8 मार्च को दुनिया भर में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के रुप में मनाया जाता है। भारत में ही नहीं दुनियाभर में भी महिला मुक्ति को ग्लैमराइज कर पैश किया जाता है। हमारे यहां मिस इण्डिया और मिस फेमिना के नाम से महिला सशक्तिकरण की बात की जाती है और महिलाओं के मुख्य संघर्ष की बात पीछे कर दी जाती है। यह दिवस मात्र महिलाओं के प्रति अपने प्यार को अभिव्यक्त करने हेतु एक तरह से मातृ दिवस और वेलेंटाइन डे की ही तरह एक अवसर बनकर रह गया है। हालांकि, कुछ क्षेत्रों में संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर से चयनित इस दिवस को महिलाओं के राजनैतिक एवं सामाजिक उत्थान के लिए अभी भी बडे़ जोर-शोर से मनाया जाता है।

महिला दिवस का अपना शानदार इतिहास है जिसकी शुरूआत करने का श्रेय क्लारा जेटकिन को जाता है। 5 जुलाई, 1857 को जर्मन प्रान्त के किंगडम ऑफ सेक्सोनी में जन्मी क्लारा ने हमेशा ही बुर्जुआ नारीवाद का विरोध किया। उनका मानना था कि मजदूर वर्ग को एकजुट करने में बुर्जुआ नारीवाद सबसे बड़ी रुकावट है। 1899 के द्वितीय अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में वह कहती हैं कि बुर्जुआ नारीवादी केवल कुलीन वर्ग और मध्यम वर्ग की महिलाओं की बात करते हैं, जो कि मजदूर वर्ग की महिलाओ के हितों के विरोधी है। उसकी पहली शर्त है कि महिलाएं घर से बाहर निकलें, मजदूर संगठित हों और अपने अधिकारों की मांग करें।

1908 में 15,000 महिलाओं ने न्यूयार्क सिटी में वोटिंग अधिकार, काम के घंटे कम करने और उचित वेतन के लिए मार्च निकाला। एक साल बाद अमेरिका की सोशलिस्ट पार्टी की घोषणा के अनुसार 1909 में अमेरिका में पहला राष्ट्रीय महिला दिवस 28 फरवरी को मनाया गया। 1910 में क्लारा जेटकिन ने अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाने का विचार रखा। उन्होंने सुझाव दिया कि महिलाओं को अपनी मांगें आगे बढ़ाने के लिए हर देश में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाना चाहिए। एक कांफ्रेंस में 17 देशो की 100 से ज्यादा महिलाओं ने इस सुझाव पर सहमति जताई और 19 मार्च, 1911 को पहली बार आस्ट्रिया, डेनमार्क, जर्मनी और स्विटजरलैंड में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया। 1913 में इसे यूरोपियन कैलेण्डर के अनुसार 8 मार्च कर दिया गया और तब से आज तक हर साल 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाने लगा।

1857 से लेकर 1947 तक दुनिया के अलग-अलग भागों में अपने अधिकारों के लिए महिलायें आवाज बुलन्द कर रहीं थीं, जिसका प्रभाव भारत पर पड़ना स्वाभाविक था। लेकिन आजादी की मांग के आगे महिला आन्दोलन को उचित जगह ही नहीं दी गई। भारत में महिलाओं ने न केवल आजादी के आन्दोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया, बल्कि सामन्ती बेड़ियों को तोड़ने का भी प्रयास किया। आजादी से पहले महिलाओं की हालत मे सुधार की बात करते हैं तो हमारे मस्तिष्क में दयानन्द सरस्वती, राजाराम मोहन राय, ईष्वर चन्द्र विद्यासागर, स्वामी विवेकानन्द, महात्मा गांधी आदि समाज सुधारकों के नाम आ जाते हैं। महिला समाज सुधारकों में हम एनी बेसेन्ट और सावित्रीबाई फुले के अलावा किसी और महिला का नाम नहीं जानते। लेकिन इन समाज सुधारकों के अतिरिक्त भी कई ऐसी महिलाएं हैं जो आजादी की लड़ाई लड़ने के साथ-साथ महिला अधिकारों के लिए भी संघर्ष कर रहीं थीं।

3 जनवरी, 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिले में जन्मी सावित्रीबाई फुले का विवाह नौ साल की छोटी आयु में ज्योतिबा फुले के साथ हुआ था। ज्योतिबा ने ही उन्हें पढ़ना-लिखना सिखाया। बाद में सावित्रीबाई ने दलित समाज की ही नहीं, बल्कि देश की प्रथम शिक्षिका होने का गौरव प्राप्त किया। उस समय लड़कियों को दोयम दर्जे का प्राणी माना जाता था। ऐसे में लड़कियों की षिक्षा की बात करना दूर की बात थी। लेकिन ज्योतिबा और सावित्रीबाई ने सन् 1848 में लड़कियों के लिए एक विद्यालय खोला। यह भारत में लड़कियों के लिए खुलने वाला पहला स्त्री विद्यालय था। सचमुच जहां आज तक हम लैंगिक समानता के लिए संघर्ष कर रहे हैं वहीं अंग्रेजों के जमाने में भी सिर्फ आजादी की बात होती थी। सावित्रीबाई फुले ने एक दलित महिला होते हुए हिन्दू समाज में व्याप्त कुरितियों के खिलाफ जो संघर्ष किया, वह अभूतपूर्व था।

इसी कड़ी में एक नाम ताराबाई शिदे का भी आता है। ताराबाई का जन्म 1850 में मराठी परिवार में हुआ। उनके पिता ज्योतिबा फुले ब्राह्मण विरोधी आन्दोलन से जुड़े हुए थे, जिसका प्रभाव ताराबाई पर भी पड़ा। एक शिक्षित परिवार और समाज सुधारक संस्था से जुड़े होने के कारण ताराबाई को शिक्षा प्राप्त हुई। ताराबाई ने मराठी के साथ ही अंग्रेजी और संस्कृत का भी अध्ययन किया। वह निःसंतान विधवा थी। इन्हें भारत की पहली नारीवादी आलोचक के रुप में माना जा सकता है। इन्होंने जाति और पितृसता का प्रबल विरोध अपनी रचना ‘स्त्री पुरुश तुलना’ के माध्यम से किया।

तत्कालीन समाज में स्त्री के तनावग्रस्त जीवन यथार्थ को यहां वाणी मिली। पुरुश वर्चस्व वाले समाज में स्त्री चेतना ने प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया। उस समय के समाज मे विधवा की दयनीय स्थिति की ओर ध्यान से सोचने के लिए लोंगो को मजबूर किया। ताराबाई ने समाज की ओर से विधवा पर किए जाने वाले अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाई। आक्रोश भरे स्वर में पुरुषो के समाज को चुनौती देती हुई कहती है कि ‘‘पत्नी के मरते ही दूसरा विवाह करने की आजादी यदि पुरुषों को है तो फिर कौन सी ताकत है जो विधवाओं को पुनर्विवाह करने से रोकती है?’’ उन्नीसवीं सदी में किए गए इन सवालों के जरिये ताराबाई ने बेआवाज़ दिखने वाली भारतीय स्त्रियों के बोल को स्वर दिए। स्त्री-पुरुष समानता पर बल देते हुए लिंगभेद के आधार पर स्त्री-पुरुष के अधिकारों में फर्क करने और दोहरे मापदंड बरतने के खिलाफ आवाज उठाई। वह बार-बार पूछती है कि ‘‘पुरुष अपने आप को स्त्रियों से इतना भिन्न क्यों समझता है? स्त्री की तुलना में वह खुद को इतना महान और बुद्धिमान क्यों समझता है? अगर वे इतने ही महान थे तो अंग्रेजो के गुलाम कैसे बन गए? उनके बीच ऐसी क्या भिन्नता है कि पत्नी के मरने से पति पर कोई आफत नहीं आती-वह जब चाहे दूसरा विवाह कर ले? लेकिन पति के मरने से विधवा स्त्री को ऐसे-ऐसे दुःख दिए जाते हैं मानो उसी ने अपने पति को मारा हो? ये दोहरे मापदंड क्यों, जबकि स्त्री-पुरुष की यौन इच्छाओं मंे कोई भेद नहीं? ताराबाई ने उस समय धर्म में व्याप्त कुरीतियों की खुल कर भर्त्सना की। वह अपनी पुस्तक ‘स्त्री-पुरुष तुलना’ में लिखती हैं कि ’धर्माचार्यो ने शास्त्रों में सब नियम पुरुषों की सुख-सुविधा का ख्याल रखकर बनाये हैं, स्त्रियों के लिए नही’। पुरुष प्रधान संस्कृति में घर के चारदीवारी के भीतर बाहरी दुनियां से दूर पड़ी रहने वाली भारतीय नारी की दशा की तीखे शब्दों में वह आलोचना करती हैं।

22 नवंबर, 1864 को जन्मी रुखमाबाई औपनिवेषिक भारत की पहली महिला डाक्टर होने के साथ-साथ 1884 और 1888 के बीच बाल विवाह के रुप में अपनी शादी से जुड़े एक कानूनी मामले मे शामिल होने के लिए जानी जाती है। उस समय के भारतीय समाज में नौ वर्ष की आयु होते ही लड़कियों की शादी कर दी जाती थी और माहवारी आने के बाद पिता के घर से विदा की जाती थी। रुकमाबाई के 11 वर्ष की उम्र होने पर माहवारी आ गई, उसके बाद उनके ससुराल वालों ने ससुराल आने का दबाव बनाया। लेकिन वह पिता के घर पर रह कर अपनी पढ़ाई जारी रखना चाहती थी, इसलिए उन्होंने ससुराल जाने से मना कर दिया। इस फैसले में उनके पिता ने उनका साथ दिया। मामला कोर्ट तक गया। इस मामले ने समाज के विभिन्न वर्गों से आलोचनाओं को हवा दी। बाल गंगाधर तिलक के साप्ताहिक पत्रिका केसरी में लिखा गया कि रुखमाबाई की अवज्ञा अंग्रेजी षिक्षा का परिणाम थी और घोषित किया गया कि हिंदू धर्म खतरे में था। ज्ञातव्य हो कि उस वक्त महिला मुददों को इतनी गंभीरता से नहीं लिया गया, देश की आजादी के आगे महिला की अपनी इच्छा की बात करनी बेमानी थी। उस पर भारतीय संस्कृति पर विदेषी का प्रभाव पड़ रहा था इसलिए कुछ राष्ट्रवादियों को भारतीय संस्कृति को बनाये रखने की चिंता सताने लगी थी। इसलिए ‘हिन्दू संस्कृति बनाम अंग्रेजी कानून‘ पर बहस षुरु हो गई। अंग्रेजी हुकुमत भारतीय हिन्दू संस्कृति में ज्यादा हस्तक्षेप कर हिन्दू बुद्धिजीवी वर्ग को भड़काना नहीं चाहती थी। परिणामस्वरुप, 4 मार्च, 1887 को न्यायमूर्ति फ़रानन ने हिंदू कानूनों की व्याख्या का हवाला देते हुए रुखमाबाई को अपने पति के साथ रहने या छह महीने की कैद करने का आदेश दिया।। रुखमाबाई ने पति के घर जाने के बजाय छह महीने की कारावास को स्वीकार किया। इस मामले ने भारत और इंग्लैंड के बीच काफी बहस पैदा की। इस मामले से उत्पन्न प्रचार और बहस ने 1891 में ‘‘एज ऑफ कंसेंट एक्ट’’ के अधिनियमन को प्रभावित किया, जिससे ब्रिटिश भारत में विवाह की उम्र दस से बारह साल में बदल दिया गया और ‘आयु की सहमति अधिनियम 1891‘ पास हुआ। 1894 में उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ मेडिसिन से अपनी डॉक्टर ऑफ मेडिसिन की डिग्री प्राप्त की।

उन्नीसवीं शताब्दी में स्वतंत्रता आन्दोलन जोरों पर था। महात्मा गांधी और सुभाश चन्द्र जैसे मजबूत नेताओं ने महिलाओं को प्रोत्साहन दिया और आजादी की लड़ाई में साथ-साथ रखा। परन्तु महिलाओं के अधिकार और आजादी की लड़ाई के मुद्दे हमेशा गौण बने रहे। यही कारण था कि जब डॅा. अंबेडकर ने हिन्दू कोड बिल के द्वारा ऊंची जाति की महिलाओं को अधिकार देने की बात की तो सभी हिन्दू बहुल भड़क गए और अंबेडकर को सभा छोड़नी पड़ी। आज महिलाओं को लेकर पुरु। मानसिकता में बहुत परिवर्तन नहीं आया है। आज भी जब महिलाओं के अधिकारों की बात की जाती है तो पितृसत्तावादी सोच वाले लोग भड़क जाते हैं।