संसदीय लोकतंत्र की व्यवस्था में संसद मुख्य होती है और 16 वीं लोकसभा ने 13 फरवरी 2019 को बजट सत्र के आखिरी दिन अपना पांच साल का कार्यकाल भी पूरा कर लिया।

किसी भी लोकसभा का कार्यकाल पिछले लोकसभा के मुकाबलें भिन्न अनुभव छोड़ कर पूरा होता है।16वीं लोकसभा का अनुभव संसदीय इतिहास में पिछली तमाम लोकसभाओं से जिन मायनों में भिन्न है वह भविष्य के संसदीय लोकतंत्र के लिए परिपाटी का हिस्सा बन जाता है तो वह बेहद चिंताजनक है। लोकसभा को विचार विमर्श चर्चा की मुख्य जगह मानी जाती हैं लेकिन इस लोकसभा के अनुभवों के लिए इन चंद सवालों पर गौर कियाजा सकता है। क्या इस लोकसभा में किसी विषय पर कोई ऐसी चर्चा हुई जिसके लिए भविष्य में संसदीय परिपाटी का हिस्सा बनाया जा सके।संसद में चर्चा का स्तर क्रमश: बेहतरी की तरफ तब बढ़ता है जब सत्ताधारी दल चर्चा को महत्व देता है और विपक्ष में वह काबिलियत हो कि वह चर्चा की परिपाटी को अनिवार्य मान लेने के लिए बाध्य करता हो।16वीं लोकसभा सत्ताधारी दल के बहुमत का दबदबा और विपक्ष की नामौजूदगी का एक नायाब उदाहरण बनकर सामने आता है।

16वीं लोकसभा पिछली तमाम लोकसभाओं में इस मायने में बिल्कुल अलग थी जब 1984 के बाद यानी राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस के प्रचंड बहुमत के बाद पहली बार किसी दल को बहुमत मिला था। संसदीय लोकतंत्र में किसी एक पार्टी के बहुमत के बाद दूसरी पार्टी के बहुमत का क्रम लगभग तीस सालों तक पूरी तरह से टूटा हुआ था। भाजपा को अपने संसदीय राजनीतिक जीवन में पहली बार लोकसभा में बहुमत मिला और दूसरी तरफ विपक्ष का दर्जा हासिल करने लायक किसी पार्टी के पास सदस्यों की संख्या मौजूद नहीं थी।सत्ताधारी दल के नेता नरेन्द्र मोदी पहली बार लोकसभा में आए और उन्होने संसद के भीतर इसे एक हिन्दू मंदिर की तरह मान लेने के भाव से प्रवेश किया।मथ्था टेका।लेकिन संसदीय लोकतंत्र का अर्थ लोकसभा ही नहीं होती है।राज्य सभा भी होती है।यही नहीं संस्थाओं के विभिन्न स्तरों से पूरा संसदीय लोकतंत्र आकार ग्रहण करता है।

बहुमत की परिभाषा

बहुमत का मतलब मतदाताओं द्वारा किसी दल के पक्ष में दिया जाने वाला मतों की संख्या मानी जाती है।यह बहुमत पार्टियों के बीच बंटे मतों में सबसे ज्यादा जरुर हो सकता है लेकिन वह उसके विपक्ष में पड़े मतों से कई गुना कम भी हो सकता है। इसीलिए संसदीय लोकतंत्र में बहुमत का पैमाना महज मतदान के दौरान प्रतिद्व्दी पार्टियों के बीच सबसे ज्यादा मत हासिल होने से नहीं लगाया जा सकता है। संसदीय लोकतंत्र के लिए बहुमत का अर्थ इसीलिए मतदान और चुने गए सदस्यों की संख्या के साथ तमाम पार्टियों के बीच समन्वय, सम्मान और समझ की संस्कृति के रुप में परिभाषित होता है।

लोकसभा में बहुमत संसदीय संस्कृति के विपरीत जब अपना दंभ भरने लगता है तो वह लोकतंत्र का हिस्सा नहीं रह पाता है और उसे जनमानस तानाशाही की प्रवृतियों के रुप में चिन्हित करता है। लोकसभा में सत्ताधारी दलों ने अपनी परिपाटी स्थापित करने की कोशिश की तो वह राज्यसभा में स्थापित नहीं हो सकी। जब संख्या द्वारा परिभाषित बहुमत की प्रवृति उपर से नीचे तक पहुंच जाती है और यह प्रवृति राजनीति में पांव फैलाती है तो वह बहुसंख्यकवाद का हिस्सा हो जाती है और फिर बहुसंख्यकवाद की तरफ पूरी राजनीतिक प्रक्रिया की तरफ जाने के लिए बाध्य कर देती है।लोकसभा यदि हर दिन चुनावी मंच होने का एहसास कराने लगती है तो वह कई तरह के प्रहसन और मशखरेपन की संस्कृति की तरफ बढ़ने के लिए अभिशप्त है। संसद सदस्य नाचने लगे , गाना बजाने लगे, टेलीविजन के स्क्रीन को अपने अभिनय के मानदंड के रुप में स्वीकार कर लें तो वह संसद होने का एहसास कतई नहीं करा सकती है। वैसे तो यह संसदीय राजनीति की बिडम्बना हो गई है कि सत्ता का नेतृत्व करने वाला अपने पिछले नेतृत्व को बेहतर कहें जाने के लिए मतदाताओं व पर्यवेक्षकों को बाध्य कर देता है।लोकसभा में भी यही दिखता है। संसदीय लोकतंत्र में यह एक भरोसा जरुरी माना जाता है कि संस्थानों का नेतृत्व लोगों के सामने संस्थान के उद्देश्यों के अनुरुप होने का एहसास पैदा करे।संस्थान से एक बेहतर सांस्कृतिक प्रतिनिधि होने की उम्मीद इसीलिए की जाती है ताकि वह पूर्वाग्रहों के पिछले अनुभवों को दुरुस्त कर सके और एक परंपरा के स्वस्थ और उसकी उम्र लंबी होने की आशा बंधी रहे।

शोध की संस्कृति जरुरी

प्रत्येक लोकसभा के लिए यह अनिवार्य होना चाहिए कि वह कुछ बिंदुओं पर शोघ की व्यवस्था करें। मसलन लोकसभा के भीतर टीवी स्क्रीन की व्यव्स्था कराने का क्या प्रभाव दिखता है। सदस्यों में पढ़ने लिखने की संस्कृति का स्तर किस रुप में विकसित हुआ है। सदस्यों के बीच लोकसभा की संस्था के अनुरुप आपसी समन्वय व विचार विमर्श की संस्कृति किस दिशा की तरफ बढ़ रही है। लोकसभा एक अलग संस्था है। संसदीय लोकतंत्र में सरकार संसद के प्रति जवाब देह होती है। इसीलिए लोकसभा का सदस्य एक अलग अहमियत रखता है। राजनीतिक पार्टियां कई हो सकती है लेकिन लोकसभा एक ही है । लोकसभा के परिसर में सैन्य प्रवृतियों का किस भी रुप में विकास हुआ है और उसके क्या कारण है ?लोकसभा के भीतर सरकार की नौकरशाही की प्रवृतियां क्या अपना प्रभाव डाल रही है?

भारत में संसदीय लोकतंत्र को ब्रिटिश सत्ता से लिया गया लेकिन उसे अपने अनुरुप विकसित करना है इसकी कोई रुप रेखा या दिशा नहीं दिखती है। केवल यह दिखता है कि ब्रिटिश सत्ता की संसदीय परिपाटी को अपने तत्कालीन हितों के अनुरुप जितना इस्तेमाल किया जा सके उस हद तक तो उसे स्वस्थ परंपरा मानें और जब अपने हितों के साथ उसका टकराव हो तो उसे रास्ते से हटाने की हर संभव कोशिश होती है। इसीलिए लोकसभा में संसदीय लोकतंत्र के लिए ऐसी शोध संस्कृति का कोई चिन्ह दिखाई नहीं देता है। विश्वविद्यालयों में नौकरियों के लिए जिस तरह से शोध की विकृतियां सक्रिय है उसी तरह की विकृतियो का शिकार लोकसभा भी है।

लोकसभा की पत्रकार दीर्धा में एक सदस्य ने एक किस्सा सुनाया। वह कि सत्ता के नेतृत्व ने अपने मीडिया सलाहकार को यह कहा कि लोग मीडिया में जो देखते व पढ़ते है उस पर चर्चा करते है।विक्षापनों पर चर्चा नहीं करते है। इसीलिए मीडिया का इस तरह से मैनेजमेंट होना चाहिए कि जो कहा जा रहा है उसे वह पर्याप्त जगह दें। इस किस्से को लोकसभा की भाषा के आलोक में देखें तो लोकसभा ने अपने पूरे कार्यकाल में किस तरह की भाषा विकसित की है।भाषा का जनतांत्रिकरण करने की सुविचारित योजना होती है लेकिन भाषा की विकृतियां पैदा करना एक आदत का रुप ग्रहण कर लेती है तो लोगों में सांस्कृतिक विपन्नता विकसित करने का वह बड़ा कारण बनती है। भाषा और 16वीं लोकसभा के पहलू से भी एक शोध जरुरी लगता है।