लड़कियों की परवरिश में जितना भेदभाव हमारे देश में है, उतना और कहीं नहीं है. लडकी बचाओ, लडकी पढाओ जैसे नारे लगातार दिए जाते हैं, पर लड़कियों की हालत में कहीं से सुधार नहीं दिखाई देता है. भ्रूण हत्या के द्वारा बहुत सारी लड़कियां पैदा होने के पहले ही मार दी जाती हैं. जो पैदा होती हैं, उनमे भी अधिकतर प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर भेदभाव का शिकार होती हैं. यही भेदभाव प्रतिवर्ष पांच वर्ष से कम उम्र की 239000 लड़कियों को मार डालता है. ध्यान रहे कि यह संख्या भ्रूण-हत्या से अलग है. अप्रैल, 2016 को एनडीटीवी से साक्षात्कार में महिला और बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने बताया था कि भारत में हरेक दिन 2000 से अधिक लड़कियां भ्रूण में ही मार दी जाती हैं. लांसेट के वर्ष 2011 के अध्ययन के अनुसार 1980 से 2000 के बीच कुल 1 करोड़ 20 लाख लड़कियों की हत्या पैदा होने से पहले कर दी गयी. इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए, वर्ष 2011 में प्रति 1000 पुरुष पर मात्र 914 महिलायें थीं. यह एक सोचा-समझा सामूहिक नरसंहार है, जिसे कोई नहीं देखता.

यह अध्ययन ऑस्ट्रिया स्थित इंटरनेशनल इंस्टिट्यूट फॉर एप्लाइड सिस्टम्स एनालिसिस के दल ने किया है और इसे लांसेट ग्लोबल हेल्थ के नए अंक में प्रकाशित किया गया है. अध्ययन के अनुसार यह अतिरिक्त मृत्यु दर भारत में औसतन 18.5 प्रति हजार जन्म है. देश के कुल 640 जिलों में से लगभग 90 प्रतिशत जिलों में यह समस्या है. पर उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान और मध्य प्रदेश में समस्या विकराल है.

उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली, मेघालय और नागालैंड में लड़कियों की यह अतिरिक्त मृत्यु दर प्रति हजार जन्म में 20 या उससे भी अधिक है. इस सन्दर्भ में सबसे बदतर हालत उत्तर प्रदेश की है, जहाँ यह दर 30 से भी ऊपर है. अध्ययन की सह-लेखक क्रिस्तिफ़ी गिलमोतो के अनुसार भारत में लैंगिक असमानता इस हद तक है कि आप लड़कियों को केवल पैदा होने से ही नहीं रोकते बल्कि पैदा होने के बाद भी परवरिश, खानपान, टीकाकरण, शिक्षा, चिकित्सा इत्यादि में भी भेदभाव करते हैं. स्पष्ट तौर पर लड़कियों का लालन-पालन लड़कों की तुलना में उपेक्षित ही रहता है.

इस रिपोर्ट का एक दिलचस्प पहलू यह है कि सवर्ण हिन्दू समाज में यह भेदभाव अधिक है. अध्ययन के आंकड़े बताते हैं कि जहाँ भी अनुसूचित जनजाति या फिर मुसलामानों की संख्या अधिक है, वहाँ यह अतिरिक्त मृत्यु दर कम हो जाती है.

यह, अपने तरह की पहली रिपोर्ट है, जिससे इतना तो समझा जा सकता है कि थोडा सा ध्यान देकर और बिना भेदभाव के यदि लड़कियों की परवरिश की जाए तो प्रतिवर्ष 2,39,000 लड़कियों को अकाल मृत्यु से बचाया जा सकता है. हैरानी की बात है कि लड़कियां अधिक मजबूत और विपत्तियों को अधिक सहने की क्षमता रखती हैं. प्रोसीडिंग्स ऑफ़ नेशनल अकैडमी ऑफ़ साइंसेज के 8 जनवरी 2018 के अंक में प्रकाशित साउथर्न यूनिवर्सिटी ऑफ़ डेनमार्क की वर्जिनिया ज़रुली के एक शोध पत्र के अनुसार महिलायें और लड़कियां अधिक जीवत वाली और जुझारू होती हैं और यहाँ तक कि प्राकृतिक आपदा के समय भी इनकी मृत्यु दर कम रहती है. प्राकृतिक आपदा के समय भूख, प्यास, स्वास्थ्य पर काबू पाने वाली लड़कियों के साथ हम किस कदर का भेदभाव करते होंगे, इसे एक बार तो सोच कर देखिये.

सरकार और गैर-सरकारी संगठनों को देखना होगा कि वे समाज की इस सोच को कैसे बदल सकते हैं, वर्ना नए नारे गढ़े जाते रहेंगे और लडकियां मरती रहेंगी.