वह स्वयं एक कविता थे. लंबी -सी.
इक तस्वीर थे. खूबसूरत -सी .
एक कहानी थे. सुंदर -सी.
एक बेहतरीन शिक्षक थे.
एक उम्दा इंसान थे .
एक सजग नागरिक थे .
एक मुकम्मल व्यक्ति थे.


उनकी एक कविता है , मुक्ति जो उन्होंने अपने निधन से 31 बरस पहले , 1978 में लिखी थी . उन्होंने इस कविता में लगभग वो सारी बातें कह दीं जो उनके मरने के बाद भी नहीं मर पाएंगी . ये बातें जिंदा रहेंगी सबके ' परम मुक्ति ' तक.

कविता है : मुक्ति का जब कोई रास्ता नहीं मिला / मैं लिखने बैठ गया हूँ / मैं लिखना चाहता हूँ 'पेड़' / यह जानते हुए कि लिखना पेड़ हो जाना है / मैं लिखना चाहता हूँ 'पानी' / 'आदमी' 'आदमी' – मैं लिखना चाहता हूँ / एक बच्चे का हाथ / एक स्त्री का चेहरा / मैं पूरी ताकत के साथ /शब्दों को फेंकना चाहता हूँ आदमी की तरफ / यह जानते हुए कि आदमी का कुछ नहीं होगा / मैं भरी सड़क पर सुनना चाहता हूँ वह धमाका / जो शब्द और आदमी की टक्कर से पैदा होता है / यह जानते हुए कि लिखने से कुछ नहीं होगा / मैं लिखना चाहता हूँ....

उनके शिष्यों में शामिल अग्रणी फिल्म-पत्रकार अजय ब्रह्मात्मज ने कहा कि कविता पढ़ने में उनका कोई मुकाबला नहीं कर सकता। खास कर निराला और जयशंकर प्रसाद को बड़े मनोयोग और भाव से उन्होंने समझाया। उनकी एक बात मैंने गांठ बांध ली थी कि कविता को सही बल और ठहराव के साथ पढ़ा जाए तो वह अपना अर्थ खोल देती है।

उनके एक पुराने शिष्य , जवाहरलाल नेहरू विश्व विद्यालय छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष एवं कोलकाता विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त प्रोफेसर जगदीश्वर चतुर्वेदी ने कहा , " गुरूवर केदारनाथ सिंह की मृत्यु मेरी निजी और सामाजिक क्षति है ‌। मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा और उससे सारी जिंदगी बहुत बड़ी मदद मिली।मसलन्, उनका अपने छात्रों के प्रति समानतावादी नजरिया और कक्षा को गंभीर अकादमिक व्यवहार के रुप में देखने की दृष्टि उनसे मिली।यह निर्विवाद सत्य है कि कविता पढ़ाने वाला उनसे बेहतरीन शिक्षक हिंदी में नहीं हुआ।एक मर्तबा नामवर सिंह जी ने एमए द्वितीय सेमेस्टर में कक्षा में कविता पर बातें करते हमलोगों से पूछा कि आपको कौन शिक्षक कविता पढ़ाने के लिहाज से बेहतरीन लगता है. कक्षा में इस पर अनेक छात्रों ने नामवर जी को श्रेष्ठ शिक्षक माना. मैंने तेज स्वर में इसका प्रतिवाद किया और कहा कि केदार जी अद्वितीय काव्य शिक्षक हैं।

इस पर मैंने तीन तर्क रखे. संयोग की बात थी कि गुरूवर नामवर जी मेरे तीनों तर्कों से सहमत थे .और यह बात केदार जी को पता चली तो उन्होंने बुलाया और कॉफी पिलाई और पूछा नामवर जी के सामने मेरी इतनी प्रशंसा क्यों की ? मैंने कहा कि छात्र लोग चाटुकारिता कर रहे थे. वे गुरु प्रशंसा और काव्यालोचना का अंतर नहीं जानते. वे मात्र काव्य व्याख्या को समीक्षा समझते हैं. मैंने इन सबका प्रतिवाद किया था। इसी प्रसंग में यह बात कही कि आपकी काव्यालोचना छात्रों में कविता पढ़ने की ललक पैदा करती है। इसके विपरीत अध्यापकीय समालोचना काव्य बोध ही नष्ट कर देती है। केदार जी का सबसे मूल्यवान गुण था उनके अंदर का मानवाधिकार विवेक. कविता और मानवाधिकार के जटिल संबंध की जितनी बारीक समझ उनके यहां मिलती है वह हिंदी में विरल है। उल्लेखनीय है हिंदी काव्य में कई काव्य परंपराएं हैं. मसलन्, प्रगतिशील काव्यधारा, शीतयुद्धीय काव्य धारा,अति-वाम काव्य धारा, जनवादी काव्य धारा, आधुनिकतावादी काव्य धारा आदि।इन सब काव्य धाराओं में मानवाधिकार की समग्र समझ का अभाव है। यही वजह है कि केदार जी उपरोक्त किसी भी काव्यधारा से अपने को नहीं जोड़ते। हिंदी में लोकतंत्र के प्रति तदर्थवादी नजरिए से काफी कविता लिखी गयी है . लेकिन गंभीरता से मानवाधिकारवादी नजरिए से बहुत कम कविता लिखी गयी है। यही बात उनको लोकतंत्र का सबसे बड़ा कवि बनाती है।यही वह बुनियाद है जहां से केदारनाथ सिंह के समग्र कवि व्यक्तित्व का निर्माण होता है। शीतयुद्धीय राजनीति , समाजवाद के आग्रहों और आधुनिकता के दवाबों से मुक्त होकर लोकतंत्र की आकांक्षाओं , मूल्यों और मानवाधिकारों से कविता को जोड़ना बडा काम है। वे हिंदी के कवियों में से एक कवि नहीं हैं. बल्कि वे मानवाधिकारवादी कविता के सिरमौर हैं। आज के दौर में उनका जाना मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और आंदोलन की सबसे बड़ी क्षति है।

जेएनयू में छात्रों के दो बरस पहले के आन्दो लन के समर्थन में उनके बयानों के इस स्तंभकार द्वारा तैयार एक संकलन के अनुसार प्रो. केदारनाथ सिंह ने कहा था कि उन्हें जेएनयू पर गर्व है और वह इसके लिए जो कुछ कहा जाए सुनने को तैयार हैं. इसके लिए उन्हें कोई देशद्रोही कहे या आतंकवादी.

उन्होंने प्रसिद्ध साहित्यकार प्रो परमानन्द श्रीवास्तव की स्मृति में 26 फरवरी 2016 को गोरखपुर में आयोजित एक कार्यक्रम में जेएनयू का भी जिक्र किया। जेएनयू पर लगाए जा रहे आरापों से आहत केदार जी ने कहा कि जिस राष्ट्र के बारे में आज बात हो रही है उसके निर्माण में जेएनयू का बहुत योगदान है। उनका कहना था , "सौभाग्य से जेएनयू वाला हूं। जेएनयू का अध्यापक रहा हूं और आज भी हूं और इसके लिए जो कुछ कहा जाए सुनने को तैयार हूं। चाहे देश द्रोही या आतंकवादी। मुझे याद है कि 1984 में प्रो परमानन्द , जेएनयू में मेरे आवास पर ठहरे हुए थे। उस समय सिखों की हत्याएं हो रही थी लेकिन जेएनयू के आस-पास के इलाके में एक भी घटना नहीं हुई। जेएनयू के छात्रों ने आस-पास के इलाके में सुनिश्चित किया कि कोई घटना न हो। इसके लिए वे पूरी रात इस इलाके में घूमते। छात्र मुझे और परमानन्द जी को भी एक रात साथ ले गए। हम दोनों छात्रों के साथ घूमते रहे।

जेएनयू के छात्रों ने यह काम किया था जिनको आज देश द्रोही कहा जा रहा है। जेएनयू के त्याग को समझना होगा। वे सभी समर्पित लोग हैं। किसी घटना को पूरे परिदृश्य में देखा जाना चाहिए। आज जिस राष्ट्र के बारे में बात हो रही है उसके निर्माण में जेएनयू का योगदान है। वह राष्ट्र जिस रूप में आज दुनिया में जाना जाता है, उसका बिम्ब गढ़ने में जेएनयू का योगदान है। पढ़ा लिखा संसार जो भारत और उसके बौद्धिक गौरव को जानता है, उसको बनाने में जेएनयू का भी अंशदान है। नोम चोमस्की आज पूरे परिदृश्य में जेएनयू को याद कर रहे और आगाह कर रहे हैं कि जेएनयू के विरूद्ध कोई कार्य नहीं होना चाहिए तो वह बहुत बड़ा सर्टिफिकेट है। उनकी बात को ध्यान से सुना जाना चाहिए। नोम चोमस्की वह हैं जो सच को सच और झूठ को झूठ कहने का माद्दा रखते हैं। ऐसे लोग विरल होते जा रहे हैं। कभी यह काम ज्यां पाल सार्त्र करते थे। ये बौद्धिक हमारी मूलभूत चेतना के संरक्षक हैं। जेएनयू की बात आएगी तो चुप नहीं रह सकता। मुझे उससे जुड़े रहने पर गर्व है।

उनके शिष्य एवं हिंदी अधिकारी उदय भान दूबे ने कहा ," डॉ के एन सिंह उर्फ केदार जी के दर्शन पहली बार 1980 में हुए जेएनयू में एडमिशन के लिए इंटरव्यू के दौरान। उन्होंने मुझसे छायावाद पर प्रश्न किए थे और अंत में एक कविता सुनाने के लिए कहा था। मैंने नागार्जुन की 'अकाल और उसके बाद ' कविता सुनाई थी।बड़े खुश हुए थे।उसके बाद एमए में उनसे कविताएं तथा एमफिल में तुलनात्मक साहित्य पढा। कविताओं में सरोज स्मृति,राम की शक्तिपूजा, कामायनी और शमशेर की कुछ कविताओं पर उनके व्याख्यान मन पर आज भी विद्यमान हैं,तरोताजा लगते हैं। तुलनात्मक साहित्य शायद उतना प्रभावी नहीं था।शायद इसीलिए उसकी कोई याद नहीं है। गुरुदेव एक बार अलवर गए थे एक काव्य गोष्ठी में भाग लेने।मुझको भी अपने साथ ले गए थे।मुझे फेलोशिप मिलती थी फिर भी उन्होंने मुझे एक पैसा खर्च नहीं करने दिया. बल्कि उल्टे जबरदस्ती मेरे पॉकेट में 100 रुपए डाल दिए थे कुछ खर्च करने के लिए। कभी प्रसंगवश यह बात उठी कि मैं गोपालगंज का हूँ।उन्होंने बताया कि उनके दामाद गोपालगंज कॉलेज में प्राध्यापक थे।एक बार उन्होंने पूछा कि घर कब जाना है।मैंने कोई तिथि बताई।उन्होंने कहा कि एक जरूरी सूचना बेटी के पास पहुंचनी है।तुम 2 , 3 दिन पहले जा सकते हो क्या? मैंने कहा कि क्यों नहीं।कोई असुविधा नहीं है। वे आने -जाने के टिकट का पैसा देने लगे।मैंने कहा कि मुझे तो 2 दिन बाद अपने घर जाना ही है।आप क्यों पैसा दे रहे हैं।किंतु वह नहीं माने।जबरदस्ती दोनों तरफ के किराए दे दिए।क्या करता,गुरू से झगड़ा तो नहीं कर सकता था। इस तरह की अनेक स्मृतियां हैं।उस समय की डायरी निकालने पर अनेक अच्छी बातें सामने आएगी। कभी बाद में यह कार्य करूंगा।ये कुछ बातें हैं जिनसे उनके एक अद्वितीय विद्वान, अनुपम शिक्षक और बेहतरीन इंसान होने की झलक मिलती है।गुरुदेव को सादर नमन.

जेएनयु में फ्रेंच पढ़ी रेणु गुप्ता और अर्थ शास्त्र पढ़े उनके पति जीवी रमन्ना ने उनके निधन पर दुख व्यक्त कर कहा कि वे एक महान कवि और शिक्षक थे .

कवि केदारनाथ जी के बा रे में अशोक वाजपेयी ने कहा कि वह इस समय हिन्दी के शायद सबसे जेठे सक्रिय कवि थे। कोमलकान्त पर सशक्त, सबसे अधिक पुरस्कृत पर विनयशील और आत्मीय, बहुतों के सहचर-मित्र, बहुतों के सहायक, बहुतों के दुःख-दर्द में शरीक। अपनी प्रतिबद्धता में स्पष्ट और दृढ़ पर उसे आस्तीन पर चढ़ाये सबको बार-बार दिखाने की वृत्ति से हमेशा दूर। मितभाषी पर इधर थोड़े अधीर। सार्वजनिक आयोजनों में बार-बार घड़ी देखते हुए पर समय पर अपनी पकड़ बनाये हुए। उग्रताहीन विकलता, संसार को लेकर अपार जिज्ञासा पर दूसरों पर फ़ैसला देने और अपने को उचित ठहराने की दयनीयता का अचूक अभाव। हिंदी कविता के अजातशत्रु: शायद ही किसी के बारे में कोई सख़्त-कड़ी बात कभी केदारनाथ सिंह ने कही हो। प्रगतिशील होते हुए भी अज्ञेय के निकट और उनके प्रशंसक। हाथ से कुछ कंजूस पर दिल से बेहद उदार।

वे उन कवियों में से थे जिनकी नागरिक आधुनिकता में कोई झोल कभी नहीं पड़ा पर जिन्होंने अपने ग्रामीण अंचल को कभी भुलाया नहीं। जैसे सर्वेश्वर दयाल सक्सेना को अपने बचपन की कुआनो नदी याद रही वैसे ही केदार को माँझी का पुल। उनकी कविताओं में तालस्ताय से लेकर नूर मियाँ जैसे चरित्र आवाजाही सहज भाव से करते रहे। वे उन आधुनिकों में से भी थे, ख़ासे-बिरले, जिन्होंने अपनी आरंभिक गीतिपरकता को कभी छोड़ा नहीं और उसे आधुनिक मुहावरे में तब्दील किया। उनकी कविता का बौद्धिक विश्लेषण होता आया है पर उन्होंने बौद्धिकता का कोई बोझ अपनी कविता पर कभी नहीं डाला।

उनसे पहली मुलाक़ात इलाहाबाद में 1957 में हुए साहित्यकार सम्मेलन में हुई थी। यह भी याद आता है कि उस समय वे ब्रिटिश कवि डाइलेन टामस, अमरीकी कवि वालेस स्टीवेन्स और फ्रेंच कवि रेने शा के प्रेमी थे। कुछ का अनुवाद भी उन्होंने किया था। अपने क़िस्म की सजल गीतिपरकता शायद उन्होंने इन कवियों की प्रेरणा में पायी होगी। उनके पहले संग्रह का नाम, जिसे इलाहाबाद से कथाकार मार्कण्डेय ने अपने प्रकाशन से छापा था, ‘अभी, बिल्कुल अभी’ था। उसकी ताज़गी और एक तरह की तात्कालिकता उनकी कविता में बाद में भी बराबर बनी रही। वे साधारण वस्तुओं, चरित्रों आदि को कविता में बहुत आसानी से लाकर काव्याभा से दीप्त कर देते थे। एक अर्थ में उनकी कविता हमेशा ही ‘अभी, बिल्कुल अभी’ बनी रही।

इसमें सन्देह नहीं कि केदारनाथ सिंह की कविता राग, संसार से आसक्ति, उसे उसकी विडम्बनाओं के बावजूद सेलीब्रेट करनेवाली कविता रही है। हिन्दी में उनकी पीढ़ी का शायद ही कोई और कवि ऐसा हो जिसकी कविता शुरू से अन्त तक सुगठित कविता है: उसमें कभी ढीलापन या अपरिपक्वता नहीं आये। एक बार मैंने उनसे शिकायत की थी कि आप कविता को इस क़दर संयमित कर देते हैं कि उनमें आपके कच्चे-रिसते घाव कभी नज़र नहीं आते।

दिल्ली की साहित्यिक महफ़िलों के वे रूहे-रवाँ थे। हममें से बहुतों को उनका संग-साथ, उनकी ‘कम ख़र्च बाला नशीं’ यारबाशी कभी बिसरेगी नहीं। उनके गरमजोशी से भरे हाथ, उनकी जिज्ञासु और मुस्कराती आँखें, दुनिया को सुन्दर बनाने की उनकी ललक सब अविस्मरणीय रहेंगे।

84 वर्षों का उनका भौतिक जीवन समाप्त हुआ और उनकी कविता का दूसरा जीवन अब शुरू हुआ है - यह दूसरा जीवन
उनके भौतिक जीवन से काफ़ी लम्बा चलेगा इसमें सन्देह नहीं।
केदार जी के शिष्य एवं वरिस्ठ पत्रकार ज्ञानेंद्र पांडेय के अनुसार

उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के चकिया गाँव में 1934 में जन्मे हिदी के वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह का 19 मार्च को दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में निधन हो गया . केदार जी कई दिन से बीमार चल रहे थे और एम्स में उनका इलाज चल रहा था .केदारनाथ हिंदी के ऐसे ख़ास कवियों में रहे जिनकी कविताओं का दुनिया की कई भाषाओं में हुआ था .केदारनाथ दशकों से दिल्ली में ही रह रहे थे लेकिन वो गाँव को कभी भुला नहीं पाए थे . उनके अंतिम क्षणों तक उनका पैतृक गाँव चकिया उनकी यादों में समाया रहा . गाँव के साथ ही शहर को भी उन्होंने बराबर का मान दिया था . कहना गलत नहीं होगा कि अपने जीवन में उन्होंने गाँव और शहर की बीच अद्भुत ताल मेल बना कर रखा था . उनके संस्मरणों की पुस्तक , चकिया से दिल्ली तक " में गाँव और शहर के बीच का यह तालमेल आसानी से देखा जा सकता है . केदारनाथ सिंह लिखते तो हिंदी में थे लेकिन पढ़े पूरी दुनिया में जाते थे .हिंदी में लिखने के साथ ही उन्होंने अपनी मूल भाषा भोजपुरी को हमेशा अपना बनाए रखा .

अपने चकिया से दिल्ली तक से सफ़र में केदारनाथ सिंह ने व्यक्तित्व के अनेक रूप भी देखे और व्यवसाय के भी . कवि होने के साथ ही केदारनाथ एक श्रेष्ठ अध्यापक भी थे .अध्ययन और अध्यापन के सिलसिले में उन्होंने बनारस , गोरखपुर और दिल्ली के साथ ही अमेरिका , रूस , ब्रिटेन ,जर्मनी और इटली समेत कई देशों की यात्राएं भी की थीं .केदार नाथ सिंह ने कई वर्ष तक दिल्ली के जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में अध्यापन भी किया था .अपने गाँव से शहर , शहर से देश और देश से विदेश तक जो यात्राएं उन्होंने कीं उसके अनुभवों ने उनकी रचनाओं को एक व्यापक विस्तार और गहराई दी थी .उनके इसी व्यापक रचना संसार ने उन्हें समय - समय पर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित भी करवाया .२०१३ में उन्हें हिंदी का सर्वश्रेष्ठ ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया था . इसके अलावा १९८९ में साहित्य अकादमी , १९९३- ९४ का मैथिलीशरण गुप्त सम्मान भी प्रदान किया गया था .केदार जी मेरे गुरु भी रहे हैं जेएनयू में उन्होंने पढ़ाया था . उनका कविता पढ़ाने का अंदाज एक दम अलग था .निराला की राम की शक्ति पूजा पर उनका अध्यापन अद्भुत था . हमारी विनम्र श्रधांजलि !