पिछले कई वर्षों से माना जाता रहा है कि तापमान बृद्धि और जलवायु परिवर्तन ही मनुष्य का अस्तिस्त्व बचाने की सबसे बड़ी चुनौती है, पर अब अधिकतर वैज्ञानिक भी मानने लगे हैं कि जैव विविधता का तेजी से हो रहा विनाश भी उतनी ही बड़ी समस्या है और इससे निपटना जरूरी है. सामान्य स्थिति की तुलना में वर्त्तमान में जैव विविधता के विनाश की दर हजार गुना से भी अधिक है. अब तो यह भी कहा जाने लगा है कि आधी पृथ्वी जैव विविधता के बचाने के लिए छोड़ देनी चाहिए.

संयुक्त राष्ट्र में जैव विविधता की प्रमुख क्रिस्टीना पामर के अनुसार वर्ष 2050 तक कम से कम आधी दुनिया को पर्यावरण और जैव विविधता के अनुकूल बनाना जरूरी है. इसे पूरा करने के लिए भूमि और महासागरों के संरक्षित क्षेत्र, इनसे सम्बंधित परियोजनाएं और भूमि के सतत विकास क्षेत्र को हरेक दशक में कम से कम 10 प्रतिशत तक बढ़ाने की आवश्यकता है. जैव विविधता में कमी का भी प्रभाव उतना ही घातक है जितना जलवायु परिवर्तन का. पामर के अनुसार प्रजातियों का विलुप्तीकरण जिस तेजी से हो रहा है, वह अभूतपूर्व है, ऐसा पहले कभी नहीं देखा गया. इससे मानव समेत हरेक प्रजाति प्रभावित हो रही है. यह सब मौसम के बदलाव जैसा दिखाई नहीं देता पर हम सबको धीरे धीरे मार रहा है. उत्तरी सफ़ेद गैंडा का विलुप्त होना एक खबर बनता है, पर प्रजातियों का विनाश यहीं तक सीमित नहीं है. इस विनाश के मुख्य कारण हैं – प्राकृतिक क्षेत्रों की जमीन के उपयोग में बदलाव, कृषि का विस्तार, भूमि का बेतरतीब उपयोग, अमीर देशों द्वारा प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन और जल संसाधनों का प्रदूषण.

अधिकतर देशों की सरकारों ने वर्ष 2020 तक विश्व की 17 प्रतिशत भूमि और महासागरों के 10 प्रतिशत क्षेत्र को संरक्षित करने का प्राण लिया है, पर परिणाम निराशाजनक हैं. अनेक ऐसी प्रजातियों का नाश हो रहा है जो वायुमंडल में ऑक्सीजन उपलब्ध कराती हैं, मृदा की उत्पादकता बदातीं हैं, गंदे पानी को साफ़ करती हैं या फिर इनसे औषधि प्राप्त होती है. पूरी दुनिया में प्रजातियाँ संकट में हैं.

जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र सम्बंधित सेवाओं के कारण एशिया-प्रशांत क्षेत्र में 1990 से 2010 तक आर्थिक बृद्धि दर 7.6 प्रतिशत से अधिक की रही, पर इसी आर्थिक विकास के कारण जैव विविधता संकट में है. असामान्य मौसम का बदलाव, महासागरों का दोहन, बाहर के प्रजातियों का अतिक्रमण, कृषि क्षेत्र में बृद्धि और बढता प्रदूषण – सब मिल कर प्रजातियों पर अभूतपूर्व प्रहार कर रहे हैं. अनुमान है कि वर्ष 2050 तक पूरे क्षेत्र की लगभग 90 प्रतिशत प्रवाल भित्तियां नष्ट होने की कगार पर होंगीं और व्यावसायिक उपयोग के लिए मछलियाँ नहीं बचेंगी. यूरोप और केंद्रीय एशिया में परम्परागत कृषि और वानिकी के कारण जैव विविधता खतरे में है. यूरोपियन यूनियन के देशों में मात्र 7 प्रतिशत समुद्री प्रजातियों और 9 प्रतिशत प्राकृतिक क्षेत्रों का संरक्षण वैज्ञानिक तरीके से किया जा रहा है.

अफ्रीका अधिकतर विशालकाय स्तनपायी प्रजातियों का एकमात्र आवास है, फिर भी मानवीय गतिविधियों और प्राकृतिक कारणों से वर्त्तमान में यहाँ की वनस्पतियों, मछलियों, उभयचर जीव, सरीसृप, पक्षी और स्तनपायी विलुप्तीकरण की कगार पर हैं. अनुमान है कि जलवायु परिवर्तन के कारण वर्ष 2100 तक अफ्रीका में पक्षियों और जंतुओं की आधी से अधिक आबादी विलुप्त हो जायेगी. झीलों की उत्पादकता में 30 प्रतिशत से अधिक की कमी होगी और वनस्पतियों की प्रजातियों का प्रभावी नाश होगा. अमेरिका जैव विविधता के सन्दर्भ में समृद्ध है, पर लगभग 65 प्रतिशत प्रजातियाँ संकट में हैं. लगभग 21 प्रतिशत प्रजातियाँ सीधे तौर पर जलवायु परिवर्तन से प्रभावित हो रहीं हैं.

विश्व प्रसिद्ध पर्यावरणविद ई ओ विल्सन के अनुसार आधी पृथ्वी को जंतुओं और वनस्पतियों के लिए छोड़ देना चाहिए, पर सभी देश इसे आर्थिक विकास में बाधा मानते हैं. वर्त्तमान में विज्ञान, पर्यावरण और आर्थिक नीतियों में समन्वय का अभाव है. इसे दूर करने के लिए आवश्यक है कि शहर, कृषि और उद्योग सतत विकास पर ध्यान दें और शेष क्षेत्रों को इस तरह विकसित किया जाए जिससे जैव विविधता न्यूनतम प्रभावित हो.