अटल बिहारी वाजपेयी सर्वप्रथम 1957 में उत्तर प्रदेश के बलरामपुर से निर्वाचित हो कर लोकसभा गए। वे तब अट्ठाईस वर्ष के थे। संसद में उनके पहले उद्बोधन पर तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा, ‘यह नौजवान एक दिन भारत का प्रधानमंत्री बनेगा।’ 16 मई 1996 को, पंडित नेहरू के कथन के चार दशक बाद, अटल बिहारी वाजपेयी ने भारत के दसवें प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली और अपना कार्यभार संभाला।

अपने नाम के अनुरूप वाजपेयी का व्यक्तित्व अपने जीवन के तमाम विरोधाभासों के बीच अटल रहा। आज हिंदुत्व शक्तियों के राजनीतिक आधिपत्य के काल में वाजपेयी की गठबंधन की सरकार का दौर अतीत के उस मीठे दौर सा लगता है जिसे सोचकर मन में वर्तमान के लिए दिलासा और भविष्य के लिए आशा का जागरण होता है। हिन्दुत्ववादियों के बीच हिन्दू हो कर रहना, और हिंदुत्व राजनीति और अपनी हिन्दू पहचान के बीच एक द्वंद उनके जीवन का पर्याय रहा और इस सब के बीच उनकी कविता इस अंतर्द्वंद की आवाज़ बनी।

एक विरोधाभासी जीवन

विरोधाभास वाजपेयी के जीवन का पर्याय रहा। उनका जीवन एक दोधारी तलवार पर चलते हुए बीता। एक तरफ उनके आदर्श थे और दूसरी तरफ़ राजनीतिक प्रासंगिकता। इस तरफ़ डोलते तो कट जाते, उस तरफ़ जाते तो ख़त्म हो जाते है। इसी दोधारी तलवार पर नंगे पैर चलते हुए ज़ख्मों से टपकते हुए रक्त की स्याही से उनके कविहृदय ने कवितायें लिखीं, जिन्होंने जीवनपर्यन्त उनके अनेकों द्वंदों को आवाज़ दी।

होकर स्वतन्त्र मैने कब चाहा है कर लूँ सब को गुलाम?
मैने तो सदा सिखाया है करना अपने मन को गुलाम।
गोपाल–राम के नामों पर कब मैने अत्याचार किया?
कब दुनिया को हिन्दू करने घर–घर में नरसंहार किया?
कोई बतलाए काबुल में जाकर कितनी मज़्जिद तोड़ी?
भूभाग नहीं, शत–शत मानव के हृदय जीतने का निश्चय।
हिन्दू तन–मन, हिन्दू जीवन, रग–रग हिन्दू मेरा परिचय।


उक्त पंक्तियाँ वाजपेयी की प्रसिद्ध रचना से हैं और इन पंक्तियों को वर्तमान परिवेश में पढ़ते हुए कई तरह के विचार मन में आते हैं। यह कविता वाजपेयी ने अपने छात्रजीवन में लिखी थी और आने वाले कई दशकों में अनेकों बार मंचों से यह कविता पढ़ी गई। आज जब एक वर्ग ने भगवा को कट्टरपंथ का पर्याय बना दिया है, इस कविता से उस संस्कृति की याद आती है जो आस्था में भी नास्तिकता को स्थान देती है। आज के परिवेश में इन पंक्तियों को पढ़ कर उस वाजपेयी की भी याद आती है जो हिंदुत्व और हिन्दू के बीच झूलता रहा। बाबरी विध्वंस के पच्चीस वर्ष बाद आज शायद ही वाजपेयी इस कविता को पढ़ते। आज मज़्जिद भी टूट चुकी है और भगवा के नाम पर हिंसा भी हो रही है, वो ही भगवा जिसकी महिमा में वाजपेयी ने न जाने कितने मंचों से कविता पढ़ी।

यह वाजपेयी का विरोधाभास ही है कि जो हमें दो वाजपेयी देखने को मिलते हैं। एक वो, जो बाबरी और राम मंदिर के द्वन्द में है, जो 2002 में अपने आदर्शों व राजनीतिक प्रासंगिकताओं के बीच दोधारी तलवार पर चलता है, और दूसरा वो, जो अटल है। वाजपेयी का दूसरा रूप वो है जो पोखरण के बाद अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंधों के बावजूद अडिग रहा और जिसने अंत में उन्ही अंतर्राष्ट्रीय हस्तियों को भारत के साथ कदमताल मिलाने को मजबूर करा।

ऐसा ही व्यक्तित्व रहा वाजपेयी का – अटल। एक अटल विरोधाभास।

वाजपेयी: एक कवि

वाजपेयी मूलतः कवि थे। वे खुद कहते थे कि राजनीति उनके जीवन से जा सकती पर कविता नहीं। सुमित्रा नंदन पंत ने अपनी कविता में कहा कि 'वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान'। वाजपेयी की कवितायें न जाने कितने ही आहों से उपजी सिसकियाँ होंगी। उनकी कविताओं में उनके जीवन की अमिट छाप है और कविता के विषयों में उनके जीवन के अनेकों कालों का द्वन्द और विरोधाभास दिखता है। उनकी कविता एक युद्धघोष है। उनकी कविता विजय का शंखनाद है। और उनकी कविता उनके जीवनपर्यन्त विरोधाभास और द्वन्द है। उनकी यह कविता उसी युद्ध का प्रतीक है जो उन्होंने जीवनपर्यन्त लड़ा। इस कविता को वाजपेयी ने कई बार दोहराया, लेकिन जैसे-जैसे समय बीता, यह कविता दो कविताओं में बँट गई। पहली, पूरी कविता, जिसमें वो एक योद्धा हैं जो हताशा को जीत कर वापस युद्ध में आते हैं। वे कहते हैं –

हार नहीं मानूंगा, रार नई ठानूंगा
काल के कपाल पर लिखता, मिटाता हूँ
गीत नया गाता हूँ।।


जब वाजपेयी के साथियों पर अनेकों बार छीटें आयीं, वाजपेयी अधिकतर उनसे दूर रहे। उनका कद उनके राजनीतिक साथियों से काफी ऊँचा था। जब सब राजनीति की प्रासंगिकता के लिए बढ़े और राजनीतिक आधिपत्य के लिए लड़े, वाजपेयी अटल रहे। उन्होंने एक दर्जन से अधिक दलों की सरकार का कार्यकाल पूरा करा। जब हिंदुत्व का नारा दिया जा रहा था, तब एक पूर्व-भाजपा नेता, सुधींद्र कुलकर्णी, के अनुसार वाजपेयी गठबंधन 'राष्ट्रीय एकता और क्षेत्रीय अस्मिता' का मेल था।

हिंदुत्व के बल पर मिली जीत के बाद एकता और उदारवाद से सरकार चलाने के प्रयास में भी वाजपेयी का चारित्रिक विरोधाभास दिखता है। जैसे-जैसे समय बीता, उन्होंने इसकी कीमत चुकाई। 2002 के बाद उनका द्वन्द उनके चेहरे पर दिखने लगा और जो कविता कभी हताशा और विरोधाभास को तोड़कर दोबारा शंखनाद करके युद्धघोष करती थी, वो ही कविता अब टूट कर उनके जीवन की संध्या का आभास करवाती है। वाजपेयी की पंक्तियाँ हैं –

लगी कुछ ऐसी नज़र, बिखरा शीशे सा शहर
अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हूँ
गीत नहीं गाता हूँ।।


वाजपेयी को उनके जीवन-संध्या का आभास हो गया था। उन्हें इस बात का आभास हो गया था कि अब उनके अपने सब उनके साथ नहीं थे। उन्हें यह आभास हो गया था कि वह उस दोधारी तलवार पर काफ़ी चल चुके हैं। एक ओर जहाँ उन्हें यह आभास है, वहीं उन्हें यह भी ज्ञात है कि अभी सूर्यास्त नहीं हुआ है। उन्हें अभी भी कार्य करना है। उनकी पंक्तियाँ हैं –

आहूति बाकी, यज्ञ अधूरा, अपनों के विघ्नों ने घेरा
अंतिम जय का वज्र बनाने, नावदधीची हड्डियाँ गलाएँ
आओ फिर से दीया जलाएँ।।


उनका आभास सच में बदला। 2004 की चुनावी हार के बाद कमान अपने साथी आडवाणी को दे कर वे धीरे-धीरे सीढ़ी उतरने लगे। जैसे-जैसे वे सीढ़ी उतरते गए, वैसे-वैसे उनकी अटलता उनके आड़े आती गई। सेहत गिरती गई और 2009 आते-आते वाजपेयी राजनीतिक-सामाजिक पृष्ठभूमि से हट गए। उनका जीवन अब संध्या में था। सूरज ढल रहा था। लोग कहते हैं कि वाजपेयी की अटलता और उनका अतर्द्वंद उनके सूर्यास्त का कारण बने। वे कहते हैं कि वाजपेयी अपना द्वन्द ख़त्म कर सकते थे। वे अपनी दोधारी तलवार से उतर सकते थे। वे ज़रूर उतर सकते थे। पर उतर कर वे अपनी अटलता खो देते। वे अपना चारित्रिक विरोधाभास खो देते। बिना अटलता और विरोधाभास के वाजपेयी का क्या अस्तित्व रह जाता? सो वे चलते रहे अपनी उसी दोधारी तलवार पर। वे अटल रहे। वे विरोधाभासी रहे। अपनी जीवनसंध्या में भी।

मोदीयुग में वाजपेयी की प्रासंगिकता

आज जब सरकार चलाने से ज़्यादा समय राजनीतिक आधिपत्य स्थापित करने में जाता है, और देश के सूत्रधार दिल्ली से ज़्यादा चुनावी मैदानों में दिखाई देते हैं, वाजपेयी का दौर याद आता है। वाजपेयी के समय आज जैसा पूर्ण बहुमत न था, परन्तु फिर भी कुछ बात थी, कुछ साख थी उस दौर में। उस कवि-योद्धा के युद्धघोष में कुछ तो बात थी। उसके गठबंधन के गणित में कुछ तो था जो आज इतने भारी बहुमत के बाद भी नहीं बन पा रहा है। आज मोदी के गणित के सामने वाजपेयी का गणित याद आता है।

आज भगवा हर तरफ़ है। भगवा एक प्राचीन व पवित्र रंग है। यह साधुत्व का प्रतीक है, तपस्या का प्रतीक है, ज्ञान व संस्कृति का प्रतीक है। आज जिधर नज़र उठाओगे, उधर भगवा मिलेगा, पर चमक नहीं मिलेगी उस भगवा में। आज बहुमत है, हर तरफ भगवा है, पर चमक नहीं हैं। वाजपेयी के समय न बहुमत था और न ही आज के जैसा राजनीतिक आधिपत्य, पर आज भी उस भगवा की चमक ज़्यादा है। आज जब पूर्ण बहुमत और हिंदुत्व शक्तियों के राजनीतिक आधिपत्य का काल है, अल्पमत वाले वाजपेयी के अटल व्यक्तित्व की आज से ज़्यादा प्रासंगिकता कभी नहीं रही।

अपनी दोधारी तलवार पर वाजपेयी

आज कई वर्षों से न अटल बिहारी वाजपेयी को देखा गया है, न सुना गया है। वो व्यक्तित्व, जो मंचों से दहाड़ा करता था, आज वर्षों से मौन है। दिल्ली के जिन गलियारों से उन्होंने कभी देश चलाया, आज उन्ही गलियारों से कुछ मिनटों की दूरी पर वे मौन जीवन व्यतीत करते हैं। आज वे हैं, पर लोग उनके वर्तमान रूप को नहीं, बल्कि उनके अतीत को याद करते हैं। आज वाजपेयी सूर्यास्त के उस फ़ेरे में है, जिसमें वे दिन और रात के बीच है। शायद उनके कविहृदय को इसका आभास हो गया था। इन पंक्तियों में उनके वर्तमान का आभास होता दिखाई देता है –

मैंने जीवन नहीं माँगा था, किन्तु मरण की माँग करूंगा।
जाने कितनी बार जिया हूँ, जाने कितनी बार मरूंगा।
जन्म-मरण के फेरों में मैं, इतना पहले नहीं डरा हूँ।।


पूरे जीवन दोधारी तलवार पर चलने के बाद, आज अटल बिहारी वाजपेयी उसी तलवार पर भीष्म की तरह हैं। उनकी तलवार आज उनकी शरशैय्या है। भीष्म को तो इच्छामृत्यु का वरदान था, पर इस कवि-योद्धा को ऐसा वरदान नहीं है। वे आज भी शरशैय्या पर हैं। प्रतीक्षा में। अटल।

(Views are personal to the writer मधुर शर्मा . He is 18 years old with a viewpoint and the ability to write it)