जो जगह पत्रकारों की है, वहां आज मालिक अध्यक्षी का चुनाव लड़ रहे हैं। अच्छे दिन मितरों…!
जो जगह पत्रकारों की है, वहां आज मालिक अध्यक्षी का चुनाव लड़ रहे हैं। अच्छे दिन मितरों…!
तीन दिन हो गए दि कारवां में सीबीआइ जज बृजगोपाल हरकिशन लोया की तीन साल पहले हुई मौत का विवरण छपे हुए, लेकिन दो-तीन वेबसाइटों को छोड़ दें तो मुख्यधारा के किसी अख़बार या टीवी चैनल से इसे उठाना मुनासिब नहीं समझा। रवीश कुमार ने 22 नवंबर की शाम प्राइम टाइम पर कहा कि दो दिनों से दिल्ली में बर्फ की सिल्ली गिर रही है लेकिन कोई इस पर बात नहीं करना चाहता। आखिर क्यों? दिल्ली के पत्रकार क्या डरे हुए हैं? कथित राष्ट्रीय मीडिया क्या एक जज की मौत पर तीन साल की देरी से हुए अहम उद्घाटन को ख़बर नहीं मानता? इसमें से कोई भी कारण सही या गलत हो सकता है लेकिन एक बात तयशुदा तौर पर सही है और वो ये, कि दिल्ली का मीडिया इस देश में हो रहे तमाम भ्रष्ट आचरणों और बुराइयों का बराबर साझीदार है। प्रेस क्लब ऑफ इंडिया का 25 नवंबर को होने जा रहा चुनाव इस हकीकत की ताकीद करता है जहां मुलाजिम पत्रकारों के बीच एक मीडिया मालिक और कारोबारी अध्यक्ष के पद पर खड़ा है। क्या पत्रकारों को गवारा होगा कि उनकी प्रतिनिधि संस्था का अध्यक्ष एक कारोबारी हो? क्या मजदूर और मालिक के बीच का फ़र्क मिट चुका है? क्या आगामी प्रेस क्लब चुनाव मीडिया में ट्रेड यूनियन राजनीति के अवशेष के अंत का आग़ाज़ है? भारत के सबसे बड़े प्रेस क्लब में आजकल क्या चल रहा है, जानने के लिए पढ़ें पूरी रिपोर्ट – संपादक
पत्रकार बनाम मीडिया मालिक
जब पूंछ दबी हो, तो जज क्या चीज़ है, अपने साथी पत्रकार के बारे में भी पत्रकार मुंह नहीं खोलते। अब किस की पूंछ कहां दबी है ये पता करने वाली बात है, लेकिन दिल्ली के प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में चुनावी दौड़ के बीच जो घट रहा है वह दिखाता है कि पत्रकारिता और पत्रकारेतर गतिविधियों के बीच का फ़र्क खत्म हो चुका है और बात स्वीकार की जा चुकी है। संदर्भ प्रेस क्लब ऑफ इंडिया के चुनाव का है और विषय अध्यक्ष पद पर खड़े अनिकेंद्र नाथ सेन उर्फ बादशाह सेन नाम के एक पुराने पत्रकार से जुड़ा है, जो कॉरपोरेट मामलों के मंत्रालय के मुताबिक फिलहाल बारह कंपनियों में निदेशक है और एक कंपनी एशिया पैसिफिक कम्युनिकेशंस एसोसिएट्स (आप्का) में चेयरमैन है, जिसके दिलीप पडगांवकर पहले चेयरमैन हुआ करते थे और सेन निदेशक। इस कंपनी को एफडीआइ के रास्ते नेपाल में दो अख़बार शुरू करने का श्रेय जाता है- ”दि हिमालयन टाइम्स” और ”अन्नपूर्णा पोस्ट”। आप्का की मॉरीशस स्थित अनुषंगी इकाई वहां भी अख़बार निकालती है- फ्रेंच में दैनिक ”ला माटिनल”, साप्ताहिक फुटबॉल मैगज़ीन ”फुटबॉल मानिया”, घुड़दौड़ पर एक साप्ताहिक पत्रिका ”टर्फ” और अंग्रेज़ी में दैनिक ”दि इंडिपेंडेंट डेली”।
नेपाल में अख़बार निकालने वाली कंपनी अब इनके हाथ में नहीं है। उसे नेपाली प्रबंधन चलाता है हालांकि जब ”दि हिमालयन टाइम्स” शुरू होने वाला था तो नेपाल के मीडिया जगत में भारत से ‘अवैध तरीके’ से आए विदेशी निवेश पर काफी हो-हल्ला मचा था। यह एक अलहदा कहानी है जिस पर हम आगे बात करेंगे। मॉरीशस में अखबार निकालने वाली कंपनी आप्का मॉरीशस प्राइवेट लिमिटेड पूरी तरह भारतीय मूल कंपनी आप्का प्राइवेट लिमिटेड की अनुषंगी है, जिसके चेयरमैन अनिकेंद्र नाथ सेन हैं।
लिहाजा प्रथम दृष्टया यह प्रतीत होता है कि अनिकेंद्र नाथ सेन बुनियादी रूप से मीडिया मालिक हैं जिनके विदेशी मीडिया में हित जुड़े हैं। तो पहला सवाल- क्या एक मीडिया मालिक को पत्रकारों के प्रतिनिधि संगठन प्रेस क्लब ऑफ इंडिया के अध्यक्ष पद के लिए लड़वाया जाना चाहिए? यह सवाल दो कारणों से मौजूं है। पहला कारण पिछले दिनों एनडीटीवी के मालिक प्रणय रॉय के समर्थन में प्रेस क्लब में हुए जुटान से जुड़ता है जब उनके खिलाफ केंद्र सरकार ने आंख टेढ़ी की थी। उस वक्त उनके समर्थन में प्रेस क्लब में भारी मजमा लगा था। बाद में प्रेस क्लब प्रबंधन की इस बात पर खूब आलोचना भी हुई कि आखिर एक मीडिया मालिक के यहां पड़े छापे को पत्रकारों के हितों के साथ जोड़कर कैसे देखा जा सकता है। सवाल उठाए गए कि जो प्रणय रॉय बरसों पत्रकारों के हित में कभी खड़े नहीं हुए, उनके साथ दो कदम नहीं चले, उनकी कारगुज़ारियों पर छापा पड़ने पर पत्रकारों को उनके साथ आने की ज़रूरत क्या है। मालिक और मजदूर का बुनियादी फ़र्क तो बना ही रहना चाहिए।
इस सवाल को मौके पर ही दरकिनार कर दिया गया। अव्वल तो इसलिए कि यहीं एक अलग आयोजन कर के यह सवाल उठाने वाले लोग ज्यादातर सत्ताधारी पार्टी के गलियारों से जुड़े थे। दूसरे, राष्ट्रीय मीडिया और उसके प्रतिनिधि संस्थानों में एक अवचेतन ‘वर्गहित’ काम करता है जो ‘अपने लोग’ और ‘उनके लोग’ की दुई से संचालित होता है। बड़े पत्रकार पी. साइनाथ इसे ‘पीएलयू’ फैक्टर कहते हैं। पीएलयू मने पीपुल लाइक अस यानी अपने जैसे लोग। ज़ाहिर है, एनडीटीवी के मालिक की वित्तीय अनियमितताओं के विरोध को अभिव्यक्ति की आज़ादी का विरोध समझ लिया गया और सवाल को हवा में उड़ा दिया गया। प्रेस क्लब के मौजूदा प्रबंधन ने भले दोनों स्वरों को अपने यहां एक के बाद एक जगह दी, लेकिन पीएलयू फैक्टर उसकी शिराओं में कायम रहा।
इसी पीएलयू फैक्टर का प्रतिबिंब है इस बार एक मीडिया मालिक का चुनाव में खड़ा होना। बचाव में कैसे-कैसे तर्क दिए जा रहे हैं, उन्हें भी ध्यान से देखें। कोई कह रहा है कि पत्रकार का उद्यमी होना किसी को चुनाव लड़ने के अयोग्य नहीं कर देता। इस तर्क का विस्तार मुकेश अम्बानी तक जा सकता है, इसका ख़तरा बादशाह सेन के पैरोकारों को बेशक दिखता होगा। एक तर्क यह दिया जा रहा है कि वे अच्छे संपादक थे। इससे कहां इनकार है। सवाल तो उनके संपादकी छोड़ने के बाद की अवधि में उनके उद्यमों पर है। तीसरा तर्क ऐसा है जिससे कोई असहमत नहीं हो सकता- वे महान कम्युनिस्ट नेता मोहित सेन के परिवार से हैं। बात-बात पर कांग्रेस, समाजवादी पार्टी औश्र आरजेडी में परिवारवाद का विरोध करने वालों के मुंह से यह बात हज़म नहीं होती। कम्युनिस्ट परिवार का होने से परिवारवाद जैसी सामंती मानसिकता को रियायत मिल जाती है क्या?
बहरहाल, मीडिया मालिक का पत्रकारों के बीच खड़ा होना वर्ग समन्वय का अनूठा उदाहरण है जिसकी शुरुआत मीडिया में एनडीटीवी के मालिकान के समर्थन से हुई है। विडंबना देखिए। सेन के पैनल का मौजूदा प्रबंधन पर एक आरोप यह है कि इस प्रबंधन ने मीडिया मजदूरों के हित में मजीठिया आयोग का मुद्दा कभी नहीं उठाया। मजीठिया एक ऐसा मामला है जहां एक से एक कलमवीरों ने नौकरी के चक्कर में कलम गिरवी रख दी। खुद पत्रकारों ने सरेंडर मार दिया। जो पत्रकार खड़े रहे, उन्हें सलाम है। सवाल उठता है कि अगर सेन जीत जाते हैं तो क्या वे खुद मजीठिया का सवाल उठाएंगे? जब औसत पत्रकारों का पैनल इतने साल से मजीठिया पर नहीं बोला, तो एक मीडिया मालिक की अध्यक्षता वाले पैनल से आप इसकी उम्मीद कैसे कर सकते हैं। आपकी पोज़ीशन से ही तर्क में विसंगति पैदा हो जाती है।
मीडिया से पावर तक
सेन जिस कंपनी आप्का के चेयरमैन हैं, वह 1994 में बनाई गई थी जब दिलीप पडगांवकर सहित उन्होंने टाइम्स ऑफ इंडिया की नौकरी छोडी थी। उसके बाद से लेकर अब तक आप्का ने अपने कारोबार में जबरदस्त विस्तार किया और मीडिया से बाहर भी उसके हित पैदा हुए। इसकी अनुषंगी कई कंपनियां बंद हुईं और कई अब भी सक्रिय हैं। इन्हीं में एक है आप्का पावर, जिसने ऊर्जा क्षेत्र में कदम रखते हुए गुजरात के राजकोट में एक सौर ऊर्जा प्लांट लगाने का ठेका हासिल किया था। यह बात 2012 की है। आप्का का कारोबार नोएडा के सेक्टर-2 स्थित आप्का हाउस से चलता है। 15 अप्रैल 2011 को आप्का के बोर्ड का एक नोट (प्रमाणित प्रति) सार्वजनिक रूप से मौजूद है जिसमें निइेशक बोर्ड की एक बैठक के बारे में कहा गया है कि ”चेयरमैन (ए.एन. सेन) ने बोर्उ को गुजरात के राजकोट में 5 मेगावाट के सौर पावर प्लांट के क्रियान्वयन की सूचना दी और बोर्ड ने सभी निदेशकों की सहमति से एक प्रस्ताव पारित किया। यह प्रस्ताव नीचे है। इस पर आप्का पावर के प्रबंध निदेशक निकेश सिन्हा के दस्तखत हैं, जो कई कंपनियों में सेन के साथ सह-निदेशक हैं।
भारत सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने 16 मार्च 2012 को आप्का पावर के विवेक चौधरी के नाम एक पत्र भेजा जिसमें ”आप्का पावर द्वारा गुजरात में सौर ऊर्जा परियोजना” को मंजूरी दी गई थी। यह पत्र नीचे है।
साफ़ है कि सेन की कंपनी के हित दूसरे कारोबार में भी हैं। इसका पता उन तमाम कंपनियों की प्रोफाइल जांचने से लगता है सेन जिनसे अब तक जुड़े हुए हैं। इनमें विज्ञापन कंपनियां भी शामिल हैं।
बेरोज़गारी के इस दौर में बहुत से ऐसे पत्रकार हैं जो कंपनियां खोलते और बंद करते हैं। तमाम पत्रकार कंपनियां खोलकर भूल जाते हैं और उनके नाम कंपनी रजिस्ट्रार की साइट पर पड़े रहते हैं। यह एक सामान्य बात है, लेकिन आप्का कोई ऐसी अनजान कंपनी भी नहीं है। भले इस कंपनी की वेबसाइट, ट्विटर या फेसबुक अकाउंट आदि सक्रिय नहीं हैं, लेकिन एक दौर था जब आप्का को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बवाल खड़ा हुआ था। यह वही दौर था जब आप्का ने नेपाल में अपने कदम रखे थे और हिमालयन टाइम्स को शुरू किया था। उस दौर के नेपाली अख़बारों और वेबसाइटों की कतरनें बताती हैं कि नेपाली मीडिया के भीतर आप्का और दिलीप पडगांवकर की टीम को लेकर कितना रोष था।
नेपाली टाइम्स की साइट पर 26 सितंबर 2002 को एक ख़बर छपी थी जिसका शीर्षक था- APCA does it again. ख़बर कहती है:
”दि हिमालयन टाइम्स अख़बार के प्रकाशक आप्का ने एक बार फिर इस बारे में विवाद खड़ा कर दिया है कि मीडिया में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को मंजूरी दी जानी चाहिए या नहीं। नेशनल कम्युनिकेशन पॉलिसी के तहत हालांकि एफडीआइ की अनुमति नहीं है, लेकिन आप्का समूह ने अपना अंग्रेज़ी दैनिक पिछले साल हिमालय टाइम्स कंपनी के साथ मिलकर लॉन्च किया। बताया गया कि आप्का ने वित्तीय रूप से खराब स्थिति में चल रहे हिमालय टाइम्स में पैसा लगाने को मंजूरी दी, लेकिन इस समूह ने बदले में 44 मिलियन के निवेश से अपना ही नेपाली दैनिक निकालने की घोषणा कर डाली।”
दिलचस्प है कि हिमालयन टाइम्स के प्रकाशक और संपादक के रूप में जिस उज्ज्वल शर्मा का नाम प्रिंटलाइन में छपता था, उन्होंने अखबार शुरू होने के कुछ दिन बाद ही इस्तीफ़ा दे दिया था। उस वक्त काठमांडू पोस्ट और कान्तिपुर में तमाम रिपोर्टें छपी थीं कि कैसे चार कंपनियां इंटरनेशन मीडिया, आप्का नेपाल, आप्का इंडिया और समा प्रिंटर्स आपस में मिलकर नेपाल के एफडीआइ कानून का उल्लंघन कर रहे हैं। आप्का और इंटरनेशनल मीडिया नामक कंपनियों में रविन लामा का नाम प्रमोटर के रूप में सामने आता है जिन्होंने इस उद्यम में पांच करोड़ की राशि लगाई थी। इन्हीं लामा ने तीन करोड़ के उद्यम समा में शेयर भी खरीदे थे। समा प्रिंटर्स अनिकेद्र नाथ सेन की कंपनी है।
आप्का नेपाल आप्का इंडिया व लामा के बीच का संयुक्त उपक्रम था जिसे नेपाल में एक विज्ञापन एजेंसी और प्रिंटिंग प्लांट लगाने के लिए एफडीआइ मंजूरी मिली थी, अख़बार निकालने के लिए नहीं। यही वह तकनीकी बिंदु है जिसके आधार पर पूरा नेपाली मीडिया आप्का इंडिया का विरोध कर रहा था, जिसके चेयरमैन उस वक्त पड़गांवकर थे और निदेशक ए.एन. सेन थे।
इन आरोपों का जवाब देते हुए पाठकों के नाम रविन लामा ने एक लंबी चिट्ठी लिखी थी जिसमें बताया था कि ”आप्का नेपाल ‘हिज़ मैजेस्टी गवर्नमेंट’ (यानी राजा) द्वारा उनके नियमों के तहत एफडीआइ मंजूरी प्राप्त एक कंपनी है जो आप्का इंडिया, रविन लामा और भुवन म्हास्के के बीच का संयुक्त उपक्रम है। आप्का नेपाल का काम दि हिमालयन टाइम्स और अन्नपूर्णा पोस्ट का प्रसार और विज्ञापन देखना है, प्रकाशन करना नहीं।”
वे पत्र में बताते हैं कि दि हिमालयन टाइम्स का प्रकाशन करने वाली कंपनी का नाम है इंटरनेशनल मीडिया नेटवर्क नेपाल प्राइवेट लिमिटेड जो 100 फीसदी नेपाली कंपनी है जिसमें लामा और म्हास्के कुल 76 फीसदी शेयर हैं। इस कंपनी में कोई एफडीआइ नहीं है। उनके मुताबिक सेन की समा प्रिंटर्स को एफडीआइ मंजूरी मिली है जिसके 98 फीसदी शेयर भारत में आप्का के पास हैं और 2 फीसदी लामा और म्हास्के के पास। समा ही दि हिमालयन टाइम्स और अन्नपूर्णा पोस्ट दोनों को छापती है।
अब यह प्रकाशन और मुद्रण के बीच का जो फ़र्क है, आप्का ने उसी का लाभ उठाते हुए प्रिंटिंग में एफडीआइ मंजूरी ली और वहां दो अख़बार निकाल दिए। दरअसल, नेपाल के इंडस्ट्रियल एंटरप्राइजेज़ ऐक्ट के तहत ”प्रिंटिंग” और ”प्रेस” को अलग-अलग सेवा कारोबार के रूप में दर्ज किया गया है। नेपाली मीडिया इसी के आधार पर दो अख़बारों में भारत के निवेश को ”प्रच्छन्न” या ”पिछले दरवाजे से” निवेश का नाम दे रही थी और उसका विरोध कर रही थी।
नेपाली मीडिया के आरोप
इस ”प्रच्छन्न” निवेश का एक राजनीतिक आयाम भी था जिस पर 2002-03 में काफी बातें हुई थीं।
ऑनलाइन एशिया टाइम्स 21 जनवरी, 2003 के अंक में ध्रुब अधिकारी की एक स्टोरी छपी है जिसका शीर्षक है, ”Nepal jitters over foreign media investment”. वे लिखते हैं:
”दि हिमालयन टाइम्स, जो आप्का हाउस से चलता है, वह मुख्यत: भारत से ”आयातित” पत्रकारों द्वारा चलाया जाता है हालांकि संपादकीय के शीर्ष पद ऐसे लोगों को सौंपे गए हैं जिनके नाम सुनने में नेपाली जैसे लगते हैं।”
वे कहते हैं कि ब्रॉडशीट पर 12 रंगीन पन्नों पर छपने वाला दि हिमालयन टाइम्स और अन्नपूर्णा पोस्ट कौडि़यों के दाम बेचा जा रहा है- महज 2 नेपाली रुपया में। ”मीडिया के लोग मानते हैं कि इस दर पर तो कोई मुनाफा मुमकिन नहीं है। और विज्ञापनों की स्पेस तो सीमित ही है। फिर आखिर क्रूा वजह हो सकती है कि नेपाल में इन अखबारों को निकाला जा रहा है।”
आगे वे लिखते हैं:
”हिंदू साप्ताहिक उन कुछ अख़बारों में है जिसने संदेह जताया है कि टाइम्स और पोस्ट दोनों ही भारत की विदेशी एजेंसी रिसर्च एंड अनालिसिस विंग के फंड से वित्तपोषित हैं, लेकिन काठमांडू में भारतीय दूतावास ने इन रिपोर्टों पर आज तक कोई भी प्रतिक्रिया देने से परहेज़ किया है।”
ध्रुब अधिकारी अपने लेख में याद दिलाते हैं कि टाइम्स ऑफ इंडिया उन कुछ अखबारों में था जिसने भारत में प्रिंट मीडिया में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का विरोध किया था और उसके संपादक दिलीप पड़गांवकर इस मामले में एक ”क्रूसेडर” की भूमिका में हुआ करते थे। भारतीय प्रेस में ”वैचारिक वर्चस्व और राजनीतिक हस्तक्षेप” को लेकर उनके विचारों को काफी स्वीकार्यता मिली हुई थी। मरहूम पड़गांवकर ने कहा था, ”इस देश ने विदेशी फंड की ओर सं आंख मूंदकर बड़ी कीमत चुकायी है।”
ध्रुब एशिया टाइम्स में लिखते हैं:
”विडंबना है कि यह वही पड़गांवकर हैं जिनकी आप्का पर अब इसका बिलकुल उलटा काम नेपाल में करने के आरोप लग रहे हैं।” रिपोर्ट में नेपाली साप्ताहिक स्पॉटलाइट के संपादक माधव कुमार रिमाल को उद्धृत किया गया है, ”अगर मीडिया में बाहरी पैसा भारत के लिए नुकसानदेह है, तो भारत का पैसा नेपाल में अच्छा कैसे हो गया?”
दिलीप पड़गांवकर की टीम के एफडीआइ के बारे में बदले खयालात का अंदाजा 10 दिसंबर 2001 के आउटलुक में छपे विज्ञापन से मिलता है। ‘दि पीपुल्स रिव्यू’ नामक राजनीतिक और बिजनेस साप्ताहिक के 12 से 18 दिसंबर 2002 के अंक में बीएन दहाल की स्टोरी प्रकाशित है जिसमें आप्का के इस विज्ञापन का जि़क्र है, जो कहता है, ”नेपाल में मीडिया उद्योग अब पहले जैसा नहीं रह जाएगा। भारत के विशाल मीडिया समूह एशिया पैसिफिक कम्युनिकेशंस एसोसिएशन ने नेपाल में उसके मीडिया उद्योग को दोबारा परिभाषित करने के लिए रख दिए हैं अपने कदम…।”
दहाल की उक्त रिपोर्ट के मुताबिक उस वक्त दि हिमालयन टाइम्स और अन्नपूर्णा पोस्ट प्रकाशित करने वाली नेपाली कंपनी इंटरनेशनल मीडिया नेटवर्क प्रा. लि. के कुल 21.51 मिलियन के शेयरों में दिल्ली स्थित आप्का के 17 मिलियन के शेयर थे और उसका दैनिक प्रबंधन दिल्ली से ही संचालित किया जा रहा था। रिपोर्ट संपादक रविन लामा की नेपाली नागरिकता पर भी सवाल खड़ा करती है।
बैठने की एक अदद जगह
वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमडिया ने कुछ साल पहले जनसत्ता में एक लेख दिल्ली में कम होती बैठने-उठने की जगहों के बारे में लिखा था। उनका कहना था कि बढ़ते बाजार और शहरी अलगाव के कारण दिल्ली में सामूहिक रूप से बैठने की जगहों का संकट पैदा होता जा रहा है। यह बात इतने साल बाद आज किसी भी पत्रकार को शिद्दत से महसूस होती होगी, जो निकलता तो है दोस्तों-मित्रों से मिलने बतियाने लेकिन प्रेस क्लब ऑफ इंडिया के अलावा उसे चैन से बैठने की सस्ती सुविधाजनक जगह और कहीं नहीं दिखती। प्रेस क्लब के इस न्यूनतम जनवादी चरित्र को बचाए रखना कितना अहम है, यह बात बेरोज़गार और फ्रीलांस पत्रकारों से बेहतर और कोई महसूस नहीं कर सकता।
कुछ साल पहले प्रेस क्लब के प्रांगण में ब्रह्मोस मिसाइल का एक प्रतिरूप एक कोने में खड़ा कर दिया गया था। वह एक आम पत्रकार और क्लब के बीच धीरे-धीरे दीवार बन गया। पहले जो पत्रकार दालान में बैठकर सहज रूप से खाते-पीते और बोलते-बतियाते थे, उन्हें लगने लगा कि पीठ पीछे एक सूक्ष्म सैन्यवाद उन पर अब निगाह रख रहा है। यह व्यवहार की सहजता में एक मनोवैज्ञानिक अवरोध-सा था। रह-रह कर नज़र उधर ही चली जाती थी। यह प्रेस क्लब में समकालीन राष्ट्रवादी विमर्श की एक मौन शुरुआत थी। उस वक्त भी सवाल उठे थे इसे लेकर, लेकिन बैठने की न्यूनतम जगह को बचा ले जाने के चलते इसकी उपेक्षा की गई। मौके पर ही इस सवाल को संबोधित कर दिया जाता तो जो हादसा बाद में हुआ, वह शायद नहीं होता।
दरअसल, लगातार ज़रूरी सवालों को या सवाल उठाने वालों को ‘क्रांतिकारी’ कह कर, प्रश्नकर्ता की पीठ ठोंककर, ”अच्छा काम कर रहे हों”, ”लगे रहो” जैसे वाक्य कहकर विमर्श का भोंडा प्रहसन बना देने की यह प्रवृत्ति पत्रकारों में इधर बीच के दस वर्षों में आई है। कोई सवाल उठाता है तो पहले सवाल को उसके मेरिट या तथ्यों पर नहीं, सवाल पूछने वाले की अवस्थिति के आधार पर तौला जाता है। भले उसकी वैचारिक अवस्थिति सार्वजनिक हो तो क्या। जो पत्रकार ”शूट दि मैसेंजर” के खिलाफ़ नारे लगाते नहीं थकते हैं, वे अपने पाले पर खतरा उठता देख मैसेंजर को शूट करने में कोई कोताही नहीं बरतते। इस प्रवृत्ति ने दिल्ली में बैठने की अंतिम जगह को अनैतिकता के समुंदर में तब्दील कर दिया है।
बावजूद, एक अच्छी बात बेशक यह है कि अब भी प्रेस क्लब ऑफ इंडिया का प्रांगण प्रतिरोध को जगह दे रहा है। यह बात अलग है कि अंदरखाने प्रतिरोध या वैचारिक विमर्श इनसेस्ट की गति को प्राप्त हो जाने को अभिशप्त है। इसका दोषी कोई एक नहीं, लेकिन वे ज्यादा हैं जो एक वैचारिक पोजीशन लेकर समाज में उठते-बैठते हैं। बाकी, जिनका नैतिक कम्पास वैचरिक व्यभिचार से ही शुरू होता है, उन्हें कोई क्या और क्यों बोले।
प्रेस क्लब इस देश की राजनीतिक और सामाजिक परिघटनाओं का एक माइक्रोकॉज्म है। झरोखा है, जहां से आप पूरे देश में घट रही घटनाओं पर प्रतिक्रियाओं की प्रकृति को भांप सकते हैं। इसीलिए जब रवीश कुमार सवाल करते हैं कि ‘दि कारवां’ के खुलासे के बाद दिल्ली में बर्फ की सिल्ली गिर रही है और दूसरे मुद्दों पर पर लगातार ट्वीट कर के इस सिल्ली पर जल्द से जल्द धूल जमाने की कवायद की जा रही है, तो ऐसा लगता है कि यह बात पत्रकारों की प्रतिनिधि संस्था के भीतर चल रही कब्ज़े की राजनीति के बारे में ही कही जा रही है। बर्फ पर धूल जमाने की राजनीति खतरनाक होती है।
और अंत में नोटिस…
इसकी एक झलक प्रेस क्लब को सेन के पैनल के एक प्रत्याशी द्वारा भिजवाए गए उस अदालती नोटिस में मिलती है जो कहता है कि 09.04.2011 के बाद सदस्य बने तमाम लोगों की दोबारा जांच की जाएगी और ”उन स्वतंत्र पत्रकारों की एक कमेटी जो निवर्तमान क्लब के सदस्य न हों, उसे अदालत द्वारा गठित किया जाए ताकि वह ‘अवैध और अयोग्य’ सदस्यों की सूची की जांच कर उनकी सदस्यता खत्म करें।” इस नोटिस में ”अवैध और अयोग्य” को परिभाषित नहीं किया गया है। यह बिलकुल वैसे ही है जैसे सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने ”अनैतिक और झूठी” खबरें छापने वाले प्रकाशनों का विज्ञापन बंद करवाने का फ़रमान जारी किया था। तर्ज़ ये कि मामला कुल मिलाकर सत्ता की मनमौज का है। वो जिसे चाहे उसे ‘अवैध और अयोग्य’ बना दे। हर बार ऐसी सदस्यता को खत्म करने के लिए चुनाव से ऐन पहले दरवाजा खटखटाया जाता है। हर बार नोटिस गिर जाता है। हर बार ‘अवैध और अयोग्य’ की संख्या बढ़ती चली जाती है। बस एक काम नहीं होता- भीतर इस पर बात नहीं होती क्योंकि एक आम सहमति है कि जो चल रहा है, ठीक है। मज़ेदार यह है कि प्रेस क्लब चुनाव से ठीक एक दिन पहले 24 नवंबर यानी कल होने वाली नोटिस पर सुनवाई में अगर कोर्ट कार्रवाई करती है, तो इससे हज़ारों पत्रकारों के पास बैठने की एक अदद जगह खत्म हो जाएगी और उनमें वे भी होंगे जो फिलहाल इस नोटिस के पाले में खड़े हैं। ज़ाहिर है, नोटिस अनिकेद्र नाथ सेन के पाले से आया है। यह स्वाभाविक भी है। जब एक मीडिया मालिक की ताजपोशी होनी है, तो आम लोगों को रास्ते से हटाना ज़रूरी है।
(Abhishek Srivastava is the founder-editor of Media Vigil)