भारत की आज़ादी अगर आज भी इसके राष्ट्रीय जीवन में पूरी तरह चरितार्थ नहीं हो सकी है, तो इसके पीछे वैसी बहुत सारी कमियां हैं, जिन्हें हम अभी तक दूर नहीं कर पाए हैं. अपनी लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में आमजन की वास्तविक भागीदारी और देश की भौतिक प्रगति में उनकी हिस्सेदारी जैसे सवालों में राष्ट्रभाषा का लटका हुआ मामला भी एक है. संविधान के तहत 1950 में ही देवनागरी लिपि में लिखित हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित कर दिए जाने के बावजूद अभीतक उसका व्यावहारिक रूप न ले पाना महज सरकारी अनिर्णय या शिथिलता का मामला नहीं है. अपितु अंग्रेजी भाषा के माध्यम से सत्ता पर वर्चस्व रखनेवाले देश के प्रभु-वर्ग की एक सोची-समझी कोशिश और साजिश का नतीजा है. देश की नाममात्र की आबादी के आधिपत्य वाली अंग्रेजी भाषा हिंदी सहित भारत की सभी भाषाओँ को अपने आधिपत्य में ले चुकी है. आज अंग्रेजी में दखल रखनेवाले प्रभुत्वशाली लोग, इस भाषा को श्रेष्ठता और योग्यता का पर्याय मान बैठे हैं और वे देशी भाषा को दोयम दर्जे पर रखते हैं.

अखिल भारतीय सिविल सेवाएं देश की सर्वाधिक प्रतिष्ठित सेवाएं हैं. वर्षों से इन सेवाओं में अंगद की तरह पांव जमाए लोगों ने इसे भारतीय भाषाओं के जानकारों के लिए अघोषित तौर पर ‘प्रवेश निषिद्ध’ क्षेत्र बना रखा है. संघ लोकसेवा आयोग की भर्ती-परीक्षाओं के सन्दर्भ में विवादों के पीछे ऐसे ही निहित स्वार्थवाले लोगों का हाथ रहा है, जो नहीं चाहते कि देश की इस सर्वाधिक प्रतिष्ठित सेवा का देशीकरण हो और इसका द्वार उन करोड़ों भारतीय यवाओं के लिए खुले जो हिंदी अथवा अन्य भारतीय भाषाओँ के माध्यम से इसमें प्रवेश कर देश की सेवा करना चाहते हैं.

भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक बहुलताओं और जटिलताओं की तरह इसके लिए भाषा का सवाल भी सरल नहीं है. तथापि व्यापक सार्वजनिक उपयोग की दृष्टि से भारत को अपनी विभिन्न भाषाओं में से किसी एक का चयन करना ही होगा, जो अपनी बोधगम्यता एवं ग्राह्यता के कारण व्यापक रूप से स्वीकार्य हो. इस बात की ओर स्वतन्त्रता-संग्राम के दिनों में ही हमारे राष्ट्रनायकों का ध्यान गया था और काफी विचार-मंथन के उपरान्त उन्होंने पाया कि देवनागरी लिपि में लिखित हिंदी ही भारत की संपर्क भाषा हो सकती है. इस प्रसंग में विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि हिंदी को यह महत्व और स्थान दिए जाने के पक्षधर मुख्य रूप से वे व्यक्ति थे, जो स्वयं अहिन्दीभाषी थे, यथा महात्मा गांधी (गुजराती), विनोबा भावे (मराठी), सुनीति कुमार चटर्जी (बंगला) इत्यादि.

अब प्रश्न यह है कि हिंदी में वे कौन-सी खूबियां और सहूलियते हैं, जिनके चलते उक्त महापुरुषों को इसमें भारत की राष्ट्रभाषा बनने की योग्यता दिखाई पड़ी. उल्लेखनीय है कि राष्ट्रभाषा के रूप में जिस हिंदी की वकालत की गई वह देश की भौगोलिक-सांस्कृतिक विविधता के बरक्स एक सर्वग्राही मिजाजवाली भाषा थी. देश की आम जनता को आसानी से समझ में आ सकनेवाली शब्दावली से लैस हिंदी में अन्य भाषाओं के शब्दों को समाहित कर लेने की असाधारण क्षमता मानी जाती है. इसके लिए इसके नियंताओं-वैयाकरणों- ने शुरू से ही प्रावधान कर रखे हैं. शब्द-भंडारण के लिए इसमें चार दरवाजे रखे गए हैं- तत्सम, तद्भव, देशज और विदेशज. इसप्रकार, सभी भाषाओं और बोलियों के आम प्रचलित शब्दों को अपनाने के लिए यह भाषा सदैव तैयार दिखनी चाहि . फिर इसकी लिपि देवनागरी है, जिसे दुनिया की सर्वाधिक वैज्ञानिक लिपियों में से एक माना जाता है, जिसे देखते हुए आचार्य विनोबा भावे ने तो यहां तक कह दिया था कि भारत की सभी भाषाओं को देवनागरी लिपि में लिखा जाना चाहिए. वैसे तो कुछ लोगों का तत्समप्रधान शब्दावली वाली परिष्कृत हिंदी पर बड़ा जोर रहा है, परन्तु इसे राष्ट्रभाषा का दर्जा देने के हिमायती विद्वान तद्भव, देशज, उर्दू , अंगरेजी और देश की अन्य भाषाओं-बोलियों के आम प्रचलित शब्दोंवाली सहज-सरल हिंदी की ही वकालत करते हैं. ऐसी हिंदी को महात्मा गांधी ‘हिन्दुस्तानी’ कहना अधिक पसंद करते थे. अब इस भाषा में यदि कोई अंग्रेजी, उर्दू एवं अन्य भाषाओं के वैसे शब्दों को शामिल करना चाहता हो, जिसे आम तौर पर हिंदी में नहीं बोला जाता, तो यह एक प्रकार की ‘अति’ होगी. हमें ऐसी ‘अतियों’ से बचना होगा. तभी इसकी सरलता और बोधगम्यता बनी रह पाएगी.

राष्ट्रीय भाषा के रूप में जब भी हिंदी की बात की जाती है, तो देश की अन्य क्षेत्रीय भाषाओं की ओर से कुछ सवाल खड़े हो जाते हैं. उनकी तरफ से हिंदी के विकास और विस्तार को शंका की दृष्टि से देखा जाता है और उसे अपने लिए खतरा समझा जाता है. मुकाबले के लिए किसी अन्य भारतीय भाषा के बजाय अंग्रेजी को सामने लाया जाता है जो वांछनीय नहीं है. वस्तुतः हिंदी का विकास क्षेत्रीय भाषाओं के विकास का विरोधी नहीं हो सकता. प्रत्येक राज्य को अपनी भाषा के इस्तेमाल की स्वतन्त्रता और व्यापक अथवा राष्ट्रीय संपर्क तथा संवाद के लिए राष्ट्रीय भाषा के उपयोग की सुविधा होनी चाहिए. क्षेत्रीय अथवा राष्ट्रीय किसी भी प्रयोजन के लिए अंग्रेजी भाषा पर निर्भरता श्रेयस्कर नहीं हो सकती.

राजकीय संरक्षण और सहायता की किसी भी भाषा के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका होती है. इतिहास गवाह है कि वैदिक युग में संस्कृत, बौद्धकाल में पाली-प्राकृत, वीरगाथाकाल में अपभ्रंश, मुस्लिम-काल में अरबी-फारसी और उर्दू तथा ब्रिटिशकाल में अंग्रेजी के प्रभुत्व और प्रसार का कारण राज्याश्रय ही रहा है. वस्तुतः जिस भाषा में शासन और रोजगार का काम होता है, लोगों में उसके प्रति स्वाभाविक आकर्षण होता है. वर्तमान समय में भी यदि हमें सब जगह अंग्रेजी का प्रभुत्व, प्रभाव और प्रसार दिखाई पड़ता है, तो इसका सबसे बड़ा कारण इस भाषा का शासन और रोजगार से जुड़ा हुआ होना ही है. आज भी अंग्रेजी हमारे देश की मूल भाषा बनी हुई है और हिंदी सहित तमाम भारतीय भाषाएं अनुवाद की भाषा बनकर रह गई हैं. दूसरे शब्दों में, अंग्रेजी आज भी देश की महारानी और बाकी भाषाएं उसकी नौकरानी बनी हुई हैं. हमें इस स्थिति से उबरना होगा. हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को शासन और रोजगार का आधार बनाकर ही हम इनका वास्तविक गौरव प्रदान कर सकते हैं. आवश्यकता इस बात की है कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को मूलभाषा तथा अंग्रेजी को अनुवाद की भाषा बनाया जाय. यह काम कोई ज्यादा कठिन नहीं है. हमें अपनी भाषाओं को क्षमता पर भरोसा करना होगा, तभी हम अंग्रेजी पर से अपनी निर्भरता कम कर पाएंगे. देश की उन्नति एवं उसके आत्मसम्मान के लिए यह काम बहुत जरूरी है

उदारीकरण और बाजारीकरण के वर्तमान दौर में भाषा का प्रयोग एक हथियार के रूप में किया जाने लगा है. वैश्वीकरण से उपजी आर्थिक जरूरतों के मद्देनजर लोगों में व्यापक सम्पर्कवाली भाषा के प्रति आकर्षण बढ़ा है. यही कारण है कि आज बहुराष्ट्रीय कम्पनियां अपने उत्पादों को बेचने के लिए आधिकाधिक लोकप्रिय भाषाओँ का सहारा ले रही हैं. इस क्रम में भारत की सबसे बड़ी आबादी और समूचे विश्व की खासी आबादी द्वारा बोली अथवा समझी जानेवाली भाषा होने के कारण हिंदी के प्रति भी उनका रुझान बढ़ा है. चीन सहित कई देशों में युवाओं को हिंदी सिखाई जा रही है ताकि वे अपने उत्पाद अधिक-से-अधिक लोगों के बीच ले जा सकें और वर्तमान दौर की स्पर्धा में अपने आर्थिक हितों की सुरक्षा सुनिश्चित कर सकें. देखने में तो यहां तक आया है कि बड़ी कम्पनियां अपने उपभोक्ता-सामानों के प्रचार-प्रसार के लिए हिंदी की स्थानीय बोलियों तक का सहारा ले रही हैं. हिंदी भाषा की महत्ता और उपयोगिता को राजनीतिकर्मी भी अच्छी तरह समझ रहे हैं. ये लोग शासन चाहे जिस भाषा में करें, परन्तु लोगों से वोट हिंदी अथवा इसकी स्थानीय बोलियों में ही मांगते हैं. तात्पर्य यह कि व्यावहारिकता और उपयोगिता के तराजू में तौलने पर भी हिंदी का पलड़ा भारी दिखता है, अतएव भारत की राष्ट्रीय भाषा के रूप में इसकी योग्यता से इनकार नहीं किया जा सकता.

व्यापक राष्ट्रीय संपर्क और संवाद की दृष्टि से हिंदी के मार्ग में मुख्यतः तीन बाधाएं हैं. पहली कठिनाई है देश की अन्य भाषाओं के साथ तालमेल थी. इसके लिए आवश्यक होगा कि हम क्षेत्रीय भाषाओं को संबंधित राज्यों से बाहर ले आएं और उनके अंतरप्रांतीय व्यवहार को बढ़ावा दें तथा हिंदी को रचनात्मक उपायों से हिंदीतर प्रांतों में लोकप्रिय बनाएं. दूसरी दिक्कत शुद्धता या विशुद्धतावादियों द्वारा पैदा की जाती है जो शुद्ध अथवा विशुद्ध हिंदी के नाम पर हिंदी को अधिकाधिक संस्कृतनिष्ठ और आम-जन के लिए कठिन बना देना चाहते हैं. यह कोशिश इस भाषा को ही चलन से बाहर कर देगी. तीसरी समस्या आधुनिक अभिजन और प्रसार-माध्यमों की ओर से पेश की जा रही है, जो हिंदी के आधुनिकीकरण के नाम पर अंग्रेजी के शब्दों का अन्धाधुंध घालमेल करके इसे ‘हिंग्लिश’ बनाने पर आमादा है. टी.वी, इंटरनेट, सोशल मिडिया, फ़िल्म, विज्ञापन, एफ. एम. रेडियो, यूनिवर्सिटी कैम्पस आदि की इसमें मुख्य भूमिका है. इन सभी के अपने-अपने तर्क हैं, जो कुछ हद तक सही भी हो सकते हैं. परन्तु मूल प्रश्न यह है कि क्या हिंदी को भारत की पहचान और अधिकांश लोगों के लिए बोधगम्य और स्वीकार्य बनाने के लिए उक्त भाषाई संकीर्णता और अराजकता को नियंत्रित किया जाना आवश्यक नहीं है?

सारांश यह है कि भारत में भाषा को लेकर जो सवाल खड़े होते हैं उनके सन्दर्भ में वस्तुस्थिति के आधार पर कुछ ठोस कदम उठाया जाना जरूरी है. एक ओर जहां भारतीय जनमानस को अंग्रेजी भाषा के आतंक से मुक्त कर उसे भाषाई व्यवहार में आत्मविश्वास से भरपूर बनाना है, वहीँ राष्ट्रभाषा हिंदी और भारत की अन्य भाषाओँ के बीच उचित रिश्ता और वातावरण कायम करना होगा. साथ ही, ज्ञान के एक स्त्रोत और अभिव्यक्ति के एक माध्यम के रूप में अंग्रेजी के प्रति लोगों में स्वस्थ नजरिए का विकास किया जाना भी जरूरी है.