किसी भी व्यक्ति के सांगठनिक जीवन की बुनियादी इकाई परिवार है. उत्तर आधुनिक युग में भारत में संयुक्त परिवार का पारम्परिक संस्थात्मक ढांचा लगभग टूट चुका है रहा है. परिवार के नए ढाँचे भी बन रहे हैं जिनमें नाभिकीय ( एकल ) परिवार प्रमुख है। विवाह -विहीन , महिला -विहीन , पुरुष -विहीन और संतान-विहीन परिवार भी नज़र आते हैं. परिवार के समाज , धर्म और विधि सम्मत रूप से इतर भी कुछेक रूप आम बेशक ना हों लेकिन हमारे इर्द -गिर्द उनके होने से इंकार नहीं किया जा सकता है। समलैंगिकों का संतान -विहीन या फिर दत्तक -संतान -युक्त परिवार कोई अनहोनी नहीं है। कुछ परिवार ऐसे भी हैं जो सामाजिक , धार्मिक , विधिक समेत किसी भी रूप से भौतिक अस्तित्व में ही नहीं हैं फिर भी उन्हें परिवार कहा जाता है। जैसे ' सहारा परिवार ' और ' संघ परिवार '.

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई ने 1996 में अपनी पहली सरकार के प्रति पेश विश्वास -प्रस्ताव पर हुई बहस में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता शरद पवार के एक प्रश्न पर भरी संसद में कहा था कि वह अविवाहित अवश्य है लेकिन ब्रम्हचारी नहीं है. हम जानते हैं कि भारतीय समाज और हिंदी वांग्मय को " दत्तक दामाद " का पदबंध मुख्य्तः उन्ही की बदौलत मिला। श्री वाजपेई के दत्तक दामाद , प्रज्ञान भट्टाचार्य उन्हीं के साथ रहते रहे और उनका प्रधानमन्त्री कार्यालय तक में खासा दखल रहा था. कलाकार नीना गुप्ता का क्रिकेट खिलाड़ी विवियन रिचर्ड्स से समाज , धर्म और विधि सम्मत विवाह नहीं हुआ पर उनकी जैविक रूप से उत्पन्न संतान , मसाबा बतौर फैशन डिजाइनर हमारे बीच विधमान है.

हम यह भी जानते हैं कि भारत के प्रमुख उद्योगपति रहे धीरूभाई अम्बानी मरते दम तक अपने दोनों पुत्र -पुत्रवधू , मुकेश अम्बानी-नीता अम्बानी और अनिल अम्बानी -टीना अम्बानी तथा उनकी संतानों के संग एक बड़े संयुक्त परिवार में रहे। उनके निधन के बाद ही वह संयुक्त परिवार टूटा जिसके कारण आर्थिक या दोनों पुत्रवधू के बीच अहम् का कथित टकराव जो भी हों. भारत के ही प्रमुख उद्योगपति रतन टाटा स्वेक्षा से अविवाहित रहे. उनकी कोई दत्तक संतान भी नहीं है जो विशाल टाटा समूह का कारोबार संभाल सके। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि उनका परिवार की संस्था में कोई विश्वास ही नहीं है.

हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि भारत में 1736 में पोत उध्योग की नींव रखने वाले पारसी समुदाय के लवजी नसीरवानजी वाडिया के वंशजों का विशाल संयुक्त परिवार है. इस परिवार के प्रमुख उद्योगपति नुस्ली वाडिया के पिता नेविली वाडिया ने पाकितान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना की एकमात्र संतान , दीना जिन्ना से विवाह किया था और 1947 में भारत विभाजन का दंश झेलने के बाद अपने परिवार को विभाजित ना होने देने की लगभग विधिवत ताकीद कर दी थी।

कहते हैं कि चूल्हा , संयुक्त परिवार को जोड़ता है और तोड़ भी देता है। कई लोग बताते हैं कि कभी उनके संयुक्त परिवार में रोज एक ही चूल्हा पर एक मन भात पकता था और अब भी चावल की रोजाना खपत कुछेक मन से कम नहीं है लेकिन चूल्हे चालीस हो गए हैं. उनके पूर्ववर्ती संयुक्त के घर -आँगन लगातार बंट -बंट इतने टेढ़े -मेढ़े हो गए हैं कि समझ में नहीं आता कैसे गुजारा करें। बहुत लोग कहते है कि शहरों में ही नहीं गाँव में भी नाभिकीय परिवार का आधुनिक ट्रेंड चल रहा है. कुछ लोग मानते हैं कि गावों में जिस तरह खेत के बंट -बंट कर उनका उत्पादन कम-से-कम लाभकारी होता जा रहा है और उनकी चकबंदी की सरकार की कुछेक दशक पहले शुरू की गईं कोशिश का भी कोई ठोस नतीजा नहीं निकला उसी तरह संयुक्त परिवार के रहने से आर्थिक सुदृढ़ता आने की संभावना पर आम सहमति होने के बावजूद उनके बिखराव की समस्या का कोई समाधान नज़र नहीं आता है। महाराष्ट्र के सोमनाथ पाटिल ने बताया कि उनके संयुक्त परिवार के पास कभी 40 बीघा खेत थे पर अब उनके अपने हिस्से का बामुश्किल एक बीघा खेत ही बच पाया है और आँगन तो कंही खो गया है. उन्होंने यह भी कहा कि सांझा चूल्हा ना रहने से ज्यादा पीड़ा सांझा आँगन के गायब होते जाने से है. सब कुछ बंटता गया , बिखरता गया , प्यार भरे परिवार नहीं रहे।

दिल्ली के बुद्धिजीवि सुजीत घोष के अनुसार संयुक्त परिवार औरतों के खून- पसीने पर टिकी होती थी। उसे टूटना ही था। उनका कहना था , " मैंने कभी औरतों को संयुक्त परिवार के बारे में नॉस्टेल्जिक होते नहीं देखा। जो कुछ सुना है वह वंचना ही है. पत्रकार शोभित जायसवाल ने दो टूक कहा , " संयुक्त परिवार स्त्री और मनुष्य विरोधी है " झारखंड की राजधानी , रांची के रेलवे स्टेशन के दक्षिण एक विशाल आवास है - सिन्हा विला। इसके मुख्य कर्ता -धर्ता , उपेंद्र प्रसाद सिंह ने पिछली चार पीढ़ी से विधमान अपने संयुक्त परिवार को एक अलग रूप देकर बरकरार रखा है जो एक तरह से नाभिकीय भी है और नहीं भी. इस परिवार का चूल्हा एक ही है। सब साथ रहते है , सांझा कमरे में टीवी देखते हैं. लेकिन सबके अलग-अलग कारोबार और वाहन हैं. कोई किताब की दूकान चलाता है , कोई होटल , कोई पेट्रोल पम्प , कोई स्टोन चिप्स का व्यवसाय करता है , तो कोई कुछ और। उसका हर सदस्य अपनी आय अपने नाभिकीय परिवार को देता है। लेकिन उस संयुक्त परिवार में शामिल हर कमाऊ सदस्य सुख -दुःख बांटता है , कोई बिजली का बिल भरता है , कोई अनाज लाता है , कोई दूध , तो किसी को तैनात किया गया है रोज सब्जी बाज़ार जाकर ताज़ी सब्जी ले आने। नई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविध्यालय से राजनीति शास्त्र की शिक्षा प्राप्त कर चुके उपेंद्र के अनुसार संयुक्त परिवार और हिन्दू अविभाजित परिवार में फर्क है. उन्होंने तनिक तल्खी से यह भी कहा , " जिस देश में संयुक्त परिवार नहीं चला वहां समाजवाद क्या आएगा ".

उनकी बात से कुछ सहमत विशाखापत्तनम में बस चुकी महिला उधमी रेनू गुप्ता ने कहा कि संयुक्त परिवार बच सकता है बशर्ते उसके सदस्य पारस्परिक आदर और लेन -देन के आधार पर गुजर-बसर करें। संयुक्त परिवार के " कर्ता " को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वह और संयुक्त परिवार के वरिष्ठ सदस्य सबके प्रति निष्पक्ष रहे , सबकी जरुरत , आशा , आकांछा की पूर्ती का रास्ता ढूंढने में साथ दे। जरुरी नहीं कि संयुक्त परिवार , युवा पीढ़ी के कारण टूट रहे है . यह भी संभव है कि इसकी जिम्मेवार पुरानी पीढ़ी की संकीर्ण सोच हो।