पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने मशहूर शायर जोश मलीहाबादी की किताब से दो पंक्तियां पढ़ीं :

“बदले की रस्म जिसने वफ़ा में हराम है,
एहसान एक शरीफ तरीन इंतकाम है.”


भारत – पाकिस्तान के रिश्ते, अच्छा या बुरा, जब कभी भी बदलते हैं, तो इन्दर गुजराल (जिन्हें मैं इन्दर भाई कहता था) के साथ हुई एक लंबी बातचीत जेहन में ताज़ा हो जाती है. मेरी आलोचनाओं को शांत करने के लिए उन्होंने ‘नवा ए वक़्त’ की ताज़ा संपादकीय की एक छायाप्रति देते हुए कहा था, “घर लौटते समय रास्ते में इसे पढ़ना : अगर यह बदलता है, तो भारत – पाक रिश्ते सुधेरेंगे.”

इस कट्टरपंथी उर्दू अखबार की शुरुआत 1940 में लाहौर से खिज्र हयात खान की यूनियनिस्ट पार्टी के सीधे विरोध में हुई. यूनियनिस्ट पार्टी दो राष्ट्रों के सिद्धांत की घनघोर विरोधी थी. खिज्र हयात खान का संबंध एक विशिष्ट संभ्रांत जमींदार जमात से था. उनका उदारवाद पश्चिमी शिक्षा, जिसकी शुरुआत ऐटचेसन कालेज से हुई थी, के साथ उनके संपर्कों की वजह से निकला था. उनकी तुलना में ‘नवा ए वक़्त’ के संस्थापक हसन निजामी कहीं अधिक खांटी थे. वे एक पत्रकार और एक मुस्लिम राष्ट्र के लिए काम करने वाले मुस्लिम लीग के कार्यकर्ता थे. उन्हें इस विचार को तेजी से फैलाना था क्योंकि सैयद सिब्ते हसन ख्वाजा, अमहद अब्बास और डॉ के एम अशरफ “ओपिनियन” नाम के एक वामपंथी प्रकाशन के जरिए इसमें सेंध लगा रहे थे.

प्रगतिशील मुसलमानों की लाइन जवाहरलाल नेहरु के फेबियन समाजवाद, जो कांग्रेस के उद्देश्यों के मुफ़ीद थी, के ज्यादा करीब थी. यह नेहरु का विशाल व्यक्तित्व था जिसकी बदौलत अपने जीवनकाल में उन्होंने अकेले अपने दम पर जितना हो सका इस परियोजना को बढ़ाया. उनके बाद इसमें बिखराव आना शुरू हो गया.

यह हमारे समय का एक रूपक है कि दुनिया की सबसे ऊंची मूर्ति उनकी नहीं बल्कि उनके वरिष्ठ सहयोगी और उप – प्रधानमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल की है. और, कांग्रेस के जख्मों पर नमक छिड़कने के लिहाज से, यह मूर्ति कांग्रेस ने नहीं बल्कि आरएसएस ने बनवाई गयी है.

नेहरु और उनके आईसीएस किस्म वाले साथियों को एक हिन्दू भारत से परहेज था क्योकि उन्हें एक मुफ्फसिल और साधारण अप्रभावी भारत की छवि नागवार थी. इसलिए, उन्होंने दो राष्ट्र के अधूरे भाग : पाकिस्तान, एक धर्मतांत्रिक राष्ट्र – को स्वीकार कर लिया. नेहरू के अन्य महान जुनून के लिए "धर्मनिरपेक्ष" भारत जरुरी था. कश्मीर को साथ रखने का यही एकमात्र रास्ता था.

इसके अलावा धर्मनिरपेक्ष भारत एक विज्ञापन था, एक चोचला भी. किसी धर्मतांत्रिक राष्ट्र के लिए भेदभावरहित एक संपन्न धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र एक अड़चन की तरह होता. इसी “अड़चन” से बचाव के तौर पर नवा – ए – वक्त को “पाकिस्तान की विचारधारा के अभिभावक” के रूप में खुद को मजबूत करना था. नवा – ए – वक्त के संपादक माजिद निजामी (2014 में उनका देहांत हो गया) ने इस तथ्य की व्याख्या की थी कि उनके अखबार ने शुरुआत से ही अपने होशो – हवास में एक “अमेरिका समर्थक, कम्युनिस्ट विरोधी” रवैया क्यों अपनाया. “नेहरु का समाजवाद, सोवियत संघ के साथ उनकी नजदीकी और उनके इर्द - गिर्द कम्युनिस्ट बुद्धिजीवियों का जमावड़ा.”

इंदिरा गांधी ने 1969 में कांग्रेस को विभाजित किया और पार्टी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के साथ पींगे बढ़ायीं. इसने जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में एक “गठबंधन” की ओर से एक जबरदस्त प्रतिक्रिया या 1974 के जेपी के बिहार आंदोलन को आमंत्रित किया, जिसके नतीजे में एक के बाद एक बड़े हादसे – 1975 में आपातकाल और 1977 के आम चुनावों में इंदिरा गांधी का सफाया – हुए.

जब 1980 में वो सत्ता में लौटीं, तो वह एक प्रताड़ित राजनीतिज्ञ थीं. उन्होंने 1983 में जम्मू चुनाव एक सांप्रदायिक, सिख और अल्पसंख्यक विरोधी, आधार पर लड़ा. यह उन्हें एक आशाजनक रास्ता लगा. जून 1984 में आपरेशन ब्लू स्टार को अंजाम दिया गया, सिखों के सबसे पवित्र धर्मस्थल में सेना घुसी. अक्टूबर 1984 में उनके अंगरक्षक ने गोली मारकर उनकी हत्या कर दी. दिसम्बर 1984 में, 514 सीटों वाले सदन में 414 सीटों के साथ राजीव गांधी जबरदस्त बहुमत से जीते.

स्वाभाविक रूप से, इसके पीछे इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति एक कारक थी, लेकिन काग्रेस ने इस प्रचंड जनादेश की अलग तरह से व्याख्या की. यह अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता के खिलाफ हिदुओं की एकजुटता थी. दूसरे शब्दों में, हिन्दू एकजुटता की अवधारणा दोनों तरफ से वैधता पा गयी.

प्रतियोगी साम्प्रदायिकता के दौर में, मंदिर दर मंदिर भटकने, गाय की पूजा करने, गौ – मूत्र को बोतलबंद करने, चुनावी सभाओं से मुसलमानों को दूर रखने, बिना किसी सुनवाई के मुसलमान युवाओं को जेल में बंद रखने आदि के मामले में भाजपा और कांग्रेस के बीच जबरदस्त होड़ है. लेकिन यह बात मजबूती से कही जानी चाहिए कि गौ – रक्षा, लव – जिहाद, घर वापसी, स्थानों के नाम बदलने और इसी किस्म की हरकतों में कांग्रेस को पीछे छोड़ते हुए भाजपा बहुत आगे निकल गयी है, जबकि कांग्रेस अभी भी नींद में है.

पाकिस्तान और कश्मीर के मसले पर दोनों दलों के दृष्टिकोण में मामूली अंतर है, लेकिन 9/11 की घटना के बाद के वैश्विक इस्लामोफोबिया के मुद्दे पर दोनों ही सहज रूप से वैश्विक मूड के साथ हैं. भारतीय संदर्भ में, यह गहरे भगवा स्वर का परिचायक है. इस भगवा स्वर को नरम नहीं किया जा सकता क्योंकि साम्प्रदायिकता का अधिकतम हिस्सा पाकिस्तान द्वारा भारतीय चैनलों के एंकरों से नफ़रत करके फैलाया गया है. वे अक्सर तरह – तरह से असदुद्दीन ओवैसी को उछालते हैं. (मुझे जोर देकर यह कहने दीजिए कि इसके कुछ सराहनीय अपवाद हैं.)

चूंकि मुझे याद है कि कैसे इंदर गुजराल ने मुझे बार-बार नवा- ए - वक़्त के संपादकीय की ओर संकेत किया था, भारतीय वायुसेना द्वारा बालाकोट में जैश – ए – मोहम्मद के शिविरों को तबाह किये जाने के दावों के बाद मैंने गूगल पर उस अखबार के संपादकीय पृष्ठ को खंगाला. “महाराज आग से न खेलो, अमन को रास्ता दो, इलाकाई ग़ुरबत को खत्म करने में हाथ बंटाओ, वरना घमंड समेत भस्म हो जाओगे.”

जिस समय मैं यह संपादकीय पढ़ रहा था, एक चैनल पर एक एंकर दहाड़ रहा था, “ये खुनी दरिन्दे झूठ बोलते हैं.” गुजराल के नजरिए के हिसाब से, इमरान खान को क्या कहना चाहिए?

नवा- ए – वक़्त का “भारत” विरोधी रवैया भारत के फुसलाहटो और उदार धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ एक धर्मतांत्रिक राष्ट्र को मजबूत करने के लिए था.

अब नवा- ए – वक़्त अपना सुर धीमा कर सकता है क्योंकि हम भी एक हिन्दू राष्ट्र बनने की ओर अग्रसर हैं. हिन्दू नहीं फुसलाते, वे धर्मान्तरण नहीं करते. लेकिन पाकिस्तान, कश्मीरियों और मुसलमानों के लिए नफ़रत की खेती करने का एक मतलब है - हिन्दू एकजुटता की परियोजना का अनुसरण करना. याद रखिए सिर्फ “अनुसरण”, “हासिल करना” नहीं, क्योंकि गायों के घर लौट आने तक एक बहु - जातीय, बहुभाषी, बहु - धार्मिक उपमहाद्वीप को एकजुट करने का काम चलता रहेगा.

विडम्बना यह है कि एकजुटता का आसान तरीका नवा – ए – वक़्त के ऊपर उल्लेखित संपादकीय में सुझाया गया है.