द गार्डियन में हाल में प्रकाशित एक खबर के अनुसार हमारे देश में सोने का भाव यह तय करता है कि लडकियां जिन्दा रहेंगी या भ्रूण में ही मार दी जायेंगी. इसके अनुसार जब सोने की कीमत बढ़ जाती है तब भ्रूण हत्या अधिक होती है, यदि ऐसा नहीं हुआ तब जन्म का पहला महीना भी पूरा नहीं कर पाती और किसी तरह से बच गयी तब कुपोषण और लापरवाही के कारण पूरा विकास नहीं कर पाती. यह अध्ययन पिछले 35 वर्षों के सोने की कीमतों और गर्भपात और लड़कियों की मृत्यु दर के आधार पर किया गया है. इसका कारण दहेज़ में सोने की मांग को बताया गया है. जब सोने के भाव आसमान छूने लगते हैं तब पहला महीना पूरा करने वाली लड़कियों की संख्या कम हो जाती है, जिससे समाज में लिंग अनुपात तेजी से प्रभावित होता है.

वर्ष 1972 से 1985 के बीच सोने के भाव में 1 प्रतिशत की बृद्धि से प्रतिवर्ष सामान्य की तुलना में 13000 अधिक नवजात लड़कियों की मृत्यु हुई. यह वह दौर था जब, गर्भ में लिंग परीक्षण कठिन था. इसके बाद 1985 से अल्ट्रासाउंड का इस्तेमाल बढ़ा और लिंग परिक्षण आसान हो गया. वर्ष 1985 के बाद से सोने के भाव में एक प्रतिशत की बृद्धि प्रतिवर्ष 33000 बच्चियों की जान जाने लगी.

यह सब तब हो रहा है जबकि वर्ष 1961 से ही दहेज़ को गैर-कानूनी करार दिया गया है और गर्भ में पल रहे बच्चे का लिंग-परीक्षण भी गैर-कानूनी है. गैरकानूनी होने के बाद भी दहेज़ का चलन समाज में कभी रुका ही नहीं और न ही सरकार की तरफ से कई सार्थक पहल इस दिशा में की गयी. एक अनुमान है कि हमारे देश में दहेज़ की औसत रकम लडकी के परिवार की वार्षिक कुल कमाई की 6 गुना रकम से भी अधिक होती है.

दहेज़ हमारे समाज की एक गंभीर समस्या है. पहले माना जाता था कि जब लडकियां पढ़ लिख कर स्वावलंबी होने लगेंगी तब यह समस्या खत्मं हो जायेगी या कम हो जायेगी. लडकियां पढ़ लिख कर बहुत आगे बढ़ गयीं, पर दहेज़ प्रथा और मजबूत होता गया. समाचार पत्रों को ध्यान से देखें तो हरेक दूसरे-तीसरे दिन दहेज़ के लिए महिलाओं के हत्या की खबर आती है, इनमें कोई पेशेवर डॉक्टर होती है, वकील होती हैं, इंजीनियर भी होती हैं और पुलिस भी होती हैं. अभी हाल में ही गुजरात से एक खबर आई थी, जिसके अनुसार गुजरात पुलिस की सब-इंस्पेक्टर को उसके पति और पति के घरवालों ने दहेज़ के लिए मार डाला. नॅशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2016 के दौरान कुल 10378 महिलाओं को दहेज़ की मांग पूरी नहीं होने के कारण मार डाला गया, यानि कुल 28 महिलायें प्रतिदिन दाहें के नाम पर मारी गयीं. वास्तविक संख्या इससे बहुत अधिक होगी क्यों कि अधिकतर मामलों में शिकायत पुलिस तक नहीं पहुँचती, या फिर शिकायत के बाद भी पुलिस केस दर्ज नहीं करती.

समाज में लड़कियों की हालत तो पुरुषों और महिलाओं के अनुपात से ही समझ में आ जाता है. वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार प्रति 1000 पुरुषों पर महिलाओं की संख्या महज 914 है. सीआईए वर्ल्ड फैक्टबुक 2016 के अनुसार विश्व स्तर पर भी पुरुष/महिला अनुपात में हम फिसड्डी हैं, केवल तीन देश ऐसे हैं जो इस सन्दर्भ में हमसे भी अधिक पीछे हैं. प्रति 100 महिलाओं की तुलना में पुरुषों की संख्या लिचतेस्टीन में 126, चीन में 115, अर्मेनिआ में 113 और भारत में 112 है. पड़ोसी देश पाकिस्तान और नेपाल में यह संख्या क्रमशः 105 और 104 है.

हमारे देश में लडकी बचाओ, लड़की पढ़ाओ के नारों के बीच युवाओं में लड़कियों और लड़कों का अनुपात राष्ट्रीय अनुपात से भी बदतर है और दुखद तो यह है कि भविष्य में इसके और बुरे होने के आसार हैं. 2017 में मिनिस्ट्री ऑफ़ स्टेटिस्टिक्स एंड प्रोग्राम इम्प्लीमेंटेशन द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट, यूथ इन इंडिया, के अनुसार 2011 के जनगणना में 15 से 34 वर्ष के बीच की आबादी में 1000 पुरुषों की तुलना में मात्र 939 महिलायें थीं जबकि 1971 में इनकी संख्या 961 थी. अनुमान है कि वर्ष 2011 और 2031 में इस आयु वर्ग में 1000 पुरुषों पर क्रमशः 904 और 898 महिलायें होंगी.

अनेक अध्ययन बताते हैं कि हमारे देश में जितनी महिलायें हैं उससे 6.3 करोड़ महिलायें अधिक होनी चाहिए पर भ्रूण हत्या, उपेक्षा, और दहेज़ इनकी संख्या लगातार कम कर रहा है.