तूतीकोरिन में पर्यावरण प्रहरियों की 13 लाशें बिछने के तीन दिनों बाद देश के पर्यावरण मंत्री विदेश दौरे से वापस आये, जाहिर है 4 साल के जश्न में शामिल होना था. पर आते ही उन्होंने पत्रकारों से कहा कि, उन्हें तूतीकोरिन की कोई जानकारी नहीं थी और अभी-अभी समाचार पत्रों के माध्यम से उन्हें कुछ समाचार मिला है, पर तथाकथित उद्योग में जो कुछ हुआ है वह कांग्रेस के जमाने में हुआ है. चार साल में हम पर्यावरण संरक्षण के मामले में कितना आगे बढ़ गए हैं, जरा सोचिये. मंत्री जी को तीन दिन बाद खबर मिलती है कि प्रदूषण उगलने वाले उद्योग का विरोध करते 13 लोग मारे गए और सैकड़ों घायल हो गए, पर सब कुछ कांग्रेस के समय हुआ यह उनको पता था. वर्त्तमान में पर्यावरण से जुडी दूसरी बड़ी खबर, उत्तराखंड और जम्मू-काश्मीर के जंगलों में लगी आग के बारे में तो पर्यावरण मंत्री को शायद कुछ पता ही नहीं था. जंगलों में आग से भयानक तबाही के समय उत्तराखंड के वन मंत्री राज्य से बाहर किसी जश्न में हैं और मुख्यमंत्री कहते हैं कि चिंता कि कोई बात नहीं है, इससे कोई नुक्सान नहीं होगा. और दूसरे विषयों पर तो पता नहीं, पर पर्यावरण संरक्षण के मामले में लोकतंत्र तो कब का मर चुका है, अब जो है वो झूठतंत्र है.

अभी पर्यावरण पर अलग से जश्न मनाना बाकी है. संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण ने इस बार भारत को विश्व पर्यावरण दिवस के आयोजन के लिए वैश्विक मेजबान बनाया है. संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण का खोखलापन भी इससे साफ़ दिखाई देता है. एक ऐसा देश जहाँ वायु प्रदूषण से दुनिया में सबसे अधिक लोग मर रहे हों, हरेक नदियाँ प्रदूषण की चपेट में हों, शोर से लोग बहरे हो रहे हों, पूरी जमीन ही कचराघर हो, देश की आधी भूमि मरूभूमि में तब्दील हो रही हो, वह विश्व पर्यावरण दिवस का मेजबान हो तो आश्चर्य तो होगा ही. यही नहीं, विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों को झुठलाते पर्यावरण मंत्री हों, जिनके अनुसार प्रदूषण से कोई मरता नहीं, बस लोग बीमार पड़ते हैं.

वनों की हालत देखिये. हरेक बार वनों के आकलन में वन क्षेत्र बढ़ जाते हैं. जमीनी हकीकत यह है कि हरेक गर्मियों में बहुत बड़े क्षेत्र के वनों में आग लगती है, अभी भी यही हालत है. तरह-तरह की परियोजनाओं के लिए वनों को नष्ट किया जाता है. कुछ दिनों पहले ही बुलेट ट्रेन के नाम पर 75 हेक्टेयर वन क्षेत्र को नष्ट करने की अनुमति दी गयी. इसके अलावा खनन और उद्योग के लिए वन क्षेत्र नष्ट किये जाते है. इन सबके बाद भी हरेक अगला आकलन पिछले आकलन से वन क्षेत्र बढ़ा जाता है. सभी वैज्ञानिक आकलन बताते हैं कि वनों में ४० प्रतिशत तक की कमी आ गयी है, पर सरकारी आंकड़े प्राकृतिक वन में सभी प्रकार के बाग़ और लगाए गए बृक्ष जोड़कर वनक्षेत्र बढ़ा दिया जाता है.

पिछले चार वर्षों में पर्यावरण से सम्बंधित नियन-कानूनों से जितना खिलवाड़ किया गया उतना शायद कभी नहीं हुआ होगा. सबका साथ-सबका विकास का नारा देने वाली सरकार ने पर्यावरण संरक्षण के हरेक क्षेत्र से जनता को बाहर कर दिया. पर्यावरण स्वीकृति के लिए जन-सुनवाई भी अब सरकार की मर्जी से की जाती है. सरकार ने अपनी तरफ से स्पष्ट कर दिया है कि, पर्यावरण स्वीकृति में केवल स्वीकृति पर ध्यान दिया जाए, पर्यावरण से उन्हें कोई मतलब नहीं है.

राष्ट्रीय हरित न्यायालय को इन चार सालों में अपनी तरफ से पूरी तरीके से प्रभावहीन बना दिया है. अब न तो तकनीकी विशेषज्ञ बचे हैं और न ही न्यायिक अधिकारी. जब नमामि गंगे की माला जपने के बाद भी गंगा को और प्रदूषित करने लगे, तब सरकार से और क्या उम्मीद है. स्वच्छ भारत भी बस आधे-अधूरे शौचालयों तक सिमट गया.

विगत चार सालों में पर्यावरण के प्रभावों को नकारने और अपनी परंपरा की दुहाई देने के अलावा कुछ और भी किया गया हो, ऐसा याद नहीं आता. हम बार बार सुनते रहे, पर्यावरण संरक्षण की हमारी 5000 साल पुरानी परंपरा है, पर्यावरण संरक्षण हमारे डीएनए में है, यह हमारी संस्कृति में रचा-बसा है. पर, जो दिखता है वह सरकारी लापरवाही का नायाब नमूना है.

डॉ हर्षवर्धन बेहतर दिनचर्या की बातें करते हैं पर शायद यह नहीं जानते कि आधी से अधिक आबादी ऐसी है जो रोज कमाती और फिर खाती है. ऐसे लोग अपनी दिनचर्या में क्या बदलाव करेंगे. मंत्री जी व्यायाम की सलाह भी देते हैं. व्यायाम तो खुली हवा में किया जाता है और जहरीली हवा में व्यायाम की सलाह तो केवल यही लोग दे सकते हैं. आश्चर्य तो यह है कि पेशे से डॉक्टर रह चुके और विज्ञान और पर्यावरण जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालयों के मंत्री जी कभी वैज्ञानिक या तकनीकी बातें नहीं करते, अलबत्ता प्रवचन जैसे बोल जरूर बोलते हैं. पर्यावरण के इस समय दो मंत्री हैं – डॉ हर्षवर्धन और डॉ महेश चन्द्र शर्मा. दोनों ही पेशे से डॉक्टर हैं. पर्यावरण संरक्षण और स्वास्थ्य का रिश्ता अटूट है, यह तो सामान्य लोग भी समझते हैं और जानते हैं – पर विडम्बना यह है कि माननीय मंत्रियों के लिए यह तथ्य शायद समझ से परे है.

पिछले चार वर्षों में हम ऐसे मुकाम पर पहुँच चुके हैं जहाँ पर्यावरण मंत्रालय और केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड जैसे संस्थानों पर ताला लगा दिया जाए तो भी पर्यावरण या प्रदूषण के स्तर में कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है. प्रकाश जावडेकर के समय से लेकर डॉ हर्षवर्धन और डॉ महेश चन्द्र शर्मा तक पर्यावरण मंत्रालय लगातार केवल उद्योगों के पक्ष को ही समझता रहा है. जनता, पर्यावरण कार्यकर्ता, वैज्ञानिक रिपोर्ट इत्यादि से इस मंत्रालय का कोई लेनादेना नहीं है. पहले कोई अध्ययन होता था और उसके आधार पर नीतियां तैयार की जाती थीं. अब मंत्री जी बयान देते हैं और इसके बाद उनके बयान के आधार पर रिपोर्ट तैयार की जाती है. मंत्री जी चाहेंगे तो वन क्षेत्र बढेगा, मंत्री जी जितने शेरों की संख्या बढ़ाने का इशारा करेंगे उतने शेर बढ़ जायेंगे. मंत्री जी कहेंगे तो प्रदूषण स्तर कम हो जाएगा और मंत्री जी अपने बयानों से नदियों को साफ़ भी करा देंगे. मंत्री जी कहेंगे तो गौतम अडानी पर लगा पर्यावरण जुर्माना माफ़ हो जाएगा.