एक इंटरव्यू के सिलसिले में काफी साल पहले मैं कुंदन शाह से मिलने उनके सामन्य से सायन फ्लैट गयी। मैं एक टेलीविजन मैगेजीन के लिए टेलीविजन अभिनेताओं और निर्देशकों पर, एक सीरीज़ पर काम कर रही थी। उस समय उनका कॉमेडी सिटकॉमये जो है जिंदगी बहुत पसंद किया जा रहा था जिसके अगले कॉमेडी एपिसोड का इंतज़ार टीवी दर्शक हर शुक्रवार की शाम बेसब्री से किया करता था।

हालांकि निर्देशक क्रेडिट तीन अच्छे निर्देशकों कुंदन शाह, मंजुल सिन्हा और रमन कुमार के बीच साझा किया गया था, पर जिन्होंने शाह की पहली फिल्म जाने भी दो यारों देखी थी वो उनके द्वारा निर्देशित एपिसोड की बेहद आसानी से पहचान सकते थे,ब्लैक कॉमेडी में उनका कोई सानी नहीं था, भारतीय सिनेमा को कभी कोई उत्तराधिकारी नहीं मिला जो उनकी समझ के झंडे को थाम सके और फिर आगे ले जा सके। अगर सोचें तो निकटतम उत्तराधिकारी के रूप में कई साल बाद आयी खोसला का घोंसला में दिबाकर बनर्जी के निर्देशिन को कह सकतें हैं । लेकिन आज भी जान भी दो यारों भारतीय सिनेमा इतिहास की बेहतरीन ब्लैक कॉमेडी बनी हुई है।

कुंदन शाह हम सब के बीच से निकले हुए इकदम आम से इंसान थे, उन्हें अपनी पहली फिल्म के कारण मिली शोहरत और मकबूलियत का एहसास नहीं था।

साक्षात्कार बहुत अच्छी तरह गया, यद्यपि मैंने जो नोट्स लिए थे और शाह के अंक की कॉपी खो गयी, पर मैंने इसे अपने कैरियर के दौरान एक सिनेमा व्यक्तित्व के सबसे यादगार साक्षात्कारों में से एक के रूप में चिह्नित किया है। ये जो है जिंदगी, पहले सिटकॉम में से एक थी और भारतीय टेलीविजन पर सबसे बड़े हिट शो में से एक रही, राज्य दूरदर्शन के बाद इसे दूरदर्शन ने अपने कार्यक्रमों में प्रसारित करना शुरू कर दिया था।

ये जो है जिंदगी के यूएसपी में से एक थे अभिनेता सतीश शाह, उनकी विशेषता उनके किरदारों में थी, जिसने प्रत्येक एपिसोड में चोर से फर्नीचर सेल्समैन से ले कर वकील तक के अलग-अलग किरदारों को निभाया, जो किरदार हर बार एक अलग सी हंसी के लिए था। एक एपिसोड मुझे बहुत स्पष्ट रूप से याद है, जिसमें सतीश शाह ढीले पजामा पर एक लंबा कुर्ता पहनते हैं, एक कंधे पर झोला लेते है और फिर एक बोतल लेते हैं। यह देवदास का किरदार हास्य से भरा हुआ था और हमेशा याद रखे जाने वाला रहेगा। शाह ने एक लुटे पिटे प्रेमी की भूमिका निभाई जो बोतल की तरफ इसलिए जाता है क्योंकि उसे लगता है उसके प्यार ने उसे छोड़ दिया है और सतीश शाह ने इसे बखूबी निभाया हर कोई देवदास की त्रासदी पर हँसे बिना नहीं रह सकता था, और उसपे खेद भी महसूस करता था ।

नुक्कड़ (स्ट्रीट कॉर्नर) (1986 से 1987) 40 एपिसोडों में प्रसारित किया गया था और टेलिओपैड एक टेलीविजन था जिसे आसानी से इसी श्रृंखला में पहचाना जा सकता है। यह संयुक्त रूप से कुंदन शाह और अख्तर मिर्जा द्वारा निर्देशित किया गया था और पूरी तरह से एक किरदारों पे आधारित सीरीज़ थी, जो शीर्षक के हिसाब से बहुत स्टेरिओ टाइप भूमिका थी, लेकिन संघर्ष, भावनाओं के मजाक और दुख के सिरों को उन्हें बदल कर एक अलग तरह का मनोरंजक इसे बना दिया था।

धारावाहिक दलित और गरीबों पर केंद्रित था -भिखारी, शराबी, शिक्षक, बिजली मिस्त्री, छोटे-छोटे शहर के रेस्तरां मालिक, साइकिल की मरम्मत करने वाली दुकान, पान वाले, वेटर, सफाई कर्मचारी, बेरोजगार शायर, शादी ब्याह में बाजा बजाने वाला, दलाल, एक चांदी की दुकान चलाने वाला, एक जनरल स्टोर चलाने वाला, हवलदार, घरेलू नौकरानी, आदि बहुत से यादगार किरदारों से ये नुक्कड़ सजा हुआ था ।

जब नक्कड़ के प्रसारण की श्रृंखला समाप्त हुई, कुंदन शाह का एक और धारावाहिक शुरू हुआ वागले की दुनिया (शाब्दिक: 'वैगल वर्ल्ड') । यह प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट आर.के. लक्ष्मण के "दी कॉमन मैन" कार्टून, जो हर दिन एक राष्ट्रीय दैनिक में आता था,का एक टीवी संस्करण था। यह दुर्गा खोटे द्वारा निर्मित और शाह द्वारा निर्देशित किया गया था , दूरदर्शन ने 1988 से 1990 तक इसे अपने चैनल पर इसे चलाया। अगर नुक्कड़ ने निचले मध्य और मज़दूर वर्ग को आईना दिखाया , तो वागले की दुनिया ने दैनिक संघर्ष और समस्याओं को शहरी मध्यम वर्ग का प्रतीक वागले के किरदार से जोड़ा है, एक ऐसा किरदार जिसने अंजन श्रीवास्तव को घरेलू नाम दिया और भारती आचरेकर ने उनकी पत्नी की भूमिका निभाई, जो हर एक की पहली पसंदीदा अभिनेत्री हो गयी थी।

कुंदन शाह निर्देशन में एफटीआईआई पास आउट थे। अपनी पहली निर्देशन की शुरुआत के लिए, वह राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम से प्रोडिउस कराने में सफल रहे। यह जाने भी दो यारो (1983) की पूर्व कहानी थी, जिसके लिए निर्देशन में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त किया था। सबसे दिलचस्प हिस्सा यह है कि उन्होंने अपने कई एफटीआईआई के दोस्तों को फिल्म में अभिनय करने के लिए इकट्ठा किया, जो बाद में अभिनेताओं के रूप में घर घर में बहुत लोकप्रिय हो गए। आप उनमें सतीश कौशिक, सतीश शाह, नीना गुप्ता, ओम पुरी, पंकज कपूर, नसीरुद्दीन शाह और रवि बासवानी को देख सकते हैं। एकमात्र अपवाद मुझे लगता है कि भक्ति बर्वे रही जिन्होंने एक पत्रिका के भ्रष्ट संपादक को चित्रित किया था जो मराठी थिएटर से आई थी । 'इंडियाटाइम्स मूवीज़' की 'टॉप 25 बॉलीवुड फिल्म्स' में जाने भी दो यारों का नाम शामिल है। यह फिल्म 2006 में भारत अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में एनएफडीसी का प्रतिनिधित्व किया।

उनकी अगली फिल्म ग्यारह साल बाद आई थी। कभी हाँ कभी ना (1994) जिसने नायक की एक असामान्य कहानी में साधारण लड़का है जो अपने भोले माता-पिता से झूठ बोलता है जो उसका विश्वास करते हैं। क्या कहना (2000) में कुंदन शाह इकदम अलग फिल्म निर्माण और फिल्मों के बदलते माहौल में दिखाई देते है, जिसमें ग्लैमर, चुट्ज़पा, बहुत सारे रंग और काफी अच्छे स्टार के नाम हैं।

कई सालों बाद, मैं उनसे फिर से एफटीआईआई पुणे के परिसर में मिली और जब मैंने परिचय याद दिलाया, तो उन्होंने मुझे बिल्कुल नहीं पहचाना, लेकिन ऐसा दिखाया कि उन्होंने पहचान लिया। वह अपनी बेटी की प्रतीक्षा कर रहे थे, जो एडमिशन के पहले अपना वाइवा दे रही थी । जिस कद के वो निर्देशक थे उसका फायेदा उठाते हुए आसानी से पिछले दरवाज़े से प्रवेश की मांग कर सकते थे, खासकर जब वह उसी संस्थान के पूर्व छात्र थे। किसी भी सामान्य माता-पिता की तरह, वह चिंतित था कि उनकी बेटी कैसा वाईवा देगी। वह मुस्कुराये और हमने थोड़ी देर बातचीत की । जब मैंने उनकी पत्नी के बारे में उनसे पूछा, उन्होंने कहा कि वह छात्रावास में रिक्तियों के बारे में पता करने के लिए गयी है! कल्पना कीजिये कुंदन शाह जैसे निर्देशक का सामान्य माता-पिता की तरह संस्थान में अपने बच्चे के दाखिले के लिए जाना ! वह शर्मीले, हमेशा मुस्कुराने वाली शख्सियत थे और जो कोई उनको नहीं जानता है, वो उनकी फिल्मों और उन धारावाहिकों के साथ ख़ुदको जोड़ लेगा, जो लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी कुछ ईमानदार मुस्कान छोड़ जाती हैं !