एडल्टरी कानून के निरस्त होने के साथ ही स्त्री-पुरुष दोनों के अधिकार इस मामले में बराबर हो गये हैं. लेकिन पुरुषवादी कह रहे हैं कि दहेज और रेप के खिलाफ बने कानून पुरुषों की फजीहत कर रहे हैं. इसके लिए वे लगातार कार्यक्रम कर रहे हैं.2 अक्टूबर के दिन राजधानी दिल्ली के जंतर मंतर पर पुरुष आयोग की मांग करने की योजना और इससे पहले 23 सितंबर को कॉन्स्टिट्यूशन क्लब में राष्ट्रीय पुरुष आयोग की मांग को लेकर पहली कॉन्फ्रेंस आयोजित की गई. इसमें भाग लेने वालों में भारतीय जनता पार्टी के लोकसभा सदस्य हरिनारायण राजभर व अंशुल वर्मा एवं पूर्व अभिनेत्री पूजा बेदी बतौर वक्ता मौजूद थे.

वक्ताओं ने 4 मुख्य बातें गिनाईं -

1. दहेज प्रताड़ना के मामलों में पूरे परिवार एवं रिश्तेदारों की गिरफ्तारी

2. तलाक के बाद पत्नी द्वारा भत्ता ना दिया जाना

3. घरेलू हिंसा के शिकार पुरुषों की आत्महत्याएं

4. पुरुषों पर लगे झूठे रेप केस

गौरतलब है कि उपरोक्त सारे मामले तब से आये हैं, जब से औरतों के अधिकारों के लिए कानून बने हैं.

तो क्या इस आधार पर पुरुषों के लिए आयोग का गठन जायज है?

आयोग क्यों बनते हैं

किसी भी प्रकार के आयोग का निर्माण किसी कमजोर समुदाय के हितों की रक्षा के लिए किया जाता है. वैसे हित जो सदियों से उपेक्षित रहे हैं और वर्तमान रूप में उनकी रक्षा नहीं हो पा रही है.

इस प्रकार पुरुष आयोग की मांग के औचित्य के पीछे की कहानी को समझना जरुरी लगता है. क्योंकि ये सारी समस्याएं आधुनिक कानूनों में छूटी कुछ बातों और पुलिस व्यवस्था के आधुनिक न हो पाने की वजह से पैदा हुई हैं. महिलाओं के अधिकारों की बातें सामाजिक-राजनीतिक - उपेक्षा जनित समस्या हैं, वहीं पुरुष अधिकार की बातें कानून जनित समस्या हैं. सामाजिक-उपेक्षा मिटने में शताब्दियां लग जाएंगी, कानूनी-उपेक्षा मिटने में कुछ दिन या साल लगते हैं. हालांकि भारतीय कानून पुरुष अधिकारों को उपेक्षित भी नहीं करता. आइए देखते हैं-

हिंदू मैरिज एक्ट के अधिनियम 24 के तहत पति भी पत्नी से मुआवजा मांग सकता है

अगर तलाक के बाद मुआवजे की बात करें तो कॉन्फ्रेंस में पूजा बेदी ने भ्रामक बातें कहीं. भारत का कानून उन पुरुषों के भी हकों की बात करता है जो कमाने के लिहाज से सक्षम नहीं हैं. हिन्दू मैरिज एक्ट के अभिनियम 24 के मुताबिक अशक्त पति कमाऊ पत्नी से मुआवजे की मांग कर सकता है. चूंकि महिलाओं की तुलना में ज्यादा पुरुष कमा सकते हैं, इसलिए हर पुरुष के मुआवजे के बजाय अशक्त पुरुष के मुआवजे की बात की गई है. वहीं हाथ-पैर और दिमाग से सही महिला भी पैसों के लिए पुरुष पर ही निर्भर रहती है. क्योंकि नौकरियों में औरतों की भागीदारी अभी कम है.

भारतीय कानून पुलिस को दहेज़ के मामले में तुरंत गिरफ्तारी के लिए बाध्य नहीं करता है

पुरुष आयोग सम्मेलन में एक वक्ता ने दहेज के कानून के दुरुपयोग का मामला उठाया. उनके अनुसार ऐसे मामलों में तुरंत गिरफ्तारी हो जाती है. कई बार निर्दोष लोग भी फंस जाते हैं. जबकि पिछले साल ही सुप्रीम कोर्ट ने अहम निर्देश दिए थे कि पुलिस ऐसी किसी भी शि‍कायत पर तुरंत गिरफ़्तारी नहीं करेगी. महिला की शि‍कायत सही है या गलत, पहले इसकी पड़ताल होगी. पड़ताल के लिए तीन लोगों की एक अलग नई बनने वाली परिवार कल्याण समिति बनाने के निर्देश दिए गए थे. इस समिति की रिपोर्ट आने तक पुलिस को गिरफ्तारी जैसी कार्रवाई नहीं करनी है.

हालांकि उस वक्त भी कोर्ट ने साफ-साफ कहा था कि इस बात के कोई सीधे प्रमाण नहीं मिले हैं और ना ही ऐसा कोई अध्‍ययन नहीं है कि 498 ए देश में सबसे ज्यादा दुरुपयोग होने वाला कानून है.

इस साल 14 सितंबर को इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने फिर सुनवाई की है. ऐसे मामलों में गिरफ्तारी हो या नहीं, ये तय करने का अधिकार अब पुलिस को वापस दे दिया है. लेकिन साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि हर राज्य के डीजीपी #DGP इस मुद्दे पर पुलिस अफसरों व कर्मियों में जागरुकता फैलाएं. मनमानी गिरफ्तारी को रोकने के लिए सीआरपीसी #CRPC 41 में साफ प्रावधान है कि पुलिस अगर किसी को गिरफ्तार करती है तो पर्याप्त कारण बताएगी और न गिरफ्तार करने का भी कारण बताएगी.

498 A के तहत 2011 में 99,135, 2012 में 1,06,527 और 2013 में 1,18,866 मामले दर्ज हुए.

पुलिस की जांच पड़ताल के बाद 2011 में 10,193, 2012 में 10,235, 2013 में 10,864 मामले या तो गलत मिले या तथ्‍यों में गलतियां थीं या कानून के पैमाने पर‍ दुरुस्त नहीं मिले. सरकारी आंकड़ें बताते हैं कि पति या उसके रिश्‍तेदार की क्रूरता के 91 फीसदी से जायद आरोप पुलिस की पड़ताल में सही मिले हैं.

ऐसे मामले भी आए हैं जिनमें बदले की भावना से लोगों को दहेज प्रताड़ना में फंसाया गया है. पर ये सिर्फ पुरुषों के खिलाफ ही नहीं होते हैं, ये स्त्रियों के खिलाफ भी होते हैं. ऐसे मामलों में पुलिस जांच को ज्यादा प्रभावी बनाने की जरूरत है.

पुरुषों की आत्महत्याओं के बारे में गलत आंकड़ों का दुष्प्रचार

सम्मेलन में ये भी कहा गया कि औरतों की हिंसा की वजह से पुरुष आत्महत्या कर रहे हैं. आज व्हाट्सएप्प यूनिवर्सिटी जैसी टर्म्स आ गई हैं. लोग आसानी से इंटरनेट पर लिखी हर बात को सच या झूठ मान रहे हैं. ऐसे में भ्रामक आंकड़े दिखाकर पुरुषों की भीड़ इकठ्ठा करना कोई मुश्किल काम नहीं है. देशभर में पुरुष आयोग की मांग तेज हो रही है. कई जगह धरने भी हुए हैं. ऐसे में आंकड़ों को अपनी सुविधा के हिसाब से तरोड़ा मरोड़ा जा रहा है.

पर 2015 के सरकारी आंकड़ों पर नज़र मारने पर पता चलता है कि कुल 91528 पुरुषों ने खुदकुशी की, जिनकी वजहें क्रमश रही हैं-

बेरोजगारी की वजह से 9381 पुरुषों ने आत्महया की.

-11584 किसान और 20409 रोज़ाना मजदूरी करने वाले पुरुषों ने अपनी जान ली.

-4081 पुरुषों ने अचानक से आए इकॉनमिक बदलाव के कारण खुदकुशी की.

-14232 पुरुष बीमारी और 3513 पुरुष ड्रग एडिक्शन की वजह से सुसाइड करने पर मजबूर हुए.

-24043 पुरुषों की आत्महत्या की वजह पारिवारिक मसले रहे ( ये मां-बाप, भाई-बहन किसी भी वजह से हो सकते हैं)

और 2497 पुरुषों ने शादीशुदा जीवन में कलह की वजह से अपनी जान ली.


इन आकंड़ों से साफ होता है कि पुरुष अपने शादीशुदा जीवन में कलह की वजह से तो ख़ुदकुशी कर रहे हैं लेकिन इससे भी ज़्यादा वो बेरोजगारी, बीमारी, इकनोमिक बदलाव, कर्ज़, ज़मीनी विवाद से मर रहे हैं.

पुरुष आयोग की मांगों में कहीं भी इन आंकड़ों का ज़िक्र नहीं होता है. ना ही सरकार से ऐसी कोई मांगों के लिए आवाज़ उठाई जाती है.

23 सितंबर को हुई इस कॉन्फ्रेंस में कई बार टीवी डिबेट्स और सोशल मीडिया की फेमिनिस्टों का नाम लिया गया. ऐसा लगता है कि इस आयोग की मांग सिर्फ उन महिलाओं को काउंटर करने के लिए किया गया है.

इस कार्यक्रम में पुरुषों के बाकी मुद्दे नदारद थे. रेप और घरेलू हिंसा में सही तरीके से जांच की मांग पुरुष आयोग तक कैसे पहुंच गई?

रेप और दहेज़ के कानून ही नहीं बल्कि सारे कानूनों का होता है दुरुपयोग

सुप्रीम कोर्ट की वकील प्योली स्वतीजा का कहना है कि पुरुषों के लिए अलग आयोग की मांग करना वैसे ही है जैसे किसी सवर्ण आयोग की मांग करना. आयोग ऐतिहासिक रूप से दबे कुचले लोगों के हकों के लिए काम करते हैं. अब तो रेप और दहेज़ के मामलों में कोर्ट बहुत सारे ऐसे संशोधन कर दिए हैं जिनसे झूठे मुकदमों की समस्या से निपटा जा सके. हर कानून का दुरुपयोग होता है. कानून कहता है कि चाहे 100 दोषी छूट जाएं लेकिन एक भी निर्दोष को सजा ना हो. ऐसे मामलों में कोर्ट संदेह की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ता है. सबूतों के अभाव में बहुत सारे लोग छूट जाते हैं.

लेकिन सबूत के अभाव में बरी हुए मुकदमों को देखकर यह नहीं कहा जा सकता है कि घरेलू हिंसा या रेप के मुकदमें झूठे हैं. अगर किसी की हत्या हुई है और हत्या का आरोपी सबूतों के अभाव में बरी होता है तो ये नहीं कहा जा सकता है कि झूठी हत्या हुई है.

पूजा बेदी का एक बेतुकापन यह भी है कि कुछ कुटिल महिलाओं की वजह से बॉसेज को अपने दफ्तरों में सीसीटीवी कैमरा लगवाने पड़ रहे हैं. ऐसी महिलाऐं पैसे ऐंठने के लिए यौन शोषण के आरोप लगा देती हैं. लेकिन उन्होंने ये नहीं बताया कि किस लिहाज से सीसीटीवी कैमरा लगाने से दफ्तरों के बॉस का हैरेसमेंट हो रहा है? बॉसेज महिलाओं को हैरेस करते हैं या महिलाएं बॉसेज को, ये मसला सीसीटवी कैमरा लगने से पुरुषों के पक्ष में कैसे चला गया?

पुरुष आयोग की टैगलाइन है- जेंडर जस्टिस

.सम्मेलन में यह कहा गया कि ये बराबरी के लिए किया जा रहा है. कानून की नजर में सब बराबर हों. तो उसके लिए महिला और पुरुषों में बराबरी होनी आवश्यक है लेकिन आंकड़े कुछ और ही कहते हैं. अभी भी भारत में काम करने और पढ़ने लिखने तक में बराबरी नहीं आई है.

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक महिलाओं की लिटरेसी रेट पुरुषों के मुकाबले कम है. चाहे वो ग्रामीण भारत हो या शहरी. शहरों में काम करने वाली महिलाओं का परसेंटेज 14.7% है जबकि गांवों में 24.8%. इसकी तुलना में पुरुषों का वर्कफोर्स में योगदान 54.6% और 54.3% है. अभी भी काम करनेवाली महिलाऐं कम है और भारत के वर्क फोर्स में बराबरी से नहीं लाई जा सकी हैं.

महिला को अपने समकक्ष पुरुष के मुकाबले बराबर वेतन नहीं मिल रहा है. इसलिए सालों से महिला संगठन बराबर वेतन की मांग उठाते रहे हैं. इकोनॉमिक टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक जहां आदमी 231 रुपये कमा रहा होता उसी काम के लिए औरत 184.8 रूपये दिए जा रहे होते हैं. मतलब महिलाओं को 20 प्रतिशत कम वेतन दिया जाता है.

क्या कहते हैं कानून की पढ़ाई करने वाले?

दिल्ली विश्वविद्यालय से लॉ कर चुकी और जुडिशरी की तैयारी कर रही पूजा कहना है कि दहेज और रेप के झूठे केसों में पुलिस के काम करने के तरीके पर सवाल उठें. हालांकि कोर्ट ने बहुत पहले ही एफआईआर के बाद तुरंत गिरफ्तारी से बाध्यता हटा ली थी. पुलिस को संवेदनशील करने की ज़रूरत है. भारत में पहले ही बहुत सारे कानून हैं जो औरत और पुरुष, दोनों के हकों के लिए काम करते हैं. ज़रूरत है तो सही तरीके से जांच पड़ताल की मांग की.

पूजा ने सलमान खान के केस का ज़िक्र करते हुए कहा कि फुटपाथ पर सो रहे लोगों पर गाड़ी चढ़ाई गई थी. लेकिन पुख्ता सबूत ना होने की वजह से सलमान खान को बरी कर दिया गया. पर लोग मरे तो थे. इसी तर्क के आधार पर हम मनमाना आकंड़ा नहीं बना सकते कि महिलाओं के साथ प्रताड़ना नहीं हो रही है.

पुलिस का क्या कहना है?

दिल्ली पुलिस में 20 साल से कार्यरत पीसी यादव ने बताया कि घरेलू प्रताड़ना के केसों में ज़्यादा सबूत नहीं मिलते हैं. ऐसे मामलों में महिला का स्टेटमेन्ट ही अहम होता है क्योंकि चाहरदिवारी के बीच हो रही हिंसा के बारे में कई बार पड़ोसी तक नहीं जानते हैं.

उन्होंने कहा कि तकरीबन 4-5 पहले तक पुलिस एफआइआर में दर्ज सभी नामों के व्यक्तियों को उठा लाती थी. लेकिन पिछले एक-दो साल से इसमें बदलाव आया है.

जब कोई महिला पुलिस के पास दहेज प्रताड़ना या घरेलू हिंसा की ऐसी शिकायत लेकर आती है तो सबसे पहले उसे महिला सेल के पास भेजा जाता है. जहां दोनों पक्षों को बैठाकर समझाया जाता है और आपसी सुलह कराने की कोशिश की जाती है. नहीं मानने पर कानूनी कार्रवाई की तैयारी की जाती है.

आम बनाम अपवाद

रेप और दहेज के झूठे केस में फंसाकर पैसे ऐंठने वाले गिरोहों के बारे में उन्होंने बताया कि ये आम बात नहीं है. ये मामले अपवाद होते हैं. जबकि महिलाओं के खिलाफ हिंसा के मामले आम बात हो गये हैं.

उन्होंने घरेलू हिंसा के मामलों में आरोपियों के बरी होने की एक संभावना जताई कि ऐसे केस 10-10 साल तक भी चलते हैं. आखिर में लड़कियां कोर्ट में बयान भी बदल लेती हैं या ससुराल पक्ष से समझौते कर लेती हैं. कानूनी कार्रवाई थका देने वाली होती है. ऐसे में कुछ लड़कियां खुद ही केस छोड़ देती हैं या उनके साथ किसी भी तरह की हिंसा होने से ही मना कर देती हैं.

लेकिन इसका यह मतलब नहीं निकाला जा सकता है कि घरेलू हिंसा के मामले झूठे हैं.