मीडिया अपने उद्देश्यों, लक्ष्यों, मूल्यों, और मानदण्डों से जिन विचलनों के लिए बदनाम है, उनमें से कई की जड़ें उन दिनों की पत्रकारिता में भी हंै, जब कहा जाता है कि वह प्रतिरोध की परम्परा के निर्माण में रत थी। इसलिए कि एकाधिकारीपूंजी के दखल के कारण उस माहौल में भी ऐसे विचलनकारी तत्वों की कमी नहीं थी, जिन्होंने पत्रकारिता व पत्रकारों दोनों को अपने स्वार्थों केलिए इस्तेमाल करने का बीड़ा उठाया हुआ था। जो प्रतिबद्ध थे, उनके लिए चुनौतियां लगभग आज जैसी ही थीं। अन्दर से भी और बाहर सेभी।

एक उदाहरण से बात और साफ होगी।

1919 के जलियांवाला बाग काण्ड के बाद साम्प्रदायिक दंगे ब्रिटिश सरकार की बहुत बड़ी जरूरत बन गये। इसलिए भी कि असहयोग आन्दोलन ने उसकी नाक में दम कर रखा था। इसलिए बाद के बरसों में उसने देश के कई हिस्सों में अमानवीय हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष भड़का दिये। ऐसे में पत्रकारिता का कत्र्तब्य क्या था और उसने किया क्या? जवाब बहुत विचलित करने वाला है। शहीद-ए आजम सरदार भगत सिंह लिखते हैं-‘पत्रकारिता का व्यवसाय जो किसी समय बहुत ऊँचा समझा जाता था, आज बहुत ही गंदा हो गया है।

अखबार एक दूसरे के विरुद्ध बडे़ मोटे मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनायें भड़काते और परस्पर सिरफुटौवल कराते हैं। एक दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे। ऐसे लेखक, जिनका दिल व दिमाग ऐसे दिनों में भी शांत रहा हो, बहुत कम हैं।’

जून 1928 की ‘किरती’ में ये बातें लिखते हुए भगत सिंह यहीं नहीं रुकते। आगे लिखते हैं, ‘अखबारों का असली कर्तब्य शिक्षा देना, लोगों के दिल व दिमाग से संकीर्णताएं निकालना, साम्प्रदायिक भावनाएं हटाना, परस्पर मेलमिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनानाथा लेकिन उन्होंने अपना मुख्य कर्तब्य आतंक फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, साम्प्रदायिक बनाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है।’

1943 आते आते तत्कालीन पत्रकारिता की जनविमुखता इतनी बढ़ गई थी कि 18 जनवरी को पूना के गोखले मेमोरियल हाल में महादेव गोविन्द रानाडे के 101वें जयंती समारोह कोसम्बोधित कर रहे डाॅ. भीमराव अम्बेडकर को कहना पड़ा, ‘कभी भारत में पत्रकारिता एक व्यवसाय थी लेकिन अब वह व्यापार बन गई है। साबुन बनाने जैसी, उससे अधिक कुछ नहीं। उसमेंकोई नैतिक दायित्व नहीं है और वह स्वयं को जनता की जिम्मेदार सलाहकार नहीं मानती।....इस बात को अपना सर्वप्रथम व सर्वोपरि कर्तव्य नहीं मानती कि तटस्थ भाव से निष्पक्षसमाचार दे, सार्वजनिक नीति के उस निश्चित पक्ष को प्रस्तुत करे, जिसे वह समाज के लिए हितकारी समझे।.....चाहे कोई कितने ही उच्च पद पर हो, उसकी परवाह किये बिना, बिना किसीभय के उन सभी को सीधा करे और लताड़े, जिन्होंने गलत अथवा उजाड़ पथ का अनुसरण किया है। उसका तो प्रमुख कर्तव्य यह हो गया है कि नायकत्व को स्वीकार करे और उसकी पूजाकरे।....उसकी छत्रछाया में समाचारों का स्थान सनसनी ने, विवेकसम्मत मत का विवेकहीन भावावेश ने, उत्तरदायी लोगों के मानस के लिए अपील का दायित्वहीनों की भावनाओं के लिएअपील ने ले लिया है।.....वह ऐसा लेखन है, जैसे ढिंढोरचियों ने अपने नाम का ढिंढोरा पीटा हो। नायकपूजा के प्रचार-प्रसार के लिए कभी भी इतनी नासमझी से देशहित की बलि नहीं चढ़ाईगई है। नायकों के प्रति ऐसी अंधभक्ति पहले कभी देखने में नहीं आई, जैसी आज चल रही है।’

बाद में इस भाषण के प्रकाशन के लिए डॉ. अम्बेडकर ने जो प्रस्तावना लिखी, उसमें ‘कांग्रेसीपत्रों, जिन पर आजादी के बाद प्रतिरोधी होने का मुलम्मा पढ़ा दिया गया, द्वारा अपनी अलानाहक निन्दा व आलोचना पर गहरा क्षोभ व्यक्त किया। कहा कि, ‘वे... मेरी हर बात की गलत सूचना देते हैं, उसे गलत तरीके से प्रस्तुत करते और उसका गलत अर्थ लगाते हैं।...मेरेप्रति...उनका यह द्वेष व वैरभाव अछूतों के प्रति हिन्दुओं के घृणाभाव की अभिव्यक्ति ही है।’

गौर कीजिए, जब आजादी के संघर्ष की सफलता के लिए जाति धर्म के भेद से परे सारे देशवासियों की अटूट एकजुटता की जरूरत थी, तब भी उसकी पत्रकारिता दलितों व वंचितों के प्रतिविभाजनकारी ‘घृणाभाव की अभिव्यक्ति’ से परहेज नहीं कर रही थी।

बाद में ऐसी ही अभिव्यक्तियों के लिए कांशीराम ने बार-बार उसको मनुवादी कहा, तो इसके लिए उसका वर्तमान पतन जिम्मेदार था या अतीत से चला आता पूंजीपोषित, अभिजनवादी औरजनविरोधी संकीर्ण सोच? पूंजीनियंत्रित मीडिया ने मनुवादी होने की तोहमत स्वीकार कर ली, लेकिन खुद को आईने के सामने करने की जरूरत नहीं समझी। आज वह मोदी के रूप में जैसीनायकपूजा करता और इसके लिए नासमझी में नहीं बल्कि जानबूझकर देशहित की जैसी बलि चढ़ाता दिखता है, क्या वह डाॅ. अम्बेडकर के समय का विस्तार भर नहीं है?

थोड़ा और पीछे जायें तो क्या इसका जुड़ाव उस परम्परा से है जो ‘पूरी अमी की कटोरिया सी.....विक्टोरिया रानी’ के चिरंजीवी होने की प्रार्थना में मगन थी और जिसके लिए आजादी के संघर्षकी बस इतनी सी प्रासंगिकता थी कि वह सफल हो गया तो देश के धन के विदेश चले जाने का भारी दुःख खत्म हो जायेगा। वरना तो ‘अंग्रेज राज सुख साज सजै सब भारी!’

भगत सिंह और डा.. अम्बेडकर के उपर्युक्त कथनों के आलोक में सोचिए कि देश की बहुसंख्यक जनता के हितों की दृष्टि से मीडिया या कि पत्रकारिता का आजादी के पहले का चरित्र इतना‘गौरवशाली’ होता तो क्यों उसके ‘नायक’ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी के बहुचर्चित कथन के अनुसार आपातकाल में झुकने को कहे जाने पर लेट जाते? तब जिस ‘नई दुनिया’ ने इमर्जेंसी का यथासम्भव प्रतिरोध किया, उसके सम्पादक राजेन्द्र माथुर को इमर्जेंसी हटाये जाने की सूचना मिलने पर खुशी के बजाय अफसोस क्यों नहीं होता? क्यों नहीं वे इस नतीजे परपहुंच जाते कि ‘यह देश के लिए गौरव का क्षण न होकर आत्मावलोकन का है।’ श्रीमती गांधी ने जब तक उसकी आजादी को रौंदने में लाभ देखा, उसे रौंदा और जब वापस कर देने में लाभदेखा, वापस कर दिया। इस देश से इतना भी नहीं बन पड़ा कि वह उनकी कलाइयां मरोड़कर अपनी आजादी छीन लाता। उसने तो इमर्जेंसी और उसके दमन को इस कदर स्वीकार कर लियाथा कि देखते ही देखते वह फलने-फूलने लगी थी।

जाहिर है कि 1990-92 में अयोध्या में राममन्दिर के बहाने बेकाबू हो उठी साम्प्रदायिकता के दौर में एक बार फिर अपने रंग में आ गई तो इसका कारण भी, निस्संदेह, पूंजी द्वारा उसका एजेंडा तय किया जाना ही था। पूंजीशाह चाहते थे कि राममन्दिर आन्दोलन की साम्प्रदायिक सनसनी को अपना प्रसार व पहुंच बढ़ाने व लाभ कमाने के लिए भुनाया जाये। इससे देश मेंघृणा फैलती है और लोग एक दूजे की जान के प्यासे हो जाते हैं तो हों! क्या उनकी इस प्रवृत्ति के कारणों की केवल आज के परिवेश में तलाश वैसे ही नहीं, जैसे पुलिस को और कुछ नहींसूझता या वह और कुछ नहीं करना चाहती तो कत्ल हुए व्यक्ति के घर में ही उसके कातिल की तलाश करने लगती है।

साम्प्रदायिकता के उभार के लिए हम अंगे्रजों की विभाजनकारी नीतियों को जिम्मेदार ठहराते हैं, पर वैसे ही किसी उभार को अपने धंधे में सहायक मानकर उसको पैदा करने और बढ़ानेमें लग जाने की जो प्रवृत्ति हिन्दी पत्रकारिता के एक बड़े हिस्से ने 1990-90 में प्रदर्शित की, क्या उसे इस पत्रकारिता द्वारा भगत सिंह के समय से ही निर्धारित ‘मुख्य कत्र्तव्य’ से जोड़करदेखना और उसका विस्तार मानना ज्यादा सही नहीं होगा?

जैसा कि कह आये हैं, मीडिया का मूल ढांचा तो इसके जन्म से अब तक ज्यादा बदला नहीं है। टेक्नालॉजी में आमूल-चूल परिवर्तन के बावजूद उसे संचालित करने वाली पूँजी की जकड़न बढ़ीही है। तभी पत्रकारिता के जो ‘शिखर पुरुष’ आजादी के पहले देशहित की आड़ में इस पूॅंजी के हित साधा करते थे, इस हितसाधन का कारवां आगे ले जाने के लिए दिनकर के शब्दों में ‘बिकनेको हैं तैयार खुशी हो जो दे दो।’

आजादी के बाद की हिन्दी पत्रकारिता में ऐसे उदाहरणों की तलाश की जाए तो राजस्थान के एक अखबार की याद आती है जिसने श्रीमती इन्दिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में परिवारनियोजन अभियान में नसबंदी पर ज्यादा जोर दिये जाने के वक्त अपने पन्नों पर ‘बहस’ छेड़ दी कि नसबंदी के चलते उन आत्माओं का क्या हो रहा होगा, जो यमराज के यहां पुनर्जन्म कीप्रतीक्षा कर रही हैं और जन्मनिरोध के मानवीय उपायों के कारण जन्म नहीं ले पा रहीं। अखबार ने इस बहस को इतना लम्बा खींचा और इस स्तर तक ले गया कि भारत के संविधान मेंजनता को जिस वैज्ञानिक चेतना की ओर उन्मुख करने की बात कही गई है, उस चेतना को ही पानी पिलाकर रख दिया। इसका फायदा अखबार को इस रूप में मिला कि वह अपने अंचल कासबसे ज्यादा प्रसार संख्या वाला अखबार हो गया।

आज जब टेलीविजन चैनलों पर आत्माओं से साक्षात्कार कराये जाते है और पिछले जन्मों का आंखों देखा हाल प्रसारित किया जाता है तो क्या उसका उत्स उन दिनों की प्रतिरोध कोपलीता लगाने वाली और आत्मा परमात्मा के अबूझ खेल में उलझाने वाली उस ‘बहस’ में नहीं ढूढ़ा जाना चाहिए जो उन दिनों प्रतिरोध की गति अवरुद्ध करने वालों के बहुत काम आयी थी?

यह तो अभी लोगों का भूला भी नहीं होगा कि कैसे राजधानी दिल्ली के एक अखबार में हिन्दी पत्रकारिता के एक शिखर पुरुष ने सारे पत्रकारीय आदर्शों को ठेगा दिखाते हुए सतीमैया की जयबोल डाली यानी सती प्रथा के समर्थन में सम्पादकीय लिख डाला और इसे लेकर अपने पूरे जीवन में कभी पश्चाताप की जरूरत नहीं महसूस की। अब अगर किसी चैनल पर भूत प्रेत काअज्ञान व अंधविश्वास फैलाने वाला, सच के नाम पर डंके की चोट पर बोला जा रहा झूठ, देखकर सिर पीटने का मन हो तो शिखर पुरुष की महाचेतना के लिए उनको धन्यवाद तो आप देंगेही। उन शब्दवीरों को भी दीजिए जो यों तो जनसरोकारों की बात करते नहीं थकते, लेकिन जब भी मन होता है, आरक्षण के रहने या जाने को ‘हर किसी को रोजगार’ से बड़ा मुद्दा बनाने लगजाते हैं।

अब इन्हीं शब्दवीरों द्वारा विवरणों की भरमार के बीच गम्भीर विश्लेषणों को मीडिया से गायब कर दिया गया है और कहा जा रहा है कि हिन्दी तो सिर्फ विज्ञापन, मनोरंजन और बाजार कीभाषा है और इसमें चिंतन-मनन और विचार-विमर्श की कोई प्रासंगिकता नहीं है। उनकी इस बात को स्वीकार करके खुश हो लिया जाये कि कम से कम उक्त क्षेत्रों में तो हिन्दी अपनीजयपताका फहरा रही है तो जनसरोकारों की बात ही खत्म हो जाती है।

लेकिन स्थिति को बदलने की चिंता की जाये तो याद आता है कि डॉ अम्बेडकर के रानाडे की जयंती वाले जिस भाषण का ऊपर जिक्र आया है, उसमें उन्होंने कहा था कि ‘मुझे प्रसन्नता है कि आदरयोग्य कुछ अपवाद भी हैं, लेकिन वे ऊंट के मुंह में जीरे के समान हैं।’ आज बड़ी पूंजी सम्पादक नाम की संस्था को नष्ट करते हुए सुनिश्चित कर रही है कि उक्त इक्का-दुक्का‘अपवाद’ भी न बचने पायें। बचें भी तो उनके मुख्यधारा में रहने का तो सवाल ही न उठे, वे ऊंट के मुंह में जीरे जैसी हैसियत से भी वंचित रहें।

निर्लज्जता को संस्कार बनाते हुए यह पूंजी ‘ईमानदारी’ से स्वीकार कर रही है कि मीडिया में असली धंधा तो विज्ञापनों का है, खबरें तो उसमें प्रसंगवश आ जाती हैं, पेड हों, प्रायोजित याप्रवर्तित। मीडिया ऐसे ही प्रोपागैंडा और प्रधानमंत्री प्रोजेक्ट करने का माध्यम नहीं बन गया है। अखबार ऐसे ही पढ़ने से ज्यादा देखने की वस्तु नहीं हो गये हैं और चैनलों ने समाचार, प्रचारव मनोरंजन का फर्क ऐसे ही नहीं मिटा डाला है। कोबरापोस्ट के आपरेशन 136 और उससे पहले नीरा राडिया टेपकांड ने उसके मन्सूबों की बाबत कोई संदेह नहीं रहने दिया है। वह पहलेअपनी जो हित साधना वह ‘महान’ सम्पादकों से, उनकी जनस्वीकार्यता व विश्वसनीयता को अपने पक्ष में मोड़कर कराती थी, अब अपनी नई सहूलियतों के क्रम में घोड़ा-गाड़ी नौकर बंगलाआदि के अभिलाषी उन ‘अनाम’ सम्पादकों से करा रही है जो स्वामिभक्ति में अपना सानी नहीं रखते। किसे नहीं मालूम कि स्वामिभक्ति का लोकतंत्र से पुराना वैर है और वह अपनी छायातले स्वविवेक को कतई सांस नहीं लेने देती। कई बार तो वह दाम के बदले में उनका नाम तक छीन लेती है यानी सम्पादन करते हैं वे और सम्पादक के रूप में नाम जाता है उनके अन्नदाताका। यह वैसा ही है जैसे दो तीन दशक पहले तक नेता चुनाव जीतने के लिए अपराधियों व माफियाओं का इस्तेमाल करते थे और अब अपराधी व माफिया खुद नेता हो गये हैं।

जाहिर है कि बदलाव के लिए अम्बेडकर के आदरयोग्य अपवादों पर ही निर्भर करना पड़ेगा और भविष्य बहुत कुछ इस बात से तय होगा कि जो अपवाद हैं, क्या वे इतनी शक्ति का संचयकर पायेंगे कि पूंजी की शक्तियों को अतिक्रमित करके उस पर अपनी वरीयता स्थापित कर लें और उसे उस राष्ट्र-राज्य की चेरी बना दें जो अभी उसके शरणागत हैं?

अगर हां, तो इससे कुछ सार्थक परिणाम जरूर निकलेंगे। वैसे ही जैसे देश आजाद हुआ और विवश पूंजी को लगा कि देश की नई सत्ता उसकी जुबान नहीं बोलेगी तो उसने झख मार कर हिन्दी के अखबार निकालने शुरू किये। लेकिन अब जब वक्त फिर से पूरी तरह उसके सांचे में ढल गया है तो वह हिन्दी के प्रकाशनों को या तो बंद कर दे रही, हिन्दी को हिंगे्रजी बना दे रहीहै अथवा उन्हें इस हद तक पोच व प्रतिगामी सोच के हवाले कर दे रही है कि उनके होने का कोई मतलब ही न रह जाये।