बच्चों को जब भी किसी वैज्ञानिक का चित्र बनाने को कहा जाता है, तब सामान्यतया एपरन या लैब-कोट पहने एक आकृति उभरती है जिसके हाथ में फ्लास्क या फिर मैग्नीफाइंग ग्लास होता है. दशकों से बच्चे ऐसे ही चित्रों द्वारा वैज्ञानिकों को दर्शाते रहे हैं. पर, बड़ा सवाल यह है कि एपरन पहनने वाला महिला है या पुरुष. एक अध्ययन के अनुसार इसमें पिछले पांच दशकों में बड़ा बदलाव आया है. अमेरिका के नोर्थवेस्ट यूनिवर्सिटी में साइकोलोजी विभाग के रीसर्च स्कालर डेविड मिलर के नेतृत्व में एक दल ने अमेरिका में पिछले पांच दशकों के दौरान बच्चों द्वारा बनाए गए वैज्ञानिकों के चित्रों/रेखाचित्रों का अध्ययन किया. ऐसे कुल 20,860 चित्र थे, जिसे 5 से 18 वर्ष तक के आयुवर्ग के बच्चों ने पिछले पांच दशकों के द्वारा बनाया था. 1966 से 1977 के बीच बनाए गए 5,000 चित्रों में से मात्र 28 चित्र, यानि 0.6 प्रतिशत में, महिला वैज्ञानिक को दिखाया गया था.

पूरे 1960 और 1970 के दशक के दौरान बच्चों द्वारा बनाये गए एक प्रतिशत से भी कम चित्रों में वैज्ञानिक के तौर पर महिला का चित्र था. पर, मिलर के दल के विश्लेषण के अनुसार अब स्थिति बदल रही है. वर्ष 2016 के दौरान बनाए गए कुल चित्रों में से 34 प्रतिशत महिला वैज्ञानिकों के चित्र थे. 1960 और 1970 के दशक में महज एक प्रतिशत लड़कियां महिला वैज्ञानिकों के चित्र बनाती थीं, जबकि अब 50 प्रतिशत से अधिक लड़कियां महिलाओं के चित्र को वैज्ञानिक के तौर पर बनाती हैं. अध्ययन में यह भी स्पष्ट हुआ कि 6 वर्ष वाले आयुवर्ग की 70 प्रतिशत और 16 वर्ष के आयुवर्ग की 25 प्रतिशत लड़कियां महिला वैज्ञानिकों के चित्र बनाती है, डेविड मिलर का यह अध्ययन चाइल्ड डेवलपमेंट नामक जर्नल के 20 मार्च के अंक में प्रकाशित हुआ है. अमेरिका में लगभग इसी तरह महिला वैज्ञानिकों की संख्या भी बढ़ी है. 1960 के दशक में अमेरिका के कुल वैज्ञानिकों की संख्या में से 13 प्रतिशत महिलाएं थीं पर अब यह संख्या 44 प्रतिशत तक पहुँच गयी है. वर्तमान में जैव विज्ञान में कुल वैज्ञानिकों में से 49 प्रतिशत महिलायें हैं, इसी तरह रसायन शास्त्र में 35 प्रतिशत और भौतिकी में 11 प्रतिशत महिलाएं हैं.

अमेरिका या यूरोपीय देशों में इस प्रकार के मौलिक अद्ययन किये जाते हैं और ऐसे अध्ययनों को भी प्रतिष्ठित विज्ञान पत्रिकाओं में स्थान मिलता है, पर हमारे देश में इस प्रकार के मौलिक अध्ययन नहीं होते. इस अध्ययन को आधार बनाकर देश के महिला वैज्ञानिकों की चर्चा तो की ही जा सकती है. पहला तथ्य तो यही है कि भारत में नौकरी के श्रेणी में वैज्ञानिकों का प्रायः जिक्र ही नहीं आता. डॉक्टर, इंजिनियर, चार्टर्ड अकाउंटेंट, बिज़नस एडमिनिस्ट्रेटर या कंसलटेंट की तरह शायद ही कोई भी किसी को वैज्ञानिक कहता है. रिसर्च करने वाले को रिसर्च स्कोलर और बड़ी पोस्ट पर बैठे वैज्ञानिक को बड़ा या बड़ी ऑफिसर कहा जाता है. कल्पना चावला का नाम तो बहुत लोग जानते होंगे, और अन्तरिक्ष यात्री थीं ये भी लोग जानते होंगे, पर वो वैज्ञानिक भी थीं इसे बहुत कम लोग जानते हैं.

बच्चों को तो बताया ही नहीं जाता, बड़ों में भी शायद कोई आज के दौर के वैज्ञानिकों का नाम जानता होगा. महिला वैज्ञानिकों की पहली बड़ी चर्चा मार्स मिशन के प्रक्षेपण के समय उस दल के सात महिला वैज्ञानिकों की हुई थी. हमारे देश में विज्ञान के कुल शोधार्थियों में से मात्र 14.3 प्रतिशत ही महिलाएं हैं, पर स्नातक के विद्यार्थियों में इनकी संख्या लगभग 40 प्रतिशत है. बहरीन जैसे देश में भी विज्ञान के कुल शोधार्थियों में से 41.3 प्रतिशत महिलायें हैं. विज्ञान की शिक्षा के क्षेत्र में लगभग 15 प्रतिशत पदों पर महिलायें हैं.

हमारे देश में पाठ्यक्रमों में भी महिलाओं का चित्रण अभी तक पारंपरिक तरीके से ही किया जाता है. मुंबई स्थित होमी भाभा सेंटर फार साइंस एजुकेशन की प्रोफ़ेसर सुग्रा चूनावाला ने कुछ वर्ष पहले एनसीईआरटी की पुस्तकों का विश्लेषण किया था. उनके अनुसार इन पुस्तकों में महिलाओं का चित्रण नर्से या माँ के तौर पर ही किया जाता है, जबकि पायलट, डॉक्टर और इंजिनियर जैसी भूमिका में पुरुषों की चित्रण होता है. विज्ञान की पुस्तकों में कान करते हुए पुरुष ही दिखाए जाते हैं, जबकी महिलायें दर्शकों में शामिल रहती हैं.

मार्स ऑर्बिटर मिशन की सफलता के बाद इसरो की महिला वैज्ञानिकों के चित्र खूब शेयर किये गए, पर इसरो में भी मात्र 20 प्रतिशत महिलायें हैं और आज तक इसका अध्यक्ष बनने का मौका किसी महिला वैज्ञानिक को नहीं मिला है. वर्ष 1958 से प्रत्येक वर्ष उभरते वैज्ञानिकों को दिये जाने प्रतिष्ठित शांति स्वरुप भटनागर पुरस्कार प्राप्त 500 से अधिक वैज्ञानिकों में से महज 15 महिलाओं को यह प्राप्त हुआ है. जाहिर है, पुरुषों के वर्चस्व के कारण पुरस्कार, फेलोशिप या उच्च पदों के लिए महिलाओं के नाम पर विचार ही नहीं होता. इंडियन नेशनल साइंस अकैडमी की फेलोशिप में मात्र 3.2 प्रतिशत, इंडियन अकैडमी ऑफ़ साइंसेज फ़ेलोशिप में 4.6 प्रतिशत और नेशनल अकैडमी ऑफ़ एग्रीकल्चरल साइंस फेलोशिप में मात्र 4 प्रतिशत महिलायें हैं.

महिला वैज्ञानिकों की काम के प्रति लगन का अंदाजे इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि महिला वैज्ञानिकों में से 14.1 प्रतिशत ने काम को प्राथमिकता देते हुए अविवाहित रहने का फैसला लिया जबकि ऐसा करनेवाले मात्र 2.5 प्रतिशत पुरुष थे. लगभग 47 प्रतिशत महिला वैज्ञानिक सप्ताह में 40 से 60 घंटे काम करती हैं, जब कि मात्र 33 प्रतिशत पुरुष वैज्ञानिक इतनी लम्बी अवधि तक काम करते हैं.

दूसरे देशों में पर्यावरण जैसे क्षेत्रों में महिला वैज्ञानिकों की संख्या तेजी से बढ़ रही है. अफ्रीका और दक्षिण अमेरिकी देशों में भी पर्यावरण की बागडोर महिलायें संभाल रहीं है. हमारे देश में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में आज तक कोई महिला अध्यक्ष और सदस्य सचिव नहीं हुआ है. इसकी वेबसाइट पर वैज्ञानिकों की सूचि के अनुसार कुल 143 वैज्ञानिकों में से मात्र 23, यानि 16 प्रतिशत महिलायें हैं. इन महिलाओं में भी सबसे ऊपर की पोस्ट पर एक भी महिला नहीं है.

अमेरिका में तो 34 प्रतिशत बच्चे महिला वैज्ञानिकों के चित्र बनाने लगे हैं, पर ऐसी स्थिति हमारे देश में कब आयेगी?