यह एक ऐसा सवाल है जिसे इक्का – दुक्का नहीं, बल्कि सैकड़ों लोग पूछ रहे हैं. पहले एक चिंता जरुर थी, पर अब घबराहट का एक माहौल है. देश को उस सरकार से निराशा मिली है जिसने लोगों से “अच्छे दिन” लाने का वादा किया था. लेकिन “अच्छे” की एक छोटी झलक की तो छोड़िए, यहां वो सब कुछ ढहता दिखायी दे रहा है जिसके लिए भारत माना और पहचाना जाता था. पिछले कुछ वर्षों में सांप्रदायिकता के जहर, सांस्कृतिक टकराहट और क्षुद्र अनैतिकता से बजबजाते धार्मिक विभाजन के जरिए देश को बांट दिया गया है.

अब सत्तारूढ़ सरकार के उन पैंतरों का विरोध करने का समय आ गया है जिसकी वजह से लोकतंत्र का सांस्थानिक आधार कमजोर होता जा रहा है. अगर आपने “योगी” और इसी किस्म के अन्य “अपवित्र” लोगों, जो न केवल भ्रष्ट हैं बल्कि शासन चलाने में अनैतिकता बरतते हैं, का साथ चुना है तो हाल के वर्षों में एक ज़माने में सम्मानित रहे संस्थानों में क्रमिक गिरावट आना और भारतीय लोकतंत्र का हिस्सा रहे मूल्यों और परम्पराओं का ढह जाना अप्रत्याशित नहीं है.

हम एक ऐसे वक़्त में रह रहे हैं जहां बलात्कार को उचित ठहराया जा रहा है. हर दिन सांप्रदायिक घृणा से लबरेज अपराधों को अंजाम दिया जा रहा है. अपराध को अंजाम देने वालों को बचाया जा रहा है. कानून बनाने वाले ही कानून को तोड़ने में संलग्न हैं. कानून को लागू करने, लोगों और संपत्ति की सुरक्षा करने, अपराध और अव्यवस्था को रोकने के लिए सरकार द्वारा अधिकृत निकाय अपनी जिम्मेदारियों के उलट कार्य कर रहे हैं. ऐसे में, क्या हम बर्बाद नहीं हो रहे?

क्या उन्नाव बलात्कार कांड और आसिफ़ा के बलात्कार और हत्या जैसे अपराधों को उचित ठहराया जा सकता है? क्या हम ऐसी शर्मनाक और अनैतिक घटनाओं पर आंखें मूंदे रह सकते हैं? यह देखना बेहद कष्टदायक है कि विभिन्न राजनीतिक दल असली मुद्दों पर बात करने और इस किस्म के बर्बर और क्रूरतापूर्ण अपराधों को रोकने के लिए उपाय करने के बजाय आपस में इस तरह से दिखावे की लड़ाई लड़ रहे हैं कि इस किस्म के मामले दब जायें. और अब हमें जो दिखाई दे रहा है वो यह कि इन मामलों पर सरकार की निर्लज्ज उदासीनता और राज्य पुलिस की मिलीभगत.

आप जानते हैं कि स्थितियां इस कदर घटिया स्तर तक पहुंच गयीं हैं कि एक पूजास्थल ... धार्मिक या आध्यात्मिक अनुष्ठानों और गतिविधियों के लिए आरक्षित एक इमारत का इस्तेमाल मानवता को शर्मसार कर देने वाले एक अपराध को अंजाम देने के लिए किया गया.

जिस किस्म की यातना और भय से उस मामूम बच्ची को गुजरना पड़ा होगा उसकी कल्पना कर मैं सिहर उठती हूं. जब मैं तस्वीरों में आसिफ़ा की कातर आंखों को देखती हूं तो मेरे पेट में ऐंठन होने लगती है और मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं. कैसी क्रूर और वाहियात दुनिया में रह रहे हैं हम जहां पशु सरीखे इस किस्म के अपराधों को अंजाम देने वाले लोग बच्चियों और महिलाओं को डराते हैं.

हमें इन नकली राष्ट्रवादी बदमाशों को रोकना होगा जो हमारे देश को आतंकित कर रहे हैं. अगर हम ऐसे अपराधों में न्याय हासिल करने और इस किस्म के उत्पीड़न को रोकने में असमर्थ रहे तो एक समाज के तौर पर हम असफल साबित होंगे. जब धार्मिक और राजनीतिक हितों के लिए बच्चों की बलि चढ़ाई जा रही हो और प्रधानमंत्री स्वयं चुप्पी साधे बैठा हो तो आपको मालूम होना चाहिए कि आपका देश खतरे में है.

आसिफ़ा की रुलाई की आवाज़ हर उस भारतवासी के दिल में गूंजती है जो इन घटनाओं से व्यथित और हिला हुआ है. उत्तर से लेकर दक्षिण तक और पूरब से लेकर पश्चिम तक, चारों तरफ लाचारी और अशांति का माहौल है. इसके बदले में हम क्या पाते हैं – एक बहरी सरकार, जो अपने ही नागरिकों की आवाज़ नहीं सुनना चाहती.

बेबात की बात पर सांप्रदायिक दंगे हो रहे हैं. घृणा फैलाने वाले अपराध उफान पर हैं. न्याय पाने के वैधानिक तरीकों से न सिर्फ लोगों को वंचित किया जा रहा है बल्कि इसमें गिरावट भी आती जा रही है. न्याय के लिए लड़ने वाले आम नागरिकों क्या होगा जब अपराधियों का संरक्षण और बचाव किया जा रहा हो? इस सरकार की उदासीनता जगजाहिर है.

इसलिए, इससे पहले कि बहुत देर हो जाये, जागो भारत के लोगों और उन सब चीजों को ढहने से बचाने के लिए लड़ो जिसके लिए हमारा देश जाना जाता है.