पीपल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स (पी.यू.डी.आर) 1980 के दशक से दिल्ली में पुलिस हिरासत में मौतों की घटनाओं की पड़ताल करता रहा है और उन पर लिखी रिपोर्ट को लोगों के सामने पेश करता है । इन पड़तालों में पी.यू.डी.आर ने अक्सर पाया कि ये मौतें पुलिस द्वारा हिरासत में दी गयी यातना का गैर-इरादतन नतीजा थीं, और हिरासत में यातना देना पुलिस के रोज ब रोज काम करने के तरीकों के एक हिस्से के रुप में मौजूद है।

इधर कुछ सालों से पी.यू.डी.आर ने पुलिस हिरासत में मौत की हर घटना पर रिपोर्ट नहीं निकाला क्योंकि यह लगने लगा था कि मुद्दे ज़्यादा स्पष्ट रूप से प्रकाश में आने लगे है और, ऐसा लगने लगा कि उन पर कार्यवाही भी नियमित रूप से होने लगी – मीडिया की बढ़ती निगरानी, मान्य रूप से हिरासत में होने वाली हर मौत पर मैजिस्ट्रेट की जांच, और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा दिशानिर्देश आदि के चलते ऐसा लग रहा था कि न्याय की प्रक्रिया पहले से सरल हुई है और पुलिस पर भी यातना का प्रयोग न करने का दबाव पड़ा है।

पर पी.यू.डी.आर का यह नया रिपोर्ट ‘कंटिन्युइंग इंप्यूनिटी: डेथ्स इन पुलिस कस्टडी, दिल्ली 2016-2018’ दर्शात है कि पुलिस हिरासत में मौतों का मुद्दा अब भी न्याय पाने के उन्हीं पुराने सवालों से जूझ रहा हैं।

पी.यू.डी.आर की यह रिपोर्ट साल 2016-2018 के बीच दिल्ली में पुलिस हिरासत में हुई मौतों में की गयी फ़ैक्ट-फ़ाइंडिंग पर आधारित है। 2016-2018 के बीच पुलिस हिरासत में हुई मौतों की सूचना हमें राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग में दायर किए गए एक आर.टी.आई (RTI) से प्राप्त हुई – जिसमें उन्होने 7 मौतों की सूचना दीं

1) रजनी कान्त, मौत 20.5.2016, गाज़ीपुर पुलिस स्टेशन
2) सोम पल, मौत 28.12.2016, आदर्श नगर पु.स्टे.
3) रमेश, मौत 13.7.2017, मंगोलपुरी पु.स्टे.
4) राजकुमार, मौत 2.8.2016, जहांगीरपुरी पु.स्टे.
5) कृप्रियन अमाओग्बोनया, नाइजीरियन नागरिक, मौत 18.8.2017, न्यू फ़्रेंड्स कॉलोनी स्पेशल सेल SR
6) अनिल, मौत 22.8.2017, अंबेडकर नगर पु.स्टे.
7) कुलभूषण चतुर्वेदी, मौत 6.12.2017, केशव पुरम पु.स्टे.

साल 2018 में दिल्ली में पुलिस हिरासत में हुई 3 मौतों की खबर हमें अखबारों से प्राप्त हुई

1) दीपक, मौत 16.1.2018, करावल नगर पु.स्टे.
2) दलबीर सिंह, मौत 21.2.2018, नारायणा पु.स्टे.
3) कोमल कौर, मौत 15.7.2018, तिलक विहार पुलिस चौकी

इन मौतों के तथ्यान्वेषण में जो मुद्दे हमारे सामने निकाल कर आए, वे इस प्रकार हैं:

1) इन 10 मौतों में से 6 मौतों का कारण या तो ‘आत्महत्या’ है या फिर पुलिस हिरासत से भागने की कोशिश हुई ‘हादसा’ (रिपोर्ट में इस पर चर्चा पृष्ठ 35-37 पर)। जबकि हमारी जांच से हमने पाया की आदर्श नगर पु.स्टे. में सोम पाल की मौत (पृष्ठ 20-23), करावल नगर पु.स्टे. में दीपक (पृष्ठ 3-10), नारायणा पु.स्टे. में दलबीर सिंह (पृष्ठ 10-14) की मौतों को मौजूदा तथ्यों के आधार पर न तो इन्हे पक्के तौर पे ‘आत्महत्या’ और न ही पुलिस हिरासत से ‘भागने’ के नाकाम कोशिश बताया जा सकता है – इन ‘सरकारी’ कारणों पर शक करने के पर्याप्त आधार हैं। बल्कि दलबीर सिंह के मामले में मैजिस्ट्रेट ने भी पुलिस की कहानी को झूठा साबित किया है। इन मौतों के पीछे पुलिस हिरासत में यातना को इंगित करने वाले तथ्य भी दिखाई देते हैं। जहाँगीर पुरी पुलिस स्टेशन में राजकुमार की मौत पर हमें ज़्यादा जानकारी नहीं मिल पायी पर फिर भी एकत्रित जानकारी के आधार पर भी राजकुमार की मौत को आत्महत्या मानना मुश्किल है। मंगोलपुरी पु.स्टे. में रमेश की मौत (13.7.2017) में हिरासत में यातना के साफ प्रमाण हैं, पोस्ट मॉर्टेम भी यही दिखाता है (रिपोर्ट पृष्ठ 23-27) पर फिर भी पुलिस इसे नकार रही है।

2) हिरासत में मौतों के मामलों में पुलिस के अलावा चश्मदीद का न होना न्यायिक तौर पर पुलिस के खिलाफ़ कोई भी आपराधिक मामला दर्ज करने में एक बड़ी समस्या उत्पन्न करती है। इन मामलों में भी पुलिस के अलावा कोई स्वतंत्र गैर-पुलिस गवाह दर्ज नहीं किया गया है जिसके चलते न्यायालय में पुलिस पर कोई भी अपराध साबित करना बेहद मुश्किल साबित होता है।

3) मैजिस्ट्रेट की जांच (पृष्ठ 37-39)- जबकि हमारे द्वारा इस रिपोर्ट में प्रस्तुत हिरासत में मौतों की लगभग सभी मामलों में सेक्शन 176 CrPC के तहत मैजिस्ट्रेट की जांच की गयी है या की जा रही है किन्तु एक घटना (दलबीर सिंह की मृत्यु, 21.2.18, नारायना पु.स्टे., 2018) के अलावा बाकी किसी में मैजिस्ट्रेट जाँचों से पीड़ितों को न्याय मिलता नहीं दिख रहा है। ऐसा शायद इसलिए क्योंकि MM (मेट्रोपॉलिटन मैजिस्ट्रेट) जांच भी पुलिस के प्रभाव से ‘स्वतंत्र’ नहीं है। जब 2005, एक सुधार के तहत यह काम (हिरासत में मौत के बाद मैजिस्ट्रेट जांच) कार्यकारी मैजिस्ट्रेट (SDM आदि) के हाथ से हटाकर कोर्ट में न्यायिक मैजिस्ट्रेट को सौंपा गया, तब यह आशा थी कि इस से जांच अब पुलिस के दबाव से अधिक स्वतंत्र हो पाएगी। किन्तु वास्तव में कुछ और होता हुआ दिख रहा है। क्योंकि शायद मैजिस्ट्रेट पूरी तरह पुलिस द्वारा मुहैया कराये सबूतों पर ही आश्रित होते हैं, और इनके पास कोई स्वतंत्र जांच कि व्यवस्था नहीं होती। इसके अलावा MM जांच रिपोर्ट तय समय सीमा में खत्म नहीं करते हैं और हिरासत में मरने वालों के परिजनों, जो कि बेहद मुश्किल आर्थिक परिस्थिति से आते हैं, के लिए एक लंबी जांच प्रक्रिया में जुड़े रहना मुश्किल होता है। हमने अपने इस रिपोर्ट के लिए तथ्यान्वेषण के दौरान यह पाया कि मैजिस्ट्रेट हिरासत में मौत के शिकार लोगों कि जमीनी परिस्थिति, उन पर लगातार पुलिस के दबाव आदि से एकदम अनभिज्ञ हैं। इस सबके अलावा MM जांच रिपोर्ट अपनी जांच में कहाँ तक पहुंची, किस नतीजे पर पहुंची, यह सूचना सार्वजनिक नहीं कि जाती। MM जांच पर इतनी गोपनीयता क्यों है? इस पर एक बड़ा सवाल है।

4) NHRC (पृष्ठ 39-41)- हमने इस रिपोर्ट में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग कि भूमिका पर भी टिप्पणी की है। 1993 में NHRC ने हिरासत में मौतों को लेकर यह दिशा निर्देश दिया कि इन मौतों में 24 घंटो के अंदर पुलिस द्वारा NHRC को सूचित किया जाये। ऐसा लगता है कि पुलिस NHRC को औपचारिक रूप से यह जानकारी देती भी है। पर प्रश्न यह है कि उसके बाद NHRC इन मामलों में क्या दखल देती है? वर्ष 2001 में एनएचआरसी ने हिरासत में मौतों के मामले में 2 महीने के भीतर रिपोर्ट भेजने का दिशा निर्देश राज्यों को जारी किया। यह स्पष्ट है कि इस समय अवधि का उल्लंघन नियमित रूप से हो रहा है पर NHRC इस पर कोई कोई कार्यवाही नहीं कर रही है। न ही इस संस्था नें दिल्ली मे हाल में हुए किसी हिरासत में मौत कि घटना में मुआवजा दिया है। क्या NHRC का काम मात्र हिरासत में मौतों कि सूचना रखना मात्र है?

5) मुआवज़ा (पृष्ठ 41-42, एवं पृष्ठ 45-46)- पुलिस हिरासत के इन मामलों में जहां तक हमारी जानकारी है, अभी तक कोई मुआवज़ा नहीं दिया गया है, न ही मुआवजा देने के लिए कुछ नियमित मापदंड या व्यवस्था है। अजीब बात है कि दुर्घटनाओं के लिए मुआवज़ा के नियम आदि हैं और इन घटनाओं के लिए नहीं। मुआवज़ा देना मात्र न्याय कि पूर्ति नहीं हो सकती है किन्तु जिन आर्थिक सामाजिक परिस्थितियों से हिरासत में मरने वाले लोग आते हैं उनके परिजनों के लिए शीघ्र मुआवज़ा ज़िंदगी चलाते हुए न्याय के पहियों को हिलाने और पुलिस द्वारा दिये जाने वाले दबाव का मुक़ाबला करने में बड़ी मदद साबित हो सकती है। हमारे तथ्यान्वेषणों में हमने पाया की पुलिस हिरासत में मौतों के शिकार ज़्यादातर लोग सामाजिक व आर्थिक रूप से सबसे शोषित वर्ग से आते हैं। इस रिपोर्ट में शामिल मामलों में 10 में से 8 व्यक्ति जिनकी पुलिस हिरासत में मौत हुई, कमजोर सामाजिक आर्थिक पृष्ठभूमि के थे। हमारे अनुसार उनकी यह पृष्ठभूमि भी न्याय उन तक न पहुँचने का एक कारण है।

6) इन सब कारणों के चलते हमने अपनी वर्तमान रिपोर्ट में यह पाया (और पहले भी हिरासत में मौतों पर हमारी रिपोर्टों में यह देखा जाता रहा है) कि पुलिस को एक तरह से लगातार दंड मुक्ति प्राप्त है जिस वजह से इतने दशकों से पुलिस हिरासत में मौतें होती रहती हैं। हिरासत में यातना देने कि प्रथा गैर कानूनी और गैर संवैधानिक है पर नियमित रूप से किया जाता है, और इसी के संदर्भ में मौतें होती हैं। पुलिस हिरासत में मौतों के मामलों में आपराधिक मामला दर्ज होने की संख्या न के बराबर है। बल्कि पूरा पुलिस महाकमा, पुलिस कमिश्नर से लेकर थाने में दोषी पुलिस कर्मियों के सहकर्मी, हिरासत में मौतों की बात को दबाने और मौतों की जवाबदेही से बचने के सभी तरीके और कारण अख़्तियार करते दिखाई देते हैं।

पिछले 2 वर्षों में इन मौतों पर अपने तथ्यान्वेषण के आधार पर पी.यू.डी.आर ने इस रिपोर्ट के जरिये यह निम्न मांगे की है:

(1) हिरासत में इन मौतों पर सेक्शन 176 CrPC के तहत आवश्यक रूप से की जाने वाली MM जांच रिपोर्ट को सार्वजनिक किया जाए। ऐसा हिरासत में होने वाली सभी मौतों के लिए किया जाए।

(2) मौजूदा रिपोर्ट में हिरासत में मौतों के लिए ज़िम्मेदार पुलिस कर्मियों को गिरफ्तार किया जाए व उन पर कानूनी कार्यवाही/मुकदमा किया जाये।

(3) इन सभी मृतकों के परिवारजनो को राज्य द्वारा बिना किसी देरी के मुआवज़ा दिया जाये। पुलिस हिरासत में मौतों के सभी मामलों के लिए राज्य द्वारा नियमित मुआवज़े का प्रावधान बनाया जाए (जिसका आधार कलकत्ता हाई कोर्ट का 6.9.17 का आदेश हो सकता है- रिपोर्ट - पृष्ठ 46)।