हमारे देश में आजादी के बाद से ही महिलाओं को मतदान का अधिकार प्राप्त है और वे मतदान में बढ़-चढ़ हर भाग भी लेती हैं. अब तो उनकी अपनी मांगें भी होती हैं और चुनावी वादों में भी उनके लिए अलग से कुछ होता है. कोई छात्राओं को साइकिल देता है, कोई अधिक छात्राओं को लैपटॉप बांटता है तो कोई गैस सिलिंडर ही बांटता है. चुनावों में खड़ा होने वाली और इसमें जीतने वाली महिलाओं की संख्या भी बढ़ रही है. वर्ष 1951 के पहले लोकसभा चुनावों में महज 24 महिलायें शामिल हो पायीं थीं, जबकि 2014 के चुनावों में 660 महिला प्रत्याशी थीं. इस वर्ष होने वाले चुनावों में उम्मीद की जा रही है कि महिला मतदाता पुरुषों के मुकाबले अधिक संख्या में हिस्सा लेंगीं.

वर्तमान प्रधानमंत्री तो महिलाओं को बढ़ाने की बहुत सी बातें करते है. वे उनके जीवन में उजाला की बातें करते हैं. उन्होंने लकड़ी जलाकर खाना बनाने से महिलाओं के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों की बातें भी कही हैं. महिला प्रतिनिधियों के एक सम्मलेन में तो उन्होंने खाना बनाने के समय हाथ जलने की ही बात कर रहे थे. वे मुस्लिम महिलाओं को तलाक से बचाने पर तो लगातार बोलते हैं. मोदी जी चुनावों में अधिक महिलाओं की भागीदारी की बात भी करते हैं. पर, एक दुखद तथ्य पर मोदी जी का बयान आज तक नहीं आया है. और वह तथ्य है करोड़ों महिलाओं के नाम वोटर लिस्ट में शामिल नहीं है.

पत्रकार प्रणव रॉय और चुनाव विश्लेषक डोरब सोपारीवाला की एक पुस्तक है, द वर्डिक्ट: डिकोडिंग इंडियाज इलेक्शन. इस पुस्तक में जनगणना में 18 वर्ष से अधिक उम्र की महिलाओं की संख्या की तुलना मतदाता सूची में महिलाओं की संख्या से करने के बाद बताया गया है कि 2.1 करोड़ महिलायें मतदान के योग्य हैं पर मतदाता सूची से नदारद हैं. इस संख्या के अनुसार तो हरेक लोकसभा क्षेत्र से औसतन 38000 महिलायें नदारद हैं. कुछ राज्यों, जैसे उत्तर प्रदेश के लिए तो यह आंकड़ा 80000 महिलायें प्रति निर्वाचन क्षेत्र तक पहुँच जाता है. यहाँ इस तथ्य को जानना आवश्यक हो जाता है कि देश में २० प्रतिशत से अधिक निर्वाचन क्षेत्रों में जीत और हार का अंतर 38000 वोटों से कम रहता है. इसका सीधा सा मतलब है, यदि मतदान के लिए योग्य सभी महिलायें चुनाव की प्रक्रिया में शामिल हो जायें, तब परिणाम पर बहुत अंतर पड़ सकता है.

मतदाता सूची से नदारद महिलाओं की संख्या सबसे अधिक उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और राजस्थान में है. ध्यान देने वाला तथ्य यह है कि इनमें से दो राज्यों – उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र - में भाजपा की सरकार है. राजस्थान में हाल-फिलहाल तक भाजपा में सत्ता रही है. मतदाता सूची से नदारद रहने वाली महिलाओं में से 50 प्रतिशत से अधिक उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और राजस्थान में हैं. तमिलनाडु और आन्ध्र प्रदेश जैसे दक्षिणी राज्यों में स्थिति सबसे अच्छी है.

हमारे देश में महिलाओं के सशक्तीकरण का नाटक भरपूर होता है. इसे देवी का स्वरुप माना जाता है, शक्ति का भण्डार माना जाता है. बड़े बड़े होर्डिंग्स पर गाँव की मुस्कराती महिला की बड़ी तस्वीर के साथ-साथ प्रधानमंत्री जी की तस्वीर होती है. “लड़की बचाओ, लड़की पढाओ” का नारा गढ़ा जाता है. लेकिन इन सबके बीच सरकारी आंकड़ों के अनुसार ही प्रतिवर्ष 6.3 करोड़ लडकियां पैदा होने से पहले या पैदा होते ही मार दी जातीं है. ये तो सरकारी आंकड़ें हैं, वास्तविक संख्या तो इससे बहुत अधिक होगी.

इस पुस्तक के आंकड़ों से अधिक भयावह आंकड़े भी गायब महिला वोटरों के सन्दर्भ में उपलब्ध हैं. अर्थशास्त्री शमिका रवि और मुदित कपूर ने भी इस सन्दर्भ में एक स्वतंत्र अध्ययन किया है. इनके अनुसार मतदान योग्य 6.5 करोड़ महिलाओं के नाम मतदाता सूची से नदारद हैं. यह संख्या कुल महिला मतदाताओं की संख्या का 20 प्रतिशत है.

सरकारें और चुनाव आयोग तो लगातार महिलाओं को मतदान में आगे करने की बातें करते है. अनेक चुनाव क्षेत्र केवल महिलाओं के लिए आरक्षित हैं. मतदान के समय महिलाओं की अलग पंक्ति बनती है. हरेक चुनाव केंद्र पर एक महिला अधिकारी रहती है. पर सच तो यही है कि जिस देश में आजादी के ठीक बाद से महिलाओं को मतदान का अधिकार है, वहां आजादी के 70 वर्षों के बाद भी करोड़ों महिलाएं इस अधिकार से वंचित हैं.