तापमान बृद्धि के साथ हमेशा जलवायु परिवर्तन भी कहा जाता है. बहुत लोग और अनेक वैज्ञानिक अभी तक तापमान बृद्धि से सहमत नहीं हैं, पर जलवायु के मिजाज में परिवर्तन इतना स्पष्ट हो रहा है कि अब इसके नहीं मानने की गुंजाइश ही नहीं रही. पिछले तीस वर्षों से वैज्ञानिक बताते रहे हैं कि तापमान बृद्धि का सर्वाधिक प्रभाव जलवायु और मौसम पर पड़ेगा, पर शुरू में किसी ने ध्यान नहीं दिया. कम से कम पिछले दस वर्षों से यह प्रभाव अपने पराकाष्ठा पर है. हरेक वर्ष मौसम और जलवायु से सम्बंधित नए रिकॉर्ड कायम हो रहे है.

30 अप्रैल को पाकिस्तान के दक्षिणी भाग में स्थित नवाबशाह नामक शहर में तापमान 50.2 डिग्री सेल्सियस पहुँच गया था. यह तापमान अप्रैल महीने के लिए पूरे विश्व में एक नया रिकॉर्ड बना गया. पकिस्तान मेटेरिओलोजिकल डिपार्टमेंट के डायरेक्टर जनरल, गुलाम रसूल, के अनुसार उनके विभाग ने इस वर्ष अधिक गर्मी के चेतावनी तो जारी की थी, पर उन्हें भी अनुमान नहीं था कि अप्रैल में ही तापमान इतना अधिक हो जाएगा. नवाबशाह की एक बड़ी आबादी अप्रैल में ही गर्मी के कहर से घबड़ाकर, अगले कुछ महीने दूसरे शहरों में गुजारने के बारे में सोचने लगी है. 30 अप्रैल को इस शहर में सरकारी अस्पतालों में लू लगने के 24 मामले सामने आये.

इंडियन मेटेरिओलोजिकल डिपार्टमेंट ने 2 अप्रैल को चेतावनी जारी करते हुए कहा था, इस वर्ष भीषण गर्मी की संभावना है और अप्रैल से जून के मध्य औसत तापमान एक डिग्री सेल्सियस अधिक रहने का अनुमान है. ध्यान रहे कि इस वर्ष मार्च के महीने में ही दिल्ली का तापमान 40 डिग्री सेल्सियस को पार कर चुका है. जम्मू और काश्मीर, पंजाब, हरयाणा, चंडीगढ़, दिल्ली और हिमाचल प्रदेश में औसत तापमान एक डिग्री सेल्सियस से अधिक हो सकता है, जबकि उत्तराखंड, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान के पूर्वी और पश्चिमी हिस्से में औसत तापमान 0.5 से 1 डिग्री सेल्सियस अधिक रहेगा.

मई, 2016 में राजस्थान के फालोदी नामक शहर में तापमान 51 डिग्री सल्सियस पार कर गया था, जो एशिया के किसी भी जगह पर वर्ष 1956 के बाद का सर्वाधिक तापमान था. अप्रैल के अंतिम सप्ताह से अबतक 8 दिनों में सागरतटीय आँध्रप्रदेश के हिस्सों में बिजली गिरने की कुल 77774 घटनाएँ दर्ज की गयीं हैं, इनमे से महज 15 घंटों में दौरान 41025 बार बिजली गिरी. 26 अप्रैल को बिजली गिरने से 9 व्यक्तियों की मृत्यु हुए जबकि 1 मई को 19 लोग मारे गए.

पांच दिन पहले 130 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार से चले चक्रवात ने थोड़ी देर में ही उत्तर प्रदेश और राजस्थान में 125 से अधिक लोगों को अकाल मृत्यु का शिकार बनाया. अभी लोग इसके प्रभाव से जूझ ही रहे थे, तभी मौसम विभाग ने अगले दो दिनों में फिर से तेज आंधी की चेतावनी जारी की है. पांच दिन पहले उत्तराखंड में बादल फटे, अभी मौसम विभाग ने इस तरह के आपदाओं की चेतावनी भी जारी की है. केदारनाथ और बद्रीनाथ समेत अनेक पहाडी क्षेत्र सघन बर्फबारी और तूफानी वर्षा से प्रभावित हैं. हिमाचल प्रदेश के साथ साथ चंडीगढ़ और पंचकुला भी ओला की मार से त्रस्त है. इस अध्याय के बाद गर्मी का रिकॉर्ड टूटेगा, ऐसा अनुमान है. बारिश में बाढ़ का प्रकोप साल-दर-साल बढता जा रहा है.

यह महज संयोग है कि गुजरात चुनावों के प्रचार के बीच में ओखी चक्रवात ने अनेक सागर तटीय क्षेत्रों को तबाह किया था और अभी कर्नाटक चुनावों के प्रचार के बीच में पूरा उत्तर भारत तूफ़ान की चपेट में आ गया. गुजरात चुनाव के समय सागर तटीय क्षेत्रों में प्रचार कार्य दो दिनों के लिए रुक गया था, कोई बड़ी रैली आयोजित नहीं की गयी थी. ओखी चक्रवात ने दूसरे राज्यों में तो तबाही मचाई, पर गुजरात पहुंचते-पंहुचते यह क्षीण हो चुका था, और कोई असर नहीं पड़ा. इसके ठीक बाद रैली को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री जी ने अपने चिर-परिचित अंदाज़ में कहा, “वो (कांग्रेस) कह रहे है, तूफ़ान आ रहा है, कहाँ है तूफ़ान? अरे, बापू और पटेल की भूमि पर तूफ़ान आ ही नहीं सकता, वह टकराकर वापस चला जायेगा.” केवल मोदी जी ही बापू और पटेल को किसी एक राज्य में कैद कर सकते हैं, वैसे पूरा देश उनको अपना समझता है. जिस तूफ़ान का उन्होंने गुजरात में मजाक किया था, चुनाव प्रचार खतम होने पर उसी से प्रभावित राज्यों का दौरा भी किया था. अपने भाषण में उन्होंने कांग्रेस का नाम तो लिया, पर मजाक भारत सरकार के मौसम विभाग का उड़ा, क्योंकि चेतावनी तो उसी ने जारी की थी.

इस बार के तूफ़ान में सबसे अधिक तबाह उत्तर प्रदेश था, और यहाँ के मुख्यमंत्री कर्नाटक के चुनावों में प्रचार में व्यस्त थे. उनका अपने राज्य की तबाही से कोई मतलब नहीं था, पर विपक्ष के तेज हमलों के चलते बुझे मन से वापस आये, मौसम विभाग को पर्याप्त चेतावनी नहीं देने के लिए कोसकर वापस कर्नाटक पहुच गए. इसके बाद की मौसम विभाग की चेतावनी का शायद उनके लिए कोई मतलब नहीं था. यह बात दूसरी है कि बाद की चेतावनी को सामान्य जनता ने शायद पहली बार बहुत गंभीरता से लिया, हालत तो यह थी कि 8 मई को सरकारी कार्यालय, बाज़ार और यहाँ तक कि मंगलवार होने के बावजूद हनुमान मदिर भी लगभग खाली थे. दिल्ली में भी यही हाल था.

दार्शनिक फ्रेडरिक एंगेल्स ने लगभग 150 वर्ष पहले ही कहा था, प्रकृति पर अपनी मानवीय विजय से हमें आत्मप्रशंसा में विभोर नहीं होना चाहिए क्यों कि प्रकृति हरेक पराजय का हमसे प्रतिशोध लेती है. पिछले तीन दशकों से वैज्ञानिक लगातार चेतावनी दे रहे हैं कि प्रकृति का हम बहुत दोहन कर चुके हैं और इसके भयंकर परिणाम भुगतने पड़ेंगे. पर, हरेक देशों की सरकारें विकास के नाम पर बस प्रकृति और पर्यावरण का विनाश करने में जुटी हैं. पर्यावरण को बचाने से अधिक आसान मरे हुए लोगों को मुवावजा देना है, ऐसा सरकार मानती है.

स्थिति की भयावहता का अंदाजा लगाइए – केवल दक्षिण एशिया में कुछ लाख लोग वायु प्रदूषण से प्रतिवर्ष मरते हैं, कुछ लाख गंदे पानी को पीने के कारण मरते हैं, बढ़ती प्राकृतिक आपदा से कुछ हजार लोग मरते हैं और लाखों लोग प्रभावित होते हैं. प्राकृतिक आपदा जान के अलावा पूरी खेती भी बर्बाद कर देती है और मवेशियों को भी मार डालती है. ऐसे में जो मरते नहीं वो अपना सब कुछ गवां जरूर देते हैं. सागर का पाने तटीय क्षेत्रों को लील रहा है, जमीन रेगिस्तान में बदल रही है, लोग लगातार विस्थापित हो रहे हैं. फिर लोग शहरों की ओर चलते हैं, कुछ को ही रोजगार मिलता है और बाकी गुजारा के लिए गलत रास्ते अपनाते हैं. अंत में पर्यावरण का विनाश पूरे समाज को अव्यवस्थित कर डालता है.