उत्तर प्रदेश की जिन अधिकांश सीटों पर विपक्ष की जीत सुनिश्चित थी, उनपर कांग्रेस द्वारा सपा – बसपा – रालोद गठबंधन से अलग लड़ने के निर्णय से अब प्रश्नचिन्ह लग गया है.

पश्चिमी उत्तर प्रदेश की लोकसभा सीटों के लिए बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस द्वारा जारी की गयी उम्मीदवारों की सूची पर एक सरसरी निगाह डालने पर यह स्पष्ट होता है कि इस इलाके की 11 लोकसभा सीटों में से कमोबेश 6 पर ये दोनों पार्टियां आपस में ही भिड़ेंगी.

मेरठ, सहारनपुर, बिजनौर, नगीना, गौतमबुद्ध नगर और बुलंदशहर उन सीटों में से है जहां बसपा और कांग्रेस आपस में एक – दूसरे को और भाजपा को भी टक्कर देंगी. ये सभी ऐसी सीटें हैं जहां एक बृहत गठबंधन आसानी से कामयाब हो सकता था. लेकिन अब त्रिकोणीय संघर्ष की स्थिति में इनका भविष्य अंधकार में है.

वर्ष 2014 का चुनाव परिणाम यह दर्शाता है कि कांग्रेस पार्टी द्वारा जारी पहली सूची में से एकमात्र सहारनपुर संसदीय सीट पर ही उनका दावा उचित बनता है. इस सीट पर पिछले चुनाव में उसे 34.14 प्रतिशत मत प्राप्त हुए थे, जबकि भाजपा के निर्वाचित उम्मीदवार को 39.59 वोट मिले थे. अगर कांग्रेस आगामी संसदीय चुनावों में सपा – बसपा – रालोद गठबंधन में शामिल हुई होती, तो पिछले चुनाव के परिणाम के आधार पर अब उनका सम्मिलित मत प्रतिशत 58 प्रतिशत से भी पार कर गया होता. फिलहाल सहारनपुर सीट पर पिछले चुनावों की तर्ज पर वोट बंटे हुए हैं. पिछले परिणाम के आधार पर सपा – बसपा का सम्मिलित वोट 24 प्रतिशत था जोकि इस गठबंधन को कहीं से भी जीत के करीब नहीं पहुंचाता.

यह स्पष्ट नहीं है कि कांग्रेस पार्टी ने अन्य पांच लोकसभा सीटों पर अपना उम्मीदवार उतारने का फैसला क्यों और किस आधार पर किया है. इस इलाके में वोटों के ध्रुवीकरण के एक खास स्वरुप को देखते हुए यह साफ़ है कि कांग्रेस के इस कदम से गठबंधन के वोटबैंक में सेंध लगेगी. पिछली बार बुलंदशहर में भाजपा को 59.83 प्रतिशत वोट मिले थे, जबकि बसपा, सपा और रालोद का सम्मिलित वोट महज 36 प्रतिशत ही था. कांग्रेस पार्टी तो बलुन्दशहर सीट पर पिछली बार उतरी भी नहीं थी.

गौतमबुद्ध नगर में भाजपा की जीत हुई थी. कांग्रेस पार्टी को इस सीट पर महज एक प्रतिशत वोट प्राप्त हुआ था. फिर भी, इसने यहां से अपना उम्मीदवार उतारकर सपा – बसपा को पिछली बार मिले 43 प्रतिशत वोट में कटौती का इंतजाम कर दिया है. कांग्रेस ने उस मेरठ संसदीय सीट पर भी अपना उम्मीदवार उतारा है, जहां उसे पिछली बार मात्र 3 प्रतिशत वोट मिले थे. गठबंधन को इस सीट पर सम्मिलित रूप से 46 प्रतिशत वोट हासिल हुआ था जोकि विजयी भाजपा से सिर्फ दो प्रतिशत कम था. लेकिन सपा – बसपा – रालोद गठबंधन को मदद करने के बजाय सांप्रदायिक आधार पर तीखे रूप से ध्रुवीकृत इस सीट पर कांग्रेस गठबंधन का वोट काटेगी.

बिजनौर सीट पर पिछले चुनाव में कांग्रेस का कोई उम्मीदवार नहीं था. लेकिन पार्टी ने इस सीट पर अपनी दावेदारी जतायी. यह इस तथ्य के बावजूद किया गया कि पिछली बार के परिणामों के आधार पर यहां कांटे की टक्कर है जिसमें भाजपा के पास 45.92 प्रतिशत वोट है और गठबंधन के खाते में लगभग 50 प्रतिशत वोट है.

नगीना सीट पर भी यही कहानी है. यहां भी कांग्रेस पिछली बार नहीं लड़ी थी, लेकिन इस बार लड़ेगी. यहां पिछली बार भाजपा को 39 प्रतिशत वोट मिले थे जबकि सपा और बसपा को पिछले परिणाम के आधार पर सम्मिलित रूप से 55 प्रतिशत वोट मिल सकते हैं. इस तरह से कांग्रेस ने इस सीट पर अनिश्चितता बढ़ा दी है.

सीटों के समझौते के तहत इन लोकसभा सीटों पर बसपा लड़ रही है. गठबंधन के नेताओं की नजर में कांग्रेस मायावती के रास्ते में बाधा डालने के लिए दिन – रात एक कर रही है. मायावती ने ऐसे किसी भी गठबंधन का विरोध किया है जिसमें कांग्रेस पार्टी के लिए 5-7 से अधिक सीटें छोड़ी जाएं. इस मुद्दे पर चुप रहने वाले गठबंधन के अन्य सदस्यों के उलट वे कांग्रेस पार्टी की आलोचना करने में भी सबसे आगे रही हैं. न तो अजीत सिंह और न ही अखिलेश यादव ने कांग्रेस पार्टी पर खुलकर हमला किया है. हालांकि सभी ने स्वीकार कर लिया है कि एक बड़े गठबंधन की गुंजाइश अब खत्म हो गयी है.