पिछले चार हफ़्तों में 2019 के लोकसभा चुनावों का नजारा नाटकीय ढंग से बदला है.

पिछले सप्ताह चुनाव आयोग द्वारा चुनाव – कार्यक्रमों की घोषणा किये जाने से पहले तक, कश्मीर के पुलवामा में सीआरपीएफ के जवानों पर हुए हमलों और उसके बाद भारत और पाकिस्तान द्वारा एक – दूसरे पर की गयी बमबारी की घटनाओं से उपजे राष्ट्रीय सुरक्षा और भारत – पाकिस्तान के आपसी रिश्ते जैसे मुद्दे तकरीबन 2 – 3 हफ़्तों तक सुर्खियों में छाये रहे.

इस अवधि में, राष्ट्रीय सुरक्षा की खामियों अथवा उपलब्धियों के इर्द - गिर्द बुनी गयी विमर्शों ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को चर्चा के केंद्र में बनाये रखा.

चार – हफ़्तों का यह चरण प्रधानमंत्री मोदी और खासकर कुछ ही महीनों पहले कांग्रेस के हाथों तीन राज्यों में अपनी सत्ता गंवाने वाली भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के लिए बेहद महत्वपूर्ण था. इस दरमियान, राफेल मसले पर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के जोरदार हमलों और आर्थिक संकट की लगातार खबरों की वजह से प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी रक्षात्मक मुद्रा में थी.

पुलवामा और नौशेरा में सुरक्षा संबंधी चूकों पर मीडिया के बचकाने रवैये ने भाजपा को मदद दी. इस पार्टी द्वारा बालाकोट हवाई हमलों के चतुर और भयंकर राजनीतिकरण ने मोदी सरकार को भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने जैसे अहम सवालों को दरकिनार करने में कामयाब कर दिया.

इन चार हफ़्तों के दौरान, भाजपा ही एकमात्र राजनीतिक पार्टी थी जो व्यापक रूप से प्रचार मंे जुटी रही. जबकि विपक्ष सैनिकों का हितैषी दिखने लेकिन सरकार का आलोचक बनने के लिए कशमकश करता रहा.

ऐसा माना जा रहा है कि चुनावी दौड़ में मोदी बाकी नेताओं के मुकाबले काफी आगे निकल गये हैं. यही वजह है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के राष्ट्रीय कार्यकारिणी के भूतपूर्व सदस्य और वर्तमान में भाजपा के महासचिव राम माधव ने द हिन्दू को दिए एक साक्षात्कार में कहा, “दरअसल यह ‘मोदी बनाम सभी’ की टक्कर है ही नहीं. असल में यह टक्कर ‘मोदी बनाम कौन?’ का है. एनडीए पहले की अपेक्षा कहीं ज्यादा मजबूत बनकर उभरा है. एक नेता के तौर पर मोदी जी के सामने कौन है? यह हमें नहीं पता.”

यह पुराने ज़माने के कांग्रेसी नारे जैसा है - अगर इंदिरा नहीं, तो कौन.

भारत में राष्ट्रपति प्रणाली की सरकार नहीं है. और न ही यहां की राजनीतिक व्यवस्था दो - ध्रुवीय हुई है, जैसाकि कई अति – उत्साही टिप्पणीकार पूर्वानुमान लगाते हैं. पिछले संसदीय चुनावों में, भाजपा और कांग्रेस का संयुक्त मत 51% रहा था. यह इस बात का संकेत है कि साथ मिलाकर गिनती करने पर भी ये दोनों पार्टियां पूरी तरह से राष्ट्रीय नहीं दिखायी देती हैं.

किन बड़े राज्यों में कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधी टक्कर है? सिर्फ पांच – राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र. इन पांच राज्यों में कुल मिलाकर लोकसभा की सिर्फ एक – तिहाई सीटें ही हैं.

और कर्नाटक में जहां जद (सेकुलर) की मौजूदगी चुनावी टक्कर को तिकोना बनाती हैं, वहीँ महाराष्ट्र में यह काम एनसीपी, शिव सेना और प्रकाश अम्बेडकर की नवगठित वंचित बहुजन अघाड़ी मिलकर करती हैं. इस लिहाज से, भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधी भिड़ंत वाली सीटें और भी कम हो जाती हैं.

उत्तर प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्य में, सपा – बसपा – रालोद का गठबंधन भाजपा के साथ सीधी टक्कर में है. यहां तक कि उड़ीसा में भी कांग्रेस भाजपा और बीजद के साथ त्रिकोणीय टक्कर में फंसी है.

इस प्रकार, लोकसभा की दो - तिहाई सीटों पर मोदी की भिड़ंत गैर - कांग्रेसी दलों के साथ है. लेकिन भाजपा को अमेरिकी शैली की राष्ट्रपति प्रणाली वाली राजनीति पसंद है. वह कांग्रेस के साथ सीधी भिड़ंत पसंद करेगी जिसके भ्रष्टाचार और वंशवादी राजनीति के हालिया रिकॉर्ड को निशाना बनाना कहीं ज्यादा आसन है.

राजद, तृणमूल कांग्रेस, सपा – बसपा और तेदेपा जैसे क्षेत्रीय दल ही हैं जो भाजपा को बेचैनी में डालते हैं.

हाल में मीडिया में राहुल गांधी समेत अन्य विपक्षी नेताओं को ख़ारिज करते हुए प्रधानमंत्री मोदी की दिखाई गयी बढ़त विपक्षी दलों के लिए शायद कोई बुरी ख़बर न हो. क्योकि इस किस्म के विमर्श से अपने – आप ही विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद का कोई दावेदार सामने नहीं आता.

ठीक यही वह बिन्दु है, जहां तीसरे मोर्चे का फायदा निहित है.

बालाकोट में हवाई हमले के बाद हाल में एबीपी न्यूज़ – सी वोटर द्वारा कराये गये एक सर्वेक्षण में भाजपा नीत गठबंधन को आगामी चुनावों में बहुमत से थोड़ा दूर दिखाया गया है. ऐसा गैर –यूपीए और गैर – एनडीए दलों द्वारा 140 सीटें पाने के अनुमान की वजह से है.

कई क्षेत्रीय दल मोदी – राहुल भिड़ंत से किनारा करते हुए सिर्फ ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतने की गरज से चुनावों से पहले यूपीए में नहीं शामिल हुए. मसलन, सपा – बसपा – रालोद गठबंधन में कांग्रेस की मौजूदगी उत्तर प्रदेश की सभी 80 सीटों पर चुनावी लड़ाई को नरेन्द्र मोदी बनाम राहुल गांधी के भिड़ंत में तब्दील कर देती.

और ऐसे कई राज्य हैं जहां भाजपा उन क्षेत्रीय दलों के क्षत्रपों से भिड़ने वाली है, जो संसदीय चुनाव के बाद भी एनडीए में शायद ही शामिल हों. इन नेताओं में ममता बनर्जी, चंद्रबाबू नायडू, चन्द्रशेखर राव, मायावती, प्रकाश अम्बेडकर और अखिलेश यादव प्रमुख हैं.

प्रधानमंत्री मोदी की अजेय छवि के अपने खतरे हैं. वाजपेयी और इंदिरा गांधी भी कभी बिल्कुल इसी किस्म की हैसियत में थे – कई सीमओं के बावजूद बेहद मजबूत और न हराये जाने लायक.

इसके बावजूद वाजपेयी और इंदिरा गांधी, दोनों, क्षेत्रीय दलों के एक गठबंधन द्वारा परास्त हुए.

भारत का संघवाद एक ऐसी प्रक्रिया है जो संसदीय चुनावों में भी ‘राष्ट्रीय’ कहे जाने वाले दलों को सबक सीखा देती है. यहां वोट क्षेत्रीय एवं सामाजिक हितों और समाज के वंचित जमात के प्रतिनिधित्व से निर्धारित होते हैं, न कि प्रधानमंत्री पद के घोषित उम्मीदवार से. यही वजह है कि टीआरएस, तृणमूल, अन्नाद्रमुक, द्रमुक और बीजद जैसी पार्टियां विधानसभा और लोकसभा, दोनों, चुनावों में शानदार प्रदर्शन करती हैं.

भाजपा इस तथ्य से अवगत है. यही वजह है कि एक ओर जहां राम माधव मोदी को सर्वशक्तिमान घोषित करते हैं, वहीँ दूसरी ओर उनकी पार्टी दो दर्जन अन्य पार्टियों के साथ गठबंधन करती है.

भाजपा को 2019 में परास्त करने का सिर्फ एक ही उपाय है. उसे गैर – कांग्रेसी दलों के वर्चस्व वाले प्रत्येक राज्य में छोटी – छोटी लड़ाइयों के माध्यम से चुनौती दी जाये. यहां यह याद रखा जाना चाहिए कि मोरारजी देसाई, देवेगौडा, आई के गुजराल और मनमोहन सिंह, ये सभी नेता विभिन्न राज्यों में अपेक्षाकृत छोटी जीत की वजह से प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंच पाये.

बीते कुछ सालों में स्थितियां चाहे जो भी रहीं हों, यह तो आने वाला समय ही बतायेगा कि मोदी की बढ़त वास्तविक थी या फिर काल्पनिक. भाजपा का ताबड़तोड़ प्रचार का तरीका, जैसाकि उन्होंने वायुसेना के पायलट के मामले में और पुलवामा में शहीद हुए जवानों के अंतिम संस्कार का इस्तेमाल करके किया, उनके लिए नुकसानदायक भी साबित हो सकता है.

खैर अब जबकि चुनावों में सिर्फ तीन सप्ताह से भी कम का समय बाकी है, मोदी की विशाल राजनीतिक छवि की धारणा ने राहुल बनाम मोदी की भिड़ंत को रोका है.

यह विपक्ष द्वारा भले ही भाजपा न सही, पर मोदी को दूसरा कार्यकाल हासिल करने से रोकने के अभियान के लिए परोक्ष रूप से एक वरदान साबित हो सकता है.