आरक्षण केवल प्रतिनिधित्व नहीं है।इसके साथ यह भी कि प्रतिनिधित्व केवल सरकारी नौकरियों में संख्या नहीं है। प्रतिनिधित्व विषय वस्तु ( कंटेंट) भी है। लेकिन हम सामाजिक न्याय के बैनर के तले केवल आरक्षण की बात करते हैं और वह आरक्षण भी शिक्षण संस्थानों में आरक्षण और शिक्षण संस्थानों से प्राप्त डिग्रियों के आधार पर नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था के एक संदर्भ के रुप में आता है। इस तरह बहुजन समाज की बौद्धिक ऊर्जा का इस्तेमाल बेहद सीमित दायरे में सिमटकर रह जाता है।

इस प्रसंग में यह समझना जरूरी हो जाता है कि क्या केवल आरक्षण के लिए संघर्ष से विषमता मूलक स्थितियों व संस्थानों को खत्म किया जा सकता हैं? डा. भीम राव अम्बेडकर ने कहा था कि एक ऐसी स्थिति हैं जहां आर्थिक और सामाजिक स्तर पर गहरी खाई मौजूद है। अगर उसे नहीं पाटा गया तो इस लोकतंत्र का वजूद ही खतरे में पड़ जाएगा।

1991 में जब केन्द्र सरकार ने सरकारी नौकरियों में पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की व्यवस्था लागू करने का फैसला किया तो एक तरफ भारतीय जनता पार्टी के नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने राम रथयात्रा निकालने का ऐलान किया। कैसे सामाजिक न्याय के संदर्भ से जुड़ा आरक्षण का विरोध राम मंदिर और हिन्दुत्व से जोड़ा जाता है। साम्प्रदायिकता का नारा सामाजिक न्याय के उद्देश्यों को हासिल करने में सबसे बड़ी बाधा साबित हुई है।देश में बहुसंख्यक यानी हिन्दुत्व की साम्प्रदायिकता समानता की दिशा में लिए जाने वाले किसी भी फैसले के विरोध में खड़ी होती है। एक छोर पर कृषि प्रधान देश में भूमि सुधार का विरोध उदाहऱण हैं तो दूसरे छोर पर स्त्रियों के सामान अधिकारों का विरोध दूसरा उदाहरण है। इन्हें सामाजिक और आर्थिक असमानता को जारी रखने के दो उदाहरणों के रुप में देखा जाना चाहिए।

लेकिन तब आरक्षण के फैसले के साथ एक और प्रक्रिया शुरु की गई। वह प्रकिया निजीकरण की है। निजीकरण का अर्थ सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा संचालित क्षेत्रों व विषयों में निजीकरण की इजाजत। इन क्षेत्रों व विषयों में शिक्षा और रोजगार देने वाले दूसरे अन्य क्षेत्र जैसे बैंकिग, बीमा, आदि । निजी क्षेत्रों के विश्वविद्यालयों व दूसरे शिक्षण संस्थानों का विस्तार और सरकारी शिक्षण संस्थानों में कई स्तरों पर निजी कंपनियों व समूहों की दखलंदाजी का विस्तार हुआ। जाहिर है कि इस निजीकरण में सरकारी संस्थानों का खुलना और उनका तेज गति से विस्तार को विराम देने का फैसला भी उसमें शामिल है। साम्प्रदायिकता और निजीकरण के रिश्ते से यहां सामाजिक और आर्थिक स्तर पर असमानता बनाए रखने वाली एक व्यवस्था के संबंधों का विश्लेषण कर सकते हैं।

सामाजिक न्याय की विचारधारा के लिए एक नजरिया बनाने के लिए इस बात पर गौर करना चाहिए। जब निजी क्षेत्र का तेजी से विस्तार होने लगा तो यह मांग की जाने लगी की निजी क्षेत्र में भी आरक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए। यह उन लोगों ने खासतौर से मांग की जो कि निजीकरण के भी पक्षधर थे और बहुजनों के भी शुभचिंतक होने का दावा करते रहे हैं। दरअसल यह निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग निजी क्षेत्र को एक सामाजिक आधार मुहैया कराने की विचारधारा है। ताकि निजी क्षेत्र के विस्तार का विरोध वह शक्तियां नहीं करें जो कि बहुजन हैं और आरक्षण की श्रेणी में आती है। यही बात साम्प्रदायिक राजनीति के संदर्भ में भी देखें। वह भी अपने लिए धर्म के आधार पर अपना सामाजिक आधार बनाए रखने की कोशिश करता है और वह रथयात्रा से आगे निकलकर सोशल इंजीनियरिंग करने का फैसला किया। निजीकरण और सोशल इंजीनियरिंग दो क्षेत्रों में एक नतीजे पर पहुंचने वाले सुत्र हैं। साम्प्रदायिक राजनीति निजीकरण को हर स्तर पर तेज गति से विस्तार करने के पक्ष में रही है ।यानी सामाजिक न्याय की निजीकरण की पक्षधरता और हिंदूत्व की निजीकरण की पक्षधरता एक जगह आकर मिल जाती है।

इस तरह केवल आरक्षण तक सामाजिक न्याय को सीमित कर देने से उन तमाम स्थितियों को समझने में बाधा खड़ी करता है जो कि अंतत: आरक्षण की व्यवस्था को ही समाप्त करता नजर आता है।

इसे इस मिथक के अर्थ में भी समझा जा सकता है कि द्रोणाचार्य ने एकलब्य का अंगुठा गुरु दक्षिणा में मांग लिया क्योंकि उसने उस व्यवस्था में शिक्षा ग्रहण कर ली जिस व्यवस्था में एक अछूत यानी शुद्र को शस्त्र चलाने की शिक्षा प्राप्त करना गैरकानूनी थी। अंगुठा दक्षिण में मांग लेने का अर्थ यह हुआ कि अछूत शिक्षा हासिल कर भी उसका उपयोग नहीं कर सकता है और दूसरे कि अंगुठा मांग लेने से अछूत शिक्षा ग्रहण करने की हिम्मत नहीं करेंगे। यह आज का द्रोणाचार्य कौन हैं और अंगुठे कितने रुपों में तैयार कर लिए गए हैं? इसे समझना जरुरी हो जाता है। क्या निजीकरण सामूहिक अंगुठा काटने की प्रक्रिया नहीं लगती है। बहुजन नजरिया वह है कि समय के अनुसार किसी स्थिति या किसी प्रावधान की व्याख्या कैसे करता है ।यह व्याख्या नहीं करेंगे कि द्रोणाचार्य की मानसिकता नये रुपों में बिना मांगे ही उस अंगुठे से वंचित कर सकती है जो अंगुठा असमानता को खत्म करने में सहायक हो सकती है। बाल गंगाधर तिलक स्त्रियों के लिए खुलने वाले स्कूलों का विरोध कर रहे थे और द्रोणाचार्य ने अंगुठा मांग लिया और 1991 के बाद सरकारी शिक्षण संस्थानों का बदहाल होते जाना और निजी विश्वविद्यालयों से बहुजनों के बाहर रहने के हालात में बुनियादी तौर पर क्या फर्क है ?

वर्चस्व की विचारधारा सामाजिक न्याय की विचारधारा में तब्दील होने का भ्रम भर कर सकती है लेकिन वह समानता की व्यवस्था की पक्षधर हो नहीं सकती ।वर्चस्व की व्यवस्था समय -समय पर अपने को पुनर्गठित करती है ताकि वह समय की कसौटी पर खरी उतर सकें। यह हिन्दुत्व के नारे की आड़ में असमानता के ढांचे पर निर्मित सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था को पुनर्गठित करने की प्रक्रिया का दौर है।

आरक्षण का मसला सामाजिक न्याय से जुड़ा है तो इसका अर्थ है कि वह उन तमाम संघर्षों से जुड़ा है जो कि सामाजिक न्याय की व्यवस्था को निर्मित करने से जुड़े हैं। आरक्षण के संघर्ष का सामाजिक आधार क्या होगा? उदाहरण के लिए किसान को क्यों आरक्षण के पक्ष में क्यों भाग लेना चाहिए? एक मजदूर को क्यों इसके पक्ष में लड़ना चाहिए? मछुआरों को क्यों भाग लेना चाहिए ? आरक्षण का मसला तो केवल शिक्षित होने और शिक्षित समूह से जुड़ा है। आरक्षण शिक्षित वर्ग का सामाजिक न्याय है तो आदिवासी का सामाजिक न्याय अपनी जमीन और उसपर अपनी आर्थिक निर्भरता का विकास से जुड़ा है। किसी भी संघर्ष की यह मूल कार्य नीति होती है कि वह एक दूसरे संघर्ष से जुड़कर अपने संघर्ष के लिए उर्जा और ताकत ग्रहण करें। आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था होने के बावजूद आखिर क्यों शिक्षण संस्थानों व रोजगार में आरक्षण लागू नहीं हो पाता है और वह आरक्षण का संघर्ष लगातार कमजोर होने का ही यह लक्षण हैं कि आरक्षण की व्यवस्था के साथ संस्थान मनमानापन करते हैं। न्यायालय मनमानापन करते है और मीडिया पर वर्चस्व रखने वाली आर्थिक सामाजिक शक्तियां भी हमले करती है। गैर आरक्षित सीटों को ही एक तरह आरक्षण की श्रेणी में तब्दील कर दिया है।