सुबह से लगभग 50 लोगों के साथ मेरी बातचीत हुई और उनमें से 40 लोगों का मानना था कि ये बेहद ही ख़राब नतीजे हैं. जिन लोगों से मेरी बातचीत हुई वे राजनेता नहीं थे, बल्कि उनमें चायवाले, मेरी नौकरानी, रिक्शाचालक, आम सजग नागरिक थे.

मैंने उनलोगों से पूछा कि अगर आप और छात्र एवं मजदूर सब इसके खिलाफ थे, तो यह हुआ कैसे? उन्होंने बस इतना कहा, विपक्ष ने बिना दिमाग लगाये काम किया. उन्होंने एकजुट होकर रणनीति नहीं बनायी. सत्तापक्ष को मीडिया का साथ मिला और उसने इसका चतुराई से इस्तेमाल किया और जीता.

राज्य दर राज्य, जहां मैं पहले गयी थी, जो लोग चाहते थे कि भाजपा हार जाये और विभिन्न विपक्षी दल जीत जायें, वे पराजित महसूस कर रहे हैं. वे पूछते रहे कि गठबंधन क्यों नहीं बन रहा है और इन्हीं परिस्थितियों में एक वास्तविक लड़ाई लड़ी गई. संदेह और सवाल अंदर ही अंदर घर कर गये.

भाजपा ने अपनी रणनीति अच्छी तरह बनायी और उसपर अमल किया. लोकतंत्र में ऐसी चुनावी राजनीति जरुरी है. लेकिन हमारा संसदीय लोकतंत्र धन और बाहुबल से प्रभावित हुआ. भाजपा ने इस प्रक्रिया को और आगे बढ़ाया और उसने चुनावों का सफलतापूर्वक कारपोरेटीकरण कर दिया. चुनावों का यह कारपोरेटीकरण अपने पूरे शवाब पर था. भाजपा को पता था कि अभी नहीं, तो कभी नहीं. आरएसएस जानता था कि अभी नहीं, तो कभी नहीं.

यह महज साम, दंड, भेद नहीं था, बल्कि पूरा का पूरा चुनावों का कारपोरेटीकरण था. इसका गहराई से विश्लेषण करने की जरुरत है.

बिहार का उदहारण लीजिए. एक पार्टी के पास 22 सीटें थीं और उसने 5 सीटें अपने एक सहयोगी दल को दे दी. विपक्षी दलों को इसे समझने की जरुरत है. मध्य प्रदेश और राजस्थान में जहां जीत – हार का अंतर बहुत ही कम था, वहां उन्होंने दूसरे किस्म के गठबंधनों का सहारा लिया. उत्तर प्रदेश में, जहां भाजपा के पास 73 सीटें थीं, विपक्ष द्वारा सही तरीके से गठबंधन न बना पाना एक नौसिखिया व्यवहार था.

जबकि बिहार में, सरकार ने लालू को जेल में बंद रखा. उसे यह मालूम था कि वहां तेजस्वी के लिए गठबंधन को आगे ले जाना मुश्किल होगा. तमिलनाडु में यह समझने के बाद कि यहां नहीं जीत सकते, उन्होंने वहां प्रयास करना छोड़ दिया. उन्होंने उन राज्यों में अपना ध्यान केन्द्रित किया जहां उन्हें संभावनाएं दिखाई दीं. देश के पैमाने पर उन्होंने अपने सहयोगियों की संख्या बढ़ाकर 36 कर लीं और जीते.

भारत में एक जो सबसे खतरनाक बात हुई है, वो है – संसदीय लोकतंत्र बनाम राष्ट्रपति प्रणाली की तर्ज पर चुनाव. इसकी शुरुआत उन्होंने 2014 में की और इस बार इसे अपनी परिणति पर पहुंचा दिया.

संसदीय लोकतंत्र में राजनीतिक दृष्टिकोणों, राजनीतिक पार्टियों, संस्कृतियों, भाषाओँ, क्षेत्रों की विवधता होती है और यह संघीय ढांचे में प्रतिबिंबित होती है.

इसे उन्होंने सावधानीपूर्वक एवं सजगता के साथ कारपोरेट जगत के अपने मित्रों के माध्यम से ध्वस्त किया और इसके पक्ष में समर्थन जुटाने के लिए इलेक्ट्रोनिक मीडिया का इस्तेमाल किया.

जर्मनी और इटली के उदाहरणों के बावजूद, हमारे देश में ऐसे कई लोग हैं जिन्हें देश में जो चल रहा था उसे महसूस करना चाहिए था. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. उन्हें इस बात का एहसास ही नहीं था कि अगर आरएसएस को जारी रहने की अनुमति दी जाती है तो हिंदुस्तान के विशाल लोकतंत्र और इसकी विशाल सभ्यता का क्या होगा. उन्होंने यह नहीं देखा कि यहां क्या हो रहा है. न केवल वामपंथियों को बल्कि आरएसएस और कॉरपोरेट सत्ता का विरोध करने वाले सभी लोगों को इस बारे में गंभीर आत्ममंथन की जरूरत है.

मैं तो यह भी कहना चाहूंगी कि सब कुछ ख़त्म नहीं हुआ है. मोदी के बाद योगी, लोग इसे पचा नहीं पायेंगे. लेकिन अब तो योगी के बाद प्रज्ञा ठाकुर !

यह भारत में फासीवाद के मजबूत होने का प्रतीक है.

एक बहस शुरू हुई कि ईवीएम को भूल जाओ, पेपर बैलट की ओर वापस लौट आओ. वह बहस ख़त्म हुई, पुनर्जीवित हुई, फिर से ख़त्म हुई और इसी तरह चलता रहा. जिस बहस को हमें जारी रखने की आवश्यकता है, वो यह है कि हम क्या सुरक्षा उपाय चाहते हैं? हमारे लोकतंत्र को सुरक्षित रखने के लिए हमें किन चुनावी सुधारों की आवश्यकता है? चुनावों का कारपोरेटीकरण हो गया है. इससे संसदीय राजनीति मुश्किल हो गई है. चुनाव सुधार एक ऐसी चीज है, जिसके बारे में हमें सोचने की जरूरत है.

चुनाव आयोग को लगभग बंधक बनाकर रखा गया. शुरुआत में यह महसूस किया गया कि चुनाव की तारीखों या चुनाव किस तरह से होने चाहिए, का फैसला चुनाव आयोग ने नहीं किया है. ये अंतिम दो दौर थे जिसमें भाजपा के सबसे अच्छे नतीजे मिलते नजर आये. वे अंत में एक मोड़ चाहते थे, जिसे सुनिश्चित करने में वे सफल रहे. क्या चुनाव आयोग का भी चुनाव होना चाहिए? इतने बड़े संसदीय लोकतंत्र में यह कैसे प्रभावी ढंग से काम कर सकता है?

हमारे लोकतंत्र के काम का गंभीरता से विश्लेषण करने वाले लोगों के समक्ष विचार का यह एक अहम मुद्दा है.

यह सिर्फ सीबीआई बनाम सीबीआई नहीं, बल्कि आरबीआई बनाम आरबीआई और ईसीआई बनाम ईसीआई भी था. इन संस्थागत संघर्षों को देखने की जरूरत है कि आखिरकार ये क्या हैं? राजनीतिक दल इसके महत्व को समझने में नाकाम रहे. और जिन लोगों ने इसे समझा, उन्हें इन मुद्दों को सामने लाने के लिए मीडिया या राजनीतिक गठजोड़ में जगह ही नहीं दी गई.

वामपंथियों को हाशिए पर धकेल दिया गया और उन्हें अलग-थलग कर दिया गया. और वे इन बिंदुओं को उठाने में असमर्थ रहे.

पार्टियों को एक और बात समझने की जरूरत होगी. मुझे सौ फीसदी से अधिक यकीन है कि भाजपा को वर्तमान की तुलना में कम सीटें मिलेंगी और शाम तक उनका मत प्रतिशत (वर्तमान में लगभग 60%) नीचे आ जाएगा.

लेकिन हर चुनाव में, चुनाव से एक रात पहले सारे ढुलमुल वोट भाजपा के पाले में चले गये. क्यों भला?

मजदूरों पर हमला किया जायेगा. किसानों की जमीन खुलेआम जब्त की जायेगी., मीडिया पर और स्वतंत्र आवाजों पर दबाव होगा. जो लोग विरोध कर रहे हैं, वे अपना संघर्ष जारी रखेंगे चाहे वे कितना भी जेलों में डालें.

संसदीय लोकतंत्र को बचाने के लिए और अगले चुनावों में उन्हें पराजित करने के लिए बदले हुए कारपोरेटीकृत माहौल में चुनाव की कार्यप्रणाली को अच्छी तरह समझने की जरूरत है.

यह मैंने जमीनी स्तर पर देखा है. उदाहरण के लिए, बेगूसराय के चुनाव में बूथ और घर के स्तर पर भाजपा और आरएसएस कैसे कामयाब रहे. कन्हैया के लिए नियत बटन को अंतिम समय में बदल दिया गया. अंतिम क्षण में कई बदलाव किये गये. यह वही है जो व्यावहारिक स्तर पर होता है और सिर्फ बेगूसराय में ही नहीं. क्या वज्रगृहों (स्ट्रांग रूम) की सही तरीके से सुरक्षा की गयी? क्या चुनाव सरकार से स्वतंत्र होकर संचालित किये जाते हैं?

जहां और जब कभी भी संभव हुआ हमने इन बातों को उठाया और उनपर चिंता जाहिर की. लेकिन हमने खुद देखा और चुनाव आयोग के उन अधिकारियों, जो विपक्ष के प्रति सहानुभूति रखते थे, से इस बारे में से सुना कि मतदान के दौरान बूथ स्तर पर मशीनों में कैसे हेरफेर किया जा सकता है. इसका उद्देश्य यह रहता है कि मतदाताओं को कैसे झांसा दिया जाये. और बिना उच्च तकनीक के प्रयासों के वे इसमें सफल रहे. क्या लोगों को ईवीएम का सही तरीके से इस्तेमाल करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है? मशीनों का उपयोग पर्याप्त रूप से सरल है? इसके लिए गहरी छानबीन और विश्लेषण की जरूरत है.

गठबंधनों की रणनीति, चुनावों में जीतने की रणनीति, और उन संस्थानों, जिनका स्वरुप बिगड़ गया है या जो टूट गये हैं, की पुनर्बहाली को केंद्र में रखकर फासीवाद के खिलाफ संघर्ष करना होगा.

मैं आशावादी हूं, लेकिन मुझे लगता है कि परिस्थितियां विकट हैं.

(अमरजीत कौर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की वरिष्ठ नेता हैं)