लन्दन में ऐसा पहला डेथ सर्टिफिकेट स्वीकृत करने की संभावना है जिसमे मृत्यु का कारण वायु प्रदूषण बताया जाएगा. 4 जुलाई को द गार्डियन में प्रकाशित एक समाचार के अनुसार फरवरी 2013 में दमा के कारण 9 वर्ष की एक बच्ची, एला किस्सी-देबराह, की मृत्यु हो गयी थी. मृत्यु के चार वर्ष पहले से उसे दमा के दौरे पड़ रहे थे और इसके कारण उसे कई बार अस्पताल में भर्ती भी कराना पड़ा था. उसकी मृत्यु भी अस्पताल में ही हुई. फरवरी 2013 में पूरे लन्दन में वायु प्रदूषण का स्तर सामान्य से कई गुना अधिक था. मानवाधिकार संबंधी मामलों के वकील जोसेल्यम कॉकबर्न ने अपने पड़ताल में देखा कि जब जब एला किस्सी-देबराह को दमा के भयानक दौरे पड़े और उसे अस्पताल में भर्ती करने पड़ा, उन तारीखों को लन्दन में वायु प्रदूषण का स्तर अत्यधिक था. पूरे सबूत जुटाने के बाद अब उन्होंने अटॉर्नी जनरल के समक्ष इस केस में एक नयी याचिका दायर की है, जिसमे जीवन के अधिकार के हनन का आरोप सरकार और लन्दन नगर प्रशासन पर लगाया गया है. एक मांग यह भी है, डेथ सर्टिफिकेट में मृत्यु का कारण वायु प्रदूषण लिखा जाए. अटॉर्नी जनरल ने इस मामले को स्वीकार कर लिया है और यदि वह सभी सबूतों से संतुष्ट होते हैं तो संभव है डेथ सर्टिफिकेट में वायु प्रदूषण का उल्लेख किया जाए. वर्त्तमान में इंग्लैंड के अनेक शहरों में ऐसे अनेक मुकदमे दायर किया जा रहे हैं.

इंग्लैंड के एक गैर-सरकारी संगठन, ग्लोबल एक्शन प्लान, ने इंग्लैंड के चार शहरों – मेनचेस्टर, लीड्स, ग्लासगो और लन्दन में बृहत् अध्ययन करने के बाद बताया कि जो बच्चे सघन परिवहन वाली सडकों के किनारे पैदल चलते हैं उनपर वायु प्रदूषण का प्रभाव वयस्कों की तुलना में 30 प्रतिशत अधिक पड़ता है. इसका कारण है, बच्चों की कम लम्बाई के कारण वाहनों का धुवाँ उनपर अधिक असर डालता है. इसी संगठन ने दूसरे अध्ययन में बताया था कि जो बच्चे कार से अपने विद्यालय जाते हैं वो अन्य बच्चों की अपेक्षा 50 प्रतिशत अधिक प्रदूषण की मार झेलते हैं. हमारी धारणा है कि बंद कारों में वायु प्रदूषण का प्रभाव कार के अन्दर बैठे लोगों पर नहीं पड़ता, पर अब अनेक नए अध्ययन से यह स्पष्ट हो गया है कि बंद कारों में प्रदूषण की मात्रा बाहर से अधिक होती है.

प्रतिष्टित वैज्ञानिक पत्रिका नेचर में प्रकाशित एक लेख में बताया गया था, वर्ष 2015 में विश्व में 33 लाख बच्चों की मृत्यु वायु प्रदूषण के कारण हुई, और यदि वायु प्रदूषण इसी तरह से बढ़ता रहा तो वर्ष 2050 तक यह संख्या 66 लाख तक पहुँच जायेगी. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार विकासशील देशों के 97 प्रतिशत शहरों में वायु प्रदूषण का स्तर निर्धारित सीमा से अधिक है, जबकि विकसित देशों में यह संख्या 49 प्रतिशत है.

यूनिसेफ द्वारा जून 2018 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार हमारे देश में लगभग सभी जगहों पर वायु प्रदूषण निर्धारित सीमा से अधिक है, जिससे बच्चे सांस के रोगों, फेफड़ों के रोगों, दमा और अल्प विकसित मस्तिष्क के शिकार हो रहे हैं. पांच वर्ष के कम उम्र के बच्चों की मृत्यु में से से दस प्रतिशत से अधिक का कारण साँसों की बीमारियाँ है जो वायु प्रदूषण के कारण होती हैं. यूनिसेफ के अनुसार विश्व में 2 अरब बच्चे खतरनाक वायु प्रदूषण वाले क्षेत्रों में रहते है, जिनमे से 62 करोड़ बच्चे दक्षिण एशियाई देशों में हैं. केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा प्रायोजित एक अध्ययन के अनुसार दिल्ली के एक-तिहाई बच्चों के फेफड़े सामान्य काम नहीं करते. यूनिसेफ द्वारा दिसम्बर 2017 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में अधिकतर बच्चों के मस्तिष्क की कार्य-प्रणाली वायु प्रदूषण के कारण प्रभावित हो रही है.

नेचर के जून 2018 अंक में प्रकाशित लेख के अनुसार अफ्रीका में सहारा रेगिस्तान के आसपास के देशों में बच्चों की कुल मौतों में से 22 प्रतिशत का कारण वायु प्रदूषण है और यदि इस क्षेत्र में वायु प्रदूषण के स्तर में कमी लाई जाए तो कम से कम 4.5 लाख बच्चों को मौत के मुंह में जाने से रोका जा सकता है. वैज्ञानिकों के अनुसार हवा में मौजूद पीएम 2.5 (2.5 माइक्रोन से छोटे कण) की सांद्रता में 10 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर की बृद्धि होती है तो बच्चों की मृत्युदर में 9 प्रतिशत की बृद्धि होती है. पूरे अफ्रीका की हवा में यदि पीएम 2.5 की सांद्रता में 5 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर की कमी आ जाए तब प्रतिवर्ष 40000 नवजात शिशुओं की मृत्यु को रोका जा सकता है. इस अध्ययन को स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी और यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया के वैज्ञानिकों ने संयुक्त तौर पर किया था.

हम हमेशा बात करते हैं कि आनेवाली पीढी के लिए कैसी दुनिया छोड़कर जायेंगे, पर यदि वायु प्रदूषण का यही हाल रहा तो सत्य तो यही है कि हम आनेवाली पीढियां ही नहीं छोडके जायेंगे. जो जिन्दा रहेंगे उनके भी फेफड़े और मस्तिष्क सामान्यत: काम नहीं कर रहे होंगे.