बत की मुक्ति के समर्थक रहे।

जॉर्ज ने खासकर गुजरात दंगों के बाद जो विश्लेषण दिए, उससे उनकी धर्मनिरपेक्षता पर धब्बे पड़ गए। बाद में, जॉर्ज के साथियों ने ही लोकसभा का टिकट तक उन्हें नहीं दिया। एक महान समाजवादी सेनापति का जार्ज का यह बेहद दुखद राजनीतिक अंत हुआ।

प्रोफेसर आंनद कहते हैं, “हर चीज को चुनाव की कसौटी में नहीं तोलना चलना चाहिए। आप चुनाव जीत सकते हैं, वह अल्पकालिक सफलता होगी। लेकिन अगर सिद्धांत की डोर छूट गई, तो आगे आप अंधी गली में फंस जाएंगे। जब सत्ता की लड़ाई में सिद्धांत नहीं रहेगा, तो फिर वहां केवल शक्ति रहेगी”।

यह कहा जा सकता है कि जब तक सिद्धांत की रोशनी में जॉर्ज राजनीति कर रहे थे, उन्होंने मजदूर आंदोलन से लेकर इमरजेंसी, लोकतंत्र बचाओ आंदोलन जैसी साहसी राजनीति करते रहे। लेकिन 1996 के बाद, उन्होंने भाजपा का हाथ थाम लिया और वह खुद वोट - बैंक और संसदवाद की राजनीति में फंस गए।

निजी जीवन काफी उलझा रहा

दुखद पक्ष ये था कि जॉर्ज का अपना निजी जीवन भी काफी उलझा हुआ था। उनकी पत्नी लेइला फर्नांडिस से उनका 1990 में अलगाव हो गया। एकमात्र संतान अमेरिका में अपनी शिक्षा पूरी कर रहा था। बाद में जब वह बीमार हो गए, तब उनकी पत्नी लेइला फर्नांडिस ने कानून से आदेश लेकर उनकी जिम्मेदारी का जिम्मा ले लिया क्योंकि वे ऐसी बीमारी के शिकार थे जिसमें मरीज किसी को पहचानता नहीं। अदालत ने इसे न्यायसंगत माना और उन्हें उनकी पत्नी व बेटे की निगरानी में भेज दिया।

उसकी वजह से जो लोग उनकी सेवा करना भी चाह रहे थे, वे लोग भी उनके आसपास जाने से रोक दिए गए । जब वह केन्द्र मंत्री नहीं रहे और बीमार रहने लगे, तब उनकी अपनी पार्टी ने भी उनका साथ छोड़ दिया। जॉर्ज के जो निकट लोग थे आज वो मंत्री - मुख्यमंत्री हैं, उन्होंने तो उनसे पहले ही पल्ला झाड़ लिया।

दक्षिण भारतीय होते हुए भी उत्तर भारतीय राजनीति में लोकप्रिय रहे

जॉर्ज मैंगलोर से आने वाले दक्षिण भारतीय थे और उस समय भारतीय राजनीति में उत्तर भारतीयों का दबदबा था । पर ये भारतीय लोकतंत्र और समाजवाद की खूबसूरती का प्रतीक है और दूसरा जार्ज का व्यक्तिगत आचरण, जिसने उनको जाति, धर्म, संप्रदाय क्षेत्र के दायरे से ऊपर उठा दिया । वह इसाई नेता नहीं थे। मजदूर नेता थे। वह दक्षिण वादी या मुंबई के समाजवादी नहीं थे। भारतीय समाजवादी थे। और यह उनकी करनी का परिणाम था, उन्होंने गैर कांग्रेसवादी के खिलाफ इतनी जबरदस्त भूमिका मुंबई में निभाई थी।

पहला मुंबई बंद उन्होंने करवाया। पहला भारत बंद की धुरी भी वही थे। लोगों ने उनको आकर्षक पाया क्योंकि उस समय मुद्दों और सिद्धांतों की राजनीति का दौर था। बिहार के लोगों ने एक कन्नड़ भाषी मुंबई की राजनीति करने वाले मजदूर नेता को एक बार नहीं बल्कि 9 बार संसद का सदस्य बनाया गया।

वे लोग जो अवसरवादी वोट बैंक की राजनीति कर रहे हैं, जाति, भाषा, सांप्रदायिकता की राजनीति कर रहे हैं, उन्हें समझना चाहिए कि यह भारतीय मतदाता की मजबूरी है कि वे उन्हें वोट दे रहे हैं। अगर कोई बेहतर उमीमदवीर आ गया, तो इनकी दुकानें बंद हो जाएंगी।

रक्षा मंत्री रहते हुए भी लोकप्रिय

कफन का घोटाला हुआ तहलका ने एक लाख की घूस उनके सेक्रेटरी को लेते हुए वीडियो को सार्वजनिक किया, लेकिन आयोग ने उन्हें निर्दोष पाया। सैनिकों में वह बड़े लोकप्रिय थे। वे पहले रक्षा मंत्री थे जो दूर सुदूर स्थलों में खुद गए और सैनिकों की हालत खुद देख कर उनमें बहुत से सुधार किए। उन पर आरोप कांग्रेस की तरफ से लगाया गया था, इसलिए उन्हें इस्तीफा देना पड़ा. और वे बहुत सा काम पूरा नहीं कर पाए । पर, वे सैनिकों के लिए काम करने वाले उंगलियों में गिने जानेवाले रक्षा मंत्रियों में से एक रहे।

आजकल संसाधनों की जो लूट मची है, अगर जॉर्ज के दिखाए रास्ते पर यह सरकारें चलती तो बहुत कुछ अलग होता। आज चीन ने जॉर्ज के रास्ते को अपनाया और अपनी शर्तों पर बाहरी कंपनियों को काम करने की मंजूरी दी।

रक्षामंत्री बनने के बाद भी उनका दरवाजा वैसे ही खुला रहा, जैसे पहले खुला रहा करता था। जब सरकार और पुलिस ने दरवाजा बंद करने का आग्रह किया, तो उन्होंने अपना दरवाजा निकाल दिया। घर का एक बड़ा हिस्सा जार्ज ने म्यांमार (बर्मा) के आंदोलनों, नेपाल, भूटान के आंदोलन के लिए जस का तस रखा।

आज के नेताओ के लिए सबक है जार्ज का जीवन कि अपनी कथनी और करनी को सरकार में आने से पहले भी संभाल कर रखे और जाने के बाद भी।