हिमाचल प्रदेश के कसौली के निकट एक गांव में एक दलित महिला, उनकी बेटियों और उन्हें बचाने की कोशिश करने वाली एक बुजुर्ग महिला के साथ ऊंची जातियों के एक समूह द्वारा की गयी मारपीट की घटना के खिलाफ उपजा रोष अब उस इलाके में वंचित जमात के एक बड़े आंदोलन का रूप लेता जा रहा है. इस आंदोलन के दो पहलू हैं – दलितों के खिलाफ जातीय उत्पीड़न का जारी रहना और संसाधनों पर समान सामुदायिक अधिकार का मामला.

बीते 25 जनवरी को ऊंची जाति के एक समूह ने सुषमा देवी और उनकी बेटियों पर उस समय हमला किया जब वे अपने मवेशियों को चौबेचा गांव के सामूहिक चारागाह भूमि की ओर ले जा रही थीं. हमलावरों ने उनके खिलाफ जातिसूचक संबोधनों का इस्तेमाल किया और उन्हें पत्थरों एवं डंडों से पीटा. उनके चिल्लने की आवाज़ सुनकर उन्हें बचाने दौड़ी परिवार की बुजुर्ग महिला हेमा देवी को भी नहीं बख्शा गया.

सुषमा देवी को सिर और चेहरे पर चोटें आयीं और 17 टांके पड़े. हेमा देवी को पैर में चोटें आयी. काफी जद्दोजहद के बाद वे वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों से मिल पायीं. नतीजतन, सात आरोपियों में से चार की गिरफ़्तारी हुई.

इलाके के दलितों का आरोप है कि उक्त हमला कुछ सवर्ण जातियों के वर्चस्व का परिणाम है, जो आम वनभूमि को अपनी संपत्ति बताकर वहां मवेशी चराने के अधिकार से उन्हें वंचित करना चाहते हैं. दलितों ने आगामी 24 फरवरी को “पशु चराओ अभियान” का आह्वान किया है. उस दिन प्रतीकात्मक विरोधस्वरूप महिला और बच्चों समेत बड़ी संख्या में लोग सामूहिक रूप से अपने मवेशियों को सामूहिक आम चारागाह भूमि पर ले जायेंगे. इस अभियान का मकसद पूरे राज्य में एक संदेश देना है.

अजीब विडम्बना है कि ये सारी घटनाएं राज्य के सामाजिक न्याय एवं सशक्तिकरण मंत्री राजीव सैज़ल के क्षेत्र में घटित हो रही हैं.

इस अभियान का ऐलान रोरी पंचायत के चौबेचा गांव में हुई एक बैठक के बाद किया गया. इस बैठक में कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने गांव के वंचित जमात के लोगों को संगठित किया, जो मारपीट की इस घटना से बेहद नाराज थे.

बैठक में शामिल 50 से अधिक लोग शुरुआत में थोड़ा घबराए हुए थे. लेकिन धीरे – धीरे वे खुले और उन्होंने इस बात का संकल्प लिया कि वे अधिकारों के लिए एकजुट होकर लड़ेंगे.

बैठक में उन्होंने इस बात का जिक्र किया कि आज की तारीख में भारतीय दंड विधान की उचित धाराओं के तहत मामला दर्ज करवाना तक भी कितना मुश्किल है. इसलिए, अपने प्रयासों में कमजोरी नहीं आने देनी है. बैठक में शामिल चैत राम ने कहा, “जरा कल्पना कीजिए कि एक पुलिस अधिकारी ने हमलोगों से कहा कि आप ऐसी जगह पर जाते ही क्यों हैं जहां टकराव होने की संभावना हो. हमेशा हमें ही अपने अधिकार क्यों छोड़ने पड़ें?”

हमले के बाद चलने – फिरने में कठिनाई महसूस कर रही हेमा देवी का लहजा बेहद स्पष्ट था. उन्होंने कहा, “हम अच्छी तरह समझते हैं कि हम अपनी जीविका के लिए आम चारागाह भूमि पर निर्भर हैं और हम अपने अधिकार नहीं छोड़ सकते. एकजुट होना और लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाना ही हमारे पास एकमात्र विकल्प है.”

बैठक में मौजूद कई लोगों ने संदेह व्यक्त करते कहा, “संख्या और संसाधन के लिहाज से उनकी शक्ति अधिक है. क्या होगा अगर वे दोबारा हिंसा पर उतारू हुए? मवेशी चराने अकेले जाती हमारी महिलाओं की सुरक्षा की गारंटी कौन लेगा? उस जमीन से होने वाली हमारी जलापूर्ति अगर रोक दी गयी तो क्या होगा?”

सामाजिक कार्यकर्ता राजीव कुंडल ने कहा, “कई गावों में आम सड़क, पानी, गांव की सामूहिक भूमि और यहां तक की श्मशान भूमि जैसे सामूहिक संसाधनों पर अधिकार से वंचित जमात के लोगों को दूर किया जा रहा है.”

हाल में, जमीन और जंगल पर दलितों का अधिकार एक अहम सामाजिक – राजनीतिक एवं सामाजिक – आर्थिक मुद्दे के तौर पर उभरा है. किसान सभा के प्यारे लाल वर्मा, जिन्होंने उक्त बैठक के आयोजन में अहम भूमिका निभायी, ने बताया, “ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि पहली बार लोग एक गंभीर आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं. एक तरफ बेरोजगारी और दूसरी ओर कृषि संकट, ऐसे में, वंचित जमात के लोग सामूहिक संसाधन पर अपना अधिकार छोड़ना गवारा नहीं कर सकते. साथ ही, देश के विभिन्न हिस्सों में किसानों के आंदोलनों की सफलता, चाहे वह दिल्ली, मुंबई, मंदसौर और पहले हुए राजस्थान का मार्च हो, ने उनमें काफी आत्मविश्वास भरा है. उनमें यह अहसास बढ़ने लगा है कि उन्हें एकजुट होना चाहिए और अपने अधिकारों के लिए लड़ना चाहिए.”

उन्होंने आगे जोड़ा, “पशु चराओ अभियान का ऐलान कर हम गांववासियों के बीच वैमनस्य नहीं पैदा करना चाहते. हम लोगों के बीच सिर्फ यही संदेश देना चाहते हैं कि वे अपने वाजिब हक़ की दावेदारी के लिए आगे आयें. गांववासियों को मालूम है कि पुलिस और ख़ुफ़िया विभाग के लोग उनको घेरेंगे और इस विरोध को वापस लेने के लिए कहेंगे. लेकिन वे दृढ़प्रतिज्ञ हैं. यह कोई राजनीतिक कार्यक्रम नहीं है क्योंकि गांववासियों को किसी को भी अपना वोट देने की आज़ादी है. हम सिर्फ इतना चाहते हैं कि वे वोट मांगने वालों से यह जरुर पूछें कि क्या वे उनके अधिकारों की रक्षा करेंगे.”

एक अन्य प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता सुखदेव विश्वप्रेमी ने कहा, “लगभग पांच दशकों से जातिवादी और सामंती सोच वंचित जमात के लोगों के अधिकारों का हनन करती आ रही है. और ऐसा 1974 में हिमचल प्रदेश ग्रामीण निहित सामूहिक भूमि उपयोग अधिनियम (हिमाचल प्रदेश विलेज कॉमन लैंड्स वेस्टिंग एंड यूटिलाइजेशन एक्ट) के बनने बावजूद होता रहा. सामूहिक संसाधनों से वंचित जमात के लोगों को बाहर करने का खेल लंबे समय से जारी है. अब अगर इसके खिलाफ एक आंदोलन तेज हो रहा है, तो यह निश्चित ही एक स्वागतयोग्य कदम है.”

हाल के दिनों में, राज्य में, लोगों द्वारा अपने अधिकार मांगने की घटनाओं में तेजी आई है. अभी कुछ ही महीने पहले, कसौली के कार्यकर्ताओं ने भूजल के न्यायोचित इस्तेमाल के बारे मंत उच्च न्यायालय से एक आदेश हासिल किया. यह, दरअसल, सरकारी अधिकारियों एवं राजनीतिज्ञों को इशारा था कि वे संसाधनों के मामले में चंद प्रभावशाली लोगों को फायदा पहुंचाना और बड़ी संख्या में आम लोगों को उससे वंचित करना बंद करें. सनावर गांव के लोगों ने एक व्यक्ति विशेष, जिसने भूजल के दोहन के लिए एक बोरेवेल खुदवाने की परमिट हासिल की थी, द्वारा हिमाचल प्रदेश भूजल (नियमन एवं विकास व प्रबंधन का नियंत्रण), 2005 के उल्लंघन के खिलाफ एक याचिका दायर की थी. परमिट जारी करते समय उक्त व्यक्ति पर यह शर्त लगायी गयी थी कि वह उक्त अधिनियम की नियमों एवं शर्तों के अनुरूप गांववासियों को पेयजल की आपूर्ति करेगा. लेकिन उसने इस शर्त का उल्लंघन किया.

उच्च न्यायालय ने अपने आदेश में कहा, “हमारा मत है कि हिमाचल प्रदेश भूजल प्राधिकरण राज्य सरकार की सहमति व परामर्श से पूरे राज्य के लिए भूजल के संरक्षण, नियमन, चक्रीकरण एवं संचयन के लिए एक व्यापक नीति बनाये. प्राधिकरण महज इस आधार पर परमिट जारी करना बंद करे कि क़ानून ने उसे ऐसा करने की शक्ति प्रदान की है.”