एक बेहतर भारत के निर्माण के लिए सोचने के मामले में क्या हमारी भविष्य-दृष्टि का लोप हो गया है? क्या हमारी वर्तमान और भावी जरूरतों की पूर्ति के मार्ग हमें अपने वर्तमान परिदृश्य और भावी संभावनाओं में मिलने बंद हो गए हैं? क्या अपनी विद्दमान समस्याओं से निजात पाने की दृष्टि से हमारी प्रस्तुत जमीन बंजर हो गई है? क्या हम अपने वर्तमान को ठीक करने और भविष्य को संवारने के लिए अतीत का सचमुच मोहताज हो गए हैं? आदि-आदि.

उक्त तमाम तरह के सवाल उस पृष्ठभूमि से उठ खड़े हो रहें हैं, जिसे इन दिनों हमारे कुछ स्वनामधन्य विचारक बड़ी शिद्दत से तैयार करने में लगे हुए हैं. उल्लेखनीय है कि हमारे बीच एक महान विचारक श्री दीनानाथ बत्रा जी अवतरित हुए , जिन्हें आज के हर मर्ज का इलाज अतीत में दिखाई पड़ता है. आज की तमाम भौतिक-वैचारिक उपलब्धियों का श्रेय वे अदृश्य अतीत को देना चाहते हैं. उन्हें आधुनिक दूरदर्शन महाभारत के संजय की देन प्रतीत होता है. वे मानते हैं कि वायुयान की परिकल्पना सर्वप्रथम हमारे पूर्वजों ने ‘पुष्पक विमान’ के रुप में की थी. इसी प्रकार वे रेडियो के आविष्कार को शायद प्राचीन आकाशवाणी-विधान में ढूंढना चाहें. श्री बत्राजी इस बात पर काफी जोर देते रहें हैं कि चूँकि किसी समय हमारा भारत अखंड था, अतः हमें भारत के वर्तमान नक़्शे में बर्मा, मलाया, जावा, सुमात्रा, श्रीलंका, पाकिस्तान, अफगानिस्तान आदि को भी शामिल किया जाना चाहिए. बत्राजी ने ऐसी ही अनेक अजीबोगरीब बातों को उन नौ पुस्तकों में वर्णित किया है, जो सम्प्रति गुजरात के विद्यालयों में सहायक पाठ्यपुस्तक के रूप में पढ़ाई जा रही हैं. इस विचार श्रृंखला में वे अकेले नहीं हैं, बल्कि देश के अनेक अन्य विद्वान ऐसे हैं जो बत्राजी थी सूची में ऐसी ही कई अन्य बातों को जोड़ना चाहते हैं. उनमें सबसे ताजा नाम है एक वर्तमान न्यायाधीश न्यायमूर्ति ए. आर. दवे का, जो यह मानते हैं कि ‘भारत को अपनी प्राचीन परम्पराओं की ओर लौटना चाहिए और महाभारत व भगवद्गीता जैसे शास्त्रों को बचपन से ही बच्चों को पढाया जाना चाहिए.’ हद तो तब हो जाती है जब वह कहते हैं ‘......... यदि मैं भारत का तानाशाह होता तो मैंने पहली ही कक्षा से भगवद्गीता और महाभारत को शुरू करवा दिया होता.’ (देखें, जनसत्ता; दिनांक- 3-8-2014; मुखपृष्ठ) परम्परा प्रेम कोई बुरी चीज नहीं है, परन्तु परम्परा का अंधानुकरण कभी भी श्रेयस्कर नहीं हो सकता. परम्परा के अन्धभक्त शायद ‘ओल्ड इज गोल्ड’ में विश्वास करते हैं तथा वर्तमान की तमाम उपलब्धियों को कूड़ा समझते हैं. जबकि वास्तविकता यह हैं कि न तो सभी पुरानी चीजें अच्छी होती हैं न सभी नई चीजें खराब. आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने अतीत और वर्तमान के तत्वों का चयन गुणदोष के आधार पर करते हुए उनका उपयोग अपने देश और समाज के बेहतर भविष्य के लिए करें.

बत्राजी जैसे लोगों का यह अभियान उस सोच का नतीजा है, जो गरीबी, भुखमरी, बेकारी, भ्रष्टाचार और महंगाई जैसी वास्तविक समस्याओं के वजूद को या तो सिरे से नकार देते हैं अथवा उनके समाधान की ठोस और व्यावहारिक कोशिशों को कुंद कर समाज को काल्पनिक गौरवमय अतीत के महिमामंडन में लगा देना चाहते हैं. स्पष्ट है, ऐसा करने से वे न केवल अपने दायित्वों से पूरी तरह बच जाएंगे, बल्कि आम जनजीवन की दुर्दशा के लिए जिम्मेवार तबकों- पूंजीपतियों, व्यापारियों और उद्योगपतियों का भी बचाव कर पाएंगे. अतः उनका यह अतीत-प्रेम भावात्मक प्रवाह मात्र नहीं बल्कि आमलोगों के जीवन को और भी नारकीय बना डालने और समृद्ध तबकों के हितों की रक्षा की एक सोची-समझी साजिश है.

जहांतक एक सुखी, समृद्ध और आधुनिक भारत के निर्माण का सवाल है, इसके लिए हमें अतीत-प्रेम के शतुर्मुर्गी पलायन के स्थान पर विद्दमान चुनौतियों, समस्याओं और आवश्यकताओं को स्वीकार करना होगा और उनसे निजात पाने के लिए ठोस यथार्थवादी रास्ता अख्तियार करना होगा. इन पंक्तियों के लेखक की यह दृढ़ मान्यता है कि जो समाज अपने वर्तमान की उपेक्षा कर अतीत की ओर भागता है, उसका कोई भविष्य नहीं होता. एक स्वर्णिम भविष्य के निर्माण के लिए हमें कठोर वर्तमान से लोहा लेना ही होगा. अतीत के जंग लगे और अपनी प्रासंगिकता खो चुके हथियारों के बल पर कदापि वर्तमान की चुनौतियों का सामना नहीं किया जा सकता. हिंदी की मूर्धन्य कवयित्री श्रीमती महादेवी वर्मा के शब्दों में:

“प्रकृति के यौवन का श्रृंगार,
करेंगे कभी न बासी फूल;
मिलेंगे मिट्टी में अति शीघ्र
आह, आतुर है उनकी धूल”

अतएव जो कोई भी समय के पहिया को पीछे की ओर घुमाकर आगे बढ़ने की बात करता है, वह या तो स्वयं भ्रम का शिकार है अथवा वह समाज को दिग्भ्रमित करना चाहता है. श्री बत्रा जी जैसे महापुरुषों के बयानों को हमें भी इसी परिप्रेक्ष्य में लेना होगा. आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है, हमारा प्रबुद्ध भारत इन बातों में आनेवाला नहीं है.