दिल्ली सरकार के स्कूलों में 10वीं के परिणाम पर थोड़ा और नजर डालते हैं। तालिका से स्पष्ट है कि 2013 से लेकर 10वीं के छात्रों की संख्य में लगातार गिरावट आई है। जो उपर दिये गये विश्लेषण की पुष्टि करता है। और 2018 में परिणम में भी केवल 68.90 प्रतिशत। और यदि कुल छात्रों की संख्या देखी जाये तो और भी कम। 2013 में पास हुए छात्रों का केवल 47.83 प्रतिशत यानि आधे से भी कम। 2017 में भी यह केवल 72 प्रतिशत ही था। क्योंकि छात्रों की पहले छंटनी कर दी गई है तो प्रतिशत अलग दिखता है। ये शिक्षा मंत्री के फिनलैण्ड दौरे व उसके बाद चुने हुए शिक्षकों को फिनलैण्ड में प्रशिक्षण के बाद। शिक्षा बजट कहां खर्च हो रहा है इसका भी संकेत मिल रहा है।

इसी प्रकार 12वी का परिणाम भी रोचक तथ्य उजागर करता है। 12वीं का परिणाम लगातार 10वीं से खराब है। जबकि यदि 2 वर्ष पूर्व के दसवीं में बैठे बच्चों से तुलना करे तो 2015 से संख्या भी लगातार कम हो रही है, जो कि इस व्यवस्था के प्रभाव के वर्ष हैं।

दिल्ली सरकार ने केवल एक प्रकट काम किया है वह है नई इमारतों का निर्माण। हालांकि अनेक जगह अनावश्यक रूप से कमरे बनाये गये हैं वहीं कहीं पुरानी जर्जर व कम क्षमता वाली इमारतों को बदल कर नई इमारतों का निर्माण किया है। पर जाहिर है इमारतें छात्रों को नहीं पढ़ा सकतीं। इमारतें बनने के बाद भी अनेक बुनियादी सिविधायें नहीं हैं। छात्रों द्वारा इस्तेमाल किये जाने वाले शैचालय में स्वच्छता का कोई दुरुस्त प्रबंध नहीं है। एक कमरे में क्षमता से अधिक बच्चे डाले जाते हैं। दो छात्रों की डेस्क पर तीन से चार छात्र बैठा दिये जातें हैं। वो लिख भी नहीं पाते। नई इमारतें की जगह चूने लगीं हैं। एक स्कूल में एक छत चूती थी, जिसकी मरम्मत की बात की गई तो पूरे स्कूल की छतों कॉ बदलने का टेण्डर पास करा दिया गया और सभी छतों का पुनर्निर्माण कर दिया गया। नतीजन अब चार छतें चूती हैं। निर्माण व मरम्मत कार्य में सरकारी अमलों में व्याप्त भ्रष्टाचार से सभी वाकिफ हैं।

छात्र शिक्षक अनुपात में कोई बदलाव नहीं है। जैसा कि ऊपर डेस्क के संदर्भ में लिखा गया है, वही बात इस अनुपात पर भी लागू होती है। आदर्श रूप से एक शिक्षक के पास 20 से 35 छात्र होने चाहिये, पर अमूमन 60 से 100 छात्र होतें हैं, और इस दिशा में प्रयास के कोई आसार नहीं दिखते। इतने छात्रों को कैसे पढ़ाया जाएगा, कैसे वे शिक्षक की बात सुनेंगे इस ओर कोई सोच सरकार की नजर नहीं आती। कई विषयों के शिक्षक हैं ही नहीं, कुछ जगह एक ही शिक्षक को उनका विषय दो विद्यालयों में पढ़ाने की जिम्मेदारी दे दी जाती है। इसके असर की व्याख्याअ की आवश्यकता नहीं है।

सभी स्कूलों में 8वीं कक्षा तक मिड डे मील दिया जाता है। इसके ठेके अनेक एन॰जी॰ओ॰ को दिये गये हैं। इसकी गुणवत्ता पर कई बात प्रश्नचिन्ह लग चुका है। अनेक बार बच्चे बीमार भी हुए हैं। पर इसमें कोई सुधार नहीं हुआ। इसका असली समाधान स्कूल के निकटवर्ती इलाकों की महिलायों खाना पकाने का काम दिया जाए व प्राध्यापक सहित सभी शिक्षक छात्रों के साथ भोजन करें तो ही हो सकता है। इससे स्थानीय महिलाओं को रोजगार भी मिलेगा व सुधार भी होगा।

शिक्षा अधिकार अधिनियम के तहत एक स्कूल मैनेजमेण्ट कमेटी (एस॰एम॰सी॰) बनाना जरूरी है, जिसमें स्थानीय विधायक भी होगा व स्थानीय लोग चुने जायेंगे। पर इसमें विधायक के स्थानीय आदमी होते हैं जो इलाके के दबंग हैं। वे बिना स्कूल व शिक्षा की समस्याओं को जाने समझे शिक्षकों व छात्रों पर दादागिरि करते हैं।

उपरोक्त रिपोर्ट से हम देख सकते हैं कि पूरे स्कूल व्यवस्था एक प्रकार से तबाह ही कर दिया गया है| दिल्ली के आम बच्चे, जो मजदूर वर्ग, निम्न वर्ग या निम्न मध्यम वर्ग से आते हैं, उनके लिये शिक्षा और बेकार हो गई है। पहले से ही अच्छी शिक्षा पर उच्च वर्ग का आधिपत्य था जो अपने बच्चों को मंहगे प्राइवेट स्कूलों में भेज सकते हैं, और बाकी बच्चों के लिये सरकारी स्कूल थे, जहां योग्य शिक्षक होने के बावजूद भी सुविधायों व उचित माहौल के अभाव में शिक्षा का स्तर ठीक नहीं होगा था व यहां से पढ़ कर निकले बच्चे प्राइवेट स्कूल से निकले बच्चों के समक्ष पीछे रह जाते थे। पर अब सरकारी स्कूल के भीतर ही भेदभाव को बढ़ावा दिया जा रहा है। जो बच्चे निष्ठा में हैं उन्हें कमतर पढ़ाया जाता है और हल्की परीक्षा ली जाती है। उनका आधार ही कमजोर बना दिया जाता है। अर्थात, अब वे बच्चे निष्ठा में ही रहने को या दूसरे शब्दों में पिछड़े ही रहने को अभिशप्त हैं। आगे जब वे उच्च कक्षाओं में जायेंगे तो जाहिर है कि वे प्रतिभा वाले बच्चों के साथ मुकाबला नहीं कर पायेंगे और आगे बढ़ ही नहीं पायेंगे। 9वीं के बाद और फिर 10वीं में जब बोर्ड की परीक्षा होगी, तब इनके प्रदशन का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। इस प्रकार एक ही जगह के बच्चों में अच्छे व खराब में बटवारां कर दिया गया है, और केवल कुछ का ही आगे जाने का रास्ता प्रशस्त किया जा रहा है।

इसी कड़ी में दिल्ली में 5 ‘स्कूल्स ऑफ एक्सीलेंस’ बनाये गये हैं जिनमें प्रति कक्षा में केवल दो सेक्शन होंगे। आम तौर पर 8 से 10 सेक्शन तक होते हैं। कक्षा एक से आठ तक 25 बच्चे व 9 व 11 में 40 बच्चे प्रति सेक्शन होंगे। इनका दाखिला प्रवेश परीक्षा से होगा व ‘नेबरहूड पोलिसी’ का पालन नहीं होगा। यानि इलाके के बाहर के लोग भी इसमें आ सकते हैं। ये बच्चों में एक नये प्रकार का भेद भाव पैदा करेगा। दिल्ली के गिने चुने बच्चे अच्छी शिक्षा के हकदार होगें। यानि कुछ ही बच्चों को आगे बढ़ने का मौका (दिल्ली में 9वीं के बाद केवल 400 बच्चे)। असमान शिक्षा नीति में एक स्तरीकरण और बढ़ाया जा रहा है वो भी सरकारी स्तर पर नीतिगत रूप से।

दूसरे बच्चों के एक बड़े भाग को स्कूल व्यवस्था से ही बाहर कर दिया गया है। जो बच्चे कक्षा 9 में एक बार फेल हो गये हैं (अनेक जगह जैसे मदनपुर खादर, सरिता विहार, जैतपुर आदि ये संख्या 2017 में बहुमत बच्चों की थी), वे ‘दिल्ली पत्राचार’ या एन॰आई॰ओ॰एस॰ में जाने को मजबूर हैं। बच्चों के भविष्य की कीमत पर आप सरकार के तथाकथित शिक्षा सुधार हो रहें हैं। ये कदम केवल बच्चों की कुर्बानी देकर कृत्रिम तरीके से परिणाम सुधार कर अपनी वाहवाही करने जैसा है।

वास्तविक शिक्षा सुधार जिसमें सभी स्कूलों में पर्याप्त संख्या में शिक्षक हों ताकि शिक्षक छात्र अनुपात 1: 35 से अधिक नहीं होना चाहिये, सभी विषयों के शिक्षक सभी स्कूलों में उप्लब्ध हों, जैसी समस्याओं पर कुछ ध्यान ही नहीं है। न ही अन्य बुनियादी सुविधाओं पर जैसे कि डेस्क की कमी, स्वच्छ शौचालयों की कमी, टीचींग एड्स का अभाव, प्रयोगशालाओं का अभाव व उनमें पर्याप्त उपकरणों का न होना, सुसज्जित कंप्यूटर लैब का अभाव आदि। न ही नये प्रशिक्षित पर्मानेण्ट शिक्षकों की भर्ती पर ध्यान है। न ही इस ओर कोई चिंतन किया गया है कि सभी बच्चों के स्तर को कैसे सुधारा जाये या कुल शिक्षा स्तर को कैसे सुधारा जाये।

कुल मिला कर कहा जा सकता है कि आप सरकार का यह प्रचार केवल अपनी पीठ ठोकने के बराबर है। केवल कुछ टीमटाम की गई है, कुछ सुंदर नई इमारतें बनी हैं, परिणाम सुधार दिखाने हेतु छात्रों की छंटनी कर बहुतों को तो स्कूल सिस्टम से ही बाहर कर दिया गया है। छात्रों में परस्पर भेदभाव बढ़ाया गया है और किसी भी बुनियादी प्रश्न को हल करने की न कोशिश की गई है और न ही भविष्य में उस और कुछ प्रयास नजर आतें हैं। जंग लगी इमारत पर नया पेंट कर उसे चमकाया गया है और जगह तो और जीर्ण करा जा रहा है जैसे कि भेद भाव बढ़ाना। इस समस्या का हल छात्रों व मां बाप, अभिवावकों के साथ लेकर एक आंदोलन से ही निकल सकता है।

(प्रतिरोध का स्वर)