शहरों में रहने वाली आबादी लगातार तनाव में रहती है और यहाँ पलने वाले मवेशी और जानवरों पर भी शहरों की भाग दौड़ और प्रदूषण का असर पड़ता है. पर, क्या आपको मालूम है कि शहरों में रहने वाले पक्षी भी लगातार तनाव में रहते हैं? शहरों में पक्षियों पर यदि ध्यान दें तो सबसे पहले समझ में आता है, यहाँ के पक्षियों की कम विविधता. कबूतर, कौवे, मैना, तोते और चील यहाँ बहुतायद में मिलते हैं, और इनमे मैना को छोड़कर किसी और पक्षी को हम पसंद नहीं करते. कबूतर शहरों में हरेक जगह डेरा जमाये रहते हैं पर ज्यादा गन्दगी करने के कारण इनपर ज्यादा ध्यान नहीं देते. बुलबुल और गौरैया कभी-कभी दिखते हैं, गौरैया से एक अजीब सा अपनापन होता है और बुलबुल की आवाज मधुर होती है. गर्मियों में दूर से कभी-कभी आती कोयल की कूक ध्यान जरूर आकर्षित करती है. बैबलर, जिसे चरखी कहा जाता है, कहीं-कहीं छोटे झुण्ड में आती हैं और हमेशा ऐसी आवाजे निकालती हैं मानो आपस में लड़ रहीं हों. नीलकंठ, कठफोड़वा और हुदहुद जैसे पक्षी तो शायद ही कभी शहरों में दिखाई देते हैं. काला भुजंगा, हरियाल, किलकिला, टिटहरी, फ़ाक्ता, हरा पतंगा और शिकरा कभी कभी मिल जाते हैं. शहरों के निवासियों में अधिकतर बुजुर्ग अपना बचपन गाँव में बिताकर शहर आये हैं, उनसे पूछ कर देखिये वे ज्यादा पक्षियों के नाम जानते होंगे.

यूनिवर्सिटी ऑफ़ एक्सटर और ब्रिटिश ट्रस्ट फॉर ओर्निथोलोजी द्वारा संयुक्त तौर पर किये गए एक अध्ययन के अनुसार शहरी क्षेत्रों में, विशेष तौर पर गरीब इलाकों में, मधुर आवाज वाले पक्षी कम होते हैं और परेशान करने वाले पक्षी अधिक. यह अध्ययन जर्नल ऑफ़ एप्लाइड इकोलॉजी के नए अंक में प्रकाशित किया गया है. अध्ययन के अनुसार, शहरों में प्रतिव्यक्ति पक्षियों की संख्या ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा कम होती है, इनमे भी जो पक्षी अच्छे लगते हैं वे बहुत कम होते हैं. हरेभरे स्थानों पर पक्षियों की संख्या शहरों की अपेक्षा ३.५ गुना अधिक होती है. वैज्ञानिकों के अनुसार जब आपके सामने तरह तरह की चिड़िया होती हैं या आप उनका कलरव सुनते है, तब आपका तनाव, उदासी और अवसाद ख़त्म हो जाता है. डॉ डेनियल कॉक्स, जो यूनिवर्सिटी ऑफ़ एक्सटर में वैज्ञानिक हैं, के अनुसार यदि मीठा बोलने वाली चिड़ियों की संख्या प्रतिव्यक्ति १.१ से अधिक होती है तब लोग तनाव कम महसूस करते हैं. वैसे भी प्राकृतिक आवास में वन्य जीव तो हम देख नहीं पाते, पर पक्षियों के देखकर यह अहसास जरूर होता है.

स्वीडन में एक अध्ययन का निष्कर्ष चौंकाने वाला है – शहरी क्षेत्रों में गौरैया इतने तनाव में रहती हैं कि उनकी उम्र सामान्य से कम हो जाती है. इस तनाव का कारण प्रदूषण और भोजन की कमी है. यह अध्ययन फ्रंटियर्स इन इकोलॉजी एंड एवोल्यूशन नामक जर्नल में प्रकाशित किया गया है. इस तनाव का असर उनके प्रजनन पर भी पड़ता है जिससे शहरी इलाकों में गौरैया की संख्या कम होती जा रही है.

अनेक वैज्ञानिक शहरी क्षेत्रों में पक्षियों की आवाजों का अध्ययन कर रहे हैं. पक्षी हमारे मनोरंजन के लिए आवाज नहीं निकालते, बल्कि विपरीत लिंग वाले पक्षी का ध्यान आकर्षित करने, अपने क्षेत्र की सीमा बताने या फिर संभावित खतरों से एक दूसरे को आगाह करने के लिए आवाज निकालते हैं. जंगलों या सामान्य ग्रामीण परिवेश की तुलना में शहरों के पक्षी कम बोलते हैं पर तेज बोलते हैं, इसका कारण शहरों का शोर-शराबा है. लगातार तेज बोलने के कारण उनका वोकल कोर्ड प्रभावित होता है और स्वास्थ्य पर भी प्रभाव पड़ता है. इनकी आवाजें कर्कश और कम विविधता वाली होने लगीं हैं. कुछ पक्षी तो अब दिन में बोलते ही नहीं, रात में बोलते हैं. इससे भी इनका स्वास्थ्य प्रभावित होता है और फिर शिकारियों के निशाने पर भी आ जाते हैं. बर्लिन में किया गए एक अध्ययन से पता चला कि ग्रामीण इलाकों की तुलना में शहरी क्षेत्रों के पक्षी १४ डेसिबल अधिक तेज बोलते हैं.

जर्मनी में एक दूसरे अध्ययन से यह भी स्पष्ट हुआ कि अनेक प्रजाति के पक्षी शहरों के तनाव और प्रदूषण, विशेष तौर पर शोर से, इतना बदल चुके हैं कि अब वे ग्रामीण क्षेत्रो में रहने वाले अपने प्रजाति के पक्षियों से तालमेल नहीं बिठा पाते और एक दूसरे से संवाद नहीं कर पाते.