दलित महिला अधिकार कार्यकर्ताओं ने जिनेवा में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद् के 38वें सत्र में भारत में महिलाओं व लड़कियों द्वारा झेली जा रही जाति आधारित हिंसा से जुड़ी रिपोर्ट और गवाहियां पेश की.

इस रिपोर्ट का उद्देश्य जाति आधारित हिंसा की समस्या से लड़ने के लिए उपयुक्त नीति और क्रियान्वयन से जुड़े सुझावों को संयुक्त राष्ट्र के भीतर और बाहर खोजना और इस दिशा में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नये गठबंधन और साझेदारी बनाना था. गवाहियां सुनने वाले विशेषज्ञों के पैनल में संयुक्त राष्ट्र नस्लीय भेदभाव उन्मूलन समिति की सदस्य और 2016 में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद् के समक्ष जातीय भेदभाव की वैश्विक परिघटना के बारे अपनी पहली विस्तृत रिपोर्ट पेश करने वाली रीटा इज्सक – नडिए, महिलाओं के खिलाफ हिंसा से जुड़ी संयुक्त राष्ट्र विशेष संवाददाता दुब्रव्का सिमोनोविक और भारतीय सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ अधिवक्ता वृंदा ग्रोवर शामिल थीं.

इस रिपोर्ट में यह बताया गया है कि हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में अपने साथ होने वाले बलात्कार और हिंसा की घटनाओं में बरती जाने वाली ढिलाई और पुलिस की संलिप्तता के खिलाफ दलित महिलाएं कैसे विरोध दर्ज करा रही हैं. रिपोर्ट ने बताया, “ लड़कियां, उनके परिजन और समुदाय सदस्य न्याय की मांग को लेकर महीनों से दिल्ली में डेरा डालकर प्रदर्शन कर रहे हैं.”

‘जातिगत बर्बरता के खिलाफ आवाज़ : भारत में दलित महिलाओं की कहानियां’ शीर्षक इस रिपोर्ट में आगे बताया गया है कि भारत में दलित महिलाओं को अक्सर आधुनिक बंधुआ मजदूरी के लिए मजबूर किया जाता है और बंधुआ मजदूरी एवं वेश्यावृति में झोंकने के वास्ते उन्हें मुख्य रूप से निशाना बनाया जाता है. सिर पर मैला ढोने का अमानवीय काम करने को मजबूर की गईं लगभग 98% महिलाएं दलित समुदाय से आती हैं.

राष्ट्रीय पारिवारिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण (नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे) का हवाला देते हुए इस रिपोर्ट में बताया गया है कि 15 वर्ष की आयु तक पहुंचते – पहुंचते तकरीबन 33.2% दलित महिलाएं शारीरिक हिंसा की शिकार होती हैं. इस रिपोर्ट में नेशनल दलित मूवमेंट फॉर जस्टिस के साथ काम करने वाले विभिन्न कार्यकर्ताओं का हवाला दिया गया है और दलित महिलाओं के शुरुआती जीवन से ही लादे जाने वाले भेदभाव की बानगी को दर्ज किया गया है. इसमें शिक्षा व्यवस्था और स्वास्थ्य सेवाओं तक दलित महिलाओं की पहुंच और उनके बच्चों के पोषण - स्तर को भी दर्ज किया गया है.

इस रिपोर्ट में सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुसूचित जाति एवं जनजाति (अत्याचार रोकथाम अधिनियम) के हालिया कार्यान्वयन, जिसकी वजह से देश में दलित महिलाओं को विधिक सहायता और न्याय मिलना मुश्किल हो गया है, को रेखांकित किया है. इसमें भारत में महिलाओं के खिलाफ होने वाली जाति – आधारित हिंसा को समझने में आयोग की असमर्थता का भी जिक्र किया गया है.

सरिता नाम की एक प्रतिभागी को उद्धृत करते हुए इस रिपोर्ट में कहा गया, “जाति अंतर पैदा करती है. हमने प्रशिक्षण के दौरान देखा है कि अगर वहां एक अकेली गैर - दलित महिला उपस्थित है, तो वह दलित महिलाओं को बोलने का मौका नहीं देती है. खुद को बेहतर साबित करने की खातिर वह बिना रुके अंग्रेजी में बोलती चली जाती है. हम दलित महिलाएं अपनी बहनों को बोलने के लिए प्रेरित करती हैं, लेकिन गैर – दलित महिला हम दलित महिलाओं की कमजोरियों का दोहन करती हैं.”

अखिल भारतीय दलित महिला मुक्ति अधिकार मंच की महासचिव आशा कोटवाल, जिनकी अगुवाई में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद् के समक्ष यह रिपोर्ट पेश की गयी, ने कहा, “दलित महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर ध्यान देने की बात तो छोड़िए, वर्ष 2001 में डरबन में आयोजित संयुक्त राष्ट्र विश्व सम्मेलन में जाति से जुड़े विमर्शों को उठाये जाने के बाद से भारत हमेशा इससे बचता रहा है. इन विमर्शों का मकसद भारत को नीचा दिखाना नहीं बल्कि दलित महिलाओं की आवाज़ को सामने लाना और सामाजिक – आर्थिक विभेद, जिसके तहत यौन हिंसा में बढ़ोतरी होती है, के संदर्भ में संवाद को आगे बढ़ाना है. इस किस्म की हिंसा से निपटने की कोई घरेलू प्रणाली मौजूद न होने की वजह से हम इस मसले को अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार ढांचे के भीतर उठाना चाहते हैं.”