हिन्दुस्तान में एक पुरानी कहावत है , जान है तो जहान है. इसका सीधा मतलब सेहत है। सेहत के मामले में हिन्दुस्तानी , आम तौर पर फिक्रमंद रहे हैं। सभी मानते हैं कि दुनिया भर को सेहत सम्भालने की अत्यंत प्राचीन पद्धिति , आयुर्वेद और योग भारत की देन है। भारत , सेहत संभालने के लिए दुनिया भर की पद्धितियों , झाड़ -फूँक , जड़ी -बूटी , आसान कसरत , कठिन व्यायाम , यूनानी , होमियोपैथी , चीनी एक्यूपन्क्चर - एक्यूप्रेसर से लेकर आधुनिक एलोपैथी , नैचुरोपैथी और उत्तर आधुनिक अलटरनेटिव मेडिसीन तक अपनाने से नहीं हिचका है।

नीम

भारत में श्रुति परम्परा से कायम एक पुराना किस्सा है जिसका लब्बो -लुबाब यह है कि कभी किसी जमाने में चीन के एक राजकीय वैधराज ने भारत के अधिकतम ख्याति के वैधराज की योग्यता को जांचने -परखने उनके पास एक ऐसे चीनी व्यक्ति को भेजने की व्यवस्था कर दी जो मरणासन्न था। भारतीय वैधराज उसे देखते ही सब ताड़ गए। यह भी समझ गए कि चीनी वैधराज ने उस व्यक्ति का उपचार स्वयं करने में असफल रहने के बाद ही उसे कुछेक अन्य चीनियों की टोली संग भारत भिजवाया है. भारतीय वैधराज ने चीनियों की टोली से कहा कि वे उस मरणासन्न व्यक्ति को वापस ले जाए। चीनी टोली ने सहम कर कहा कि उस व्यक्ति का उपचार तो भारत लाने से भी नहीं हो सका और अब वह व्यक्ति वापसी के लम्बे रास्ते में ही परलोक सिधार जाएगा। ऐसे में वे चीनी वैध को क्या जवाब देंगें।

भारतीय वैधराज ने किंचित मुस्कान के साथ कहा कि उस मरणासन्न व्यक्ति का और कहीं नहीं भारत में ही उपचार संभव है और वह हो जाएगा। बस इतना ध्यान रखना कि यह व्यक्ति चीनी वैध के पास वापस पहुँचने के पहले लम्बी यात्रा के भारतीय मार्ग में नीम वृक्ष तले ही सोए , नीम का दांतुन कर , सिर्फ नीम के ही पत्ते , फल -फूल खाए , नीम का ही रस पीए। हाँ , यह सुनिश्चित करना कि वह चीन पहुँचने से पहले और कुछ भी नहीं खाए-पीए। नीम भारत में ही मिलेगा , भारत के बाहर शायद ही कहीं। चीन में तो नीम बिल्कुल नहीं मिलेगा , मिलता होता तो तुम्हारे वैध को इसे भारत में मेरे अथवा किसी भी वैध के पास जरुरत नहीं पड़ती। वह मरणासन्न व्यक्ति , भारतीय मार्ग में ही पूर्णतया स्वस्थ होकर चीनी वैध तक पहुँच गया। चीनियों ने भारतीय वैधराज का लोहा मान लिया और उन्हें भारत की अपेक्षाकृत बेहतर सेहत का कुछ राज भी समझ में आ गया। लेकिन यह किस्सा सैंकड़ों बरस पहले का है।

प्रेशर कूकर

अब भारत में भी सभी जगह नीम के वृक्ष आसानी से देखने को भी नहीं मिलते। भारतीय जड़ी -बूटी के भी भविष्य में सहज उपलब्धता की संभावना खतरे में पड़ती नजर आती है। भारतीयों का रहन -सहन , पहनावा ही नहीं खान -पान बहुत बदल गया है। मसालों के लिए औपनिवेशिक साम्राज्यों का निशाना बने भारत में मसाला पीसने के लिए सिलबट्टा नगरों में तो नहीं ही दिखता है। मसाला पीसने , ग्राइन्डर के इस्तेमाल पर जोर है। गाँव -देहात में भी हल्दी , जीरा , धनिया और कश्मीरी से लेकर गोल , काली , लाल मिर्च सभी मसालों के पाउडर का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है. प्रेशर कूकर के आविष्कार के बाद से लगभग हर रसोई में दाल से लेकर भात पकाने उसी का इस्तेमाल किया जा रहा है। हमारे सेहत की " सीटी " बज गई है.

स्वास्थ्य बीमा

अंग्रेजी में कहावत है ' प्रीवेन्शन इज बेटर दैन रिमेड़ी " , मतलब व्याधियों उपचार से उनके निरोधक उपाय बेहतर है। निरोधक उपायों की कमी की चर्चा संक्षेप में उपरोक्त सन्दर्भों में की जा चुकी है। अब बारी उपचार के उपायों की चर्चा की है। लेकिन मौजूदा हालात क्या हैं ? आम हिन्दुस्तानियों की औसत सेहत कैसी है ? आने वाले कल को क्या होने वाला है ? उपचार की व्यवस्था में अगर किसी गड़बड़ी का अंदेशा है तो उससे बचने के क्या उपाय किए जा सकते हैं। इन उपायों पर कितना खर्च आएगा। इनमेंसे कितने उपाय लोककल्याणकारी राजकाज की संविधान -सम्मत नीति के तहत सरकार करेगी , कौन - कौन उपाय का ठेका निजी क्षेत्र की स्वास्थ्य सुविधा और बीमा कम्पनियों के हवाले किये जाएंगे और जन्म से लेकर मृत्यु तक किसी की भी सेहत की कितनी जिम्मेवारी खुद उसके और उसके परिजनों पर होगी ? सवाल बहुत हैं और जवाब बहुत कम। सेहत के मुद्दे के समाधान के शॉटकट रास्ते नहीं है। लेकिन भारत में 1990 के दशक में तथाकथित आर्थिक उदारीकरण और निजीकरण को प्रोत्साहित करने की नीति लागू होने के बाद के नतीजों की बानगी इस तथ्य से मिल सकती है कि देश की वाणिज्यिक राजधानी , मुम्बई में इन वर्षों में राजकीय अस्पतालों में इक्का -दुक्का बिस्तर का ही इजाफा हुआ है और बिहार के सहरसा जिला के बसनही गाँव में भारत की आजादी बाद के शुरुआती दशक में ही खोले गए उस प्राथमिक चिकित्सा केंद्र पर बरसों से कोई डॉक्टर , कम्पाउण्डर , नर्स क्या , किसी मरीज की भी आवाजाही बंद हो गई जहां शिशु जन्म के लिए सीजेरियन ऑपरेशन तक की कामचलाऊ व्यवस्था थी। उस केंद्र के संचालन के लिए सरकार का सालाना खर्च अभी करीब 5 लाख रूपये है , उसपर लिखी सूचना में डॉक्टर का मोबाईल नम्बर भी अंकित है। लेकिन उस केंद्र के इर्द -गिर्द बकरियां चरती हैं उसके कई मील तक दायरे में सूई लगाने तक की कोई सरकारी सुविधा उपलब्ध नहीं है।

मोदी केयर

मोदी सरकार के दौरान स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति बद से बदतर होती जा रही । सरकारी आंकड़ों के ही मुताबिक़ देश के सकल घरेलू उत्पाद का बामुश्किल 4 प्रतिशत ही इस मद में खर्च होता है जबकि चीन में 8.3 प्रतिशत, रूस में 7.5 प्रतिशत और अमेरिका में 17.5 प्रतिशत खर्च होता है। चीन की 1. 41 अरब आबादी के 97 प्रतिशत को " पब्लिक हेल्थ केयर सिस्टम " की सुविधा प्राप्त है। वित्त वर्ष 2018 -19 के अपने बजट में मोदी सरकार ने " दुनिया की सबसे बड़ी स्वाथ्य बीमा योजना " शुरू करने की घोषणा की. केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली द्वारा पेश इस बजट में उक्त योजना को ‘ मोदी केयर ’ के नाम से विभूषित कर दिया गया। इसकी कलई खुलने में देर नहीं लगी। सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने ट्वीट किया - ‘मोदी केयर’ का मतलब एक व्यक्ति पर केवल 40 रुपये का सरकारी खर्च। श्री जेटली ने बजट में दावा किया कि इस योजना से लगभग 50 करोड़ लोगों को लाभ होगा, हर साल प्रत्येक परिवार को 5 लाख रुपये का मेडिकल खर्च दिया किया जाएगा। पर नए बजट में स्वास्थ्य - परिवार कल्याण मद में 52 हज़ार 800 करोड़ रुपये का जो प्रावधान हैं वह पिछ्ले बजट की तुलना में 2.5 प्रतिशत ही बढ़ा है।

केंद्र सरकार की नई स्वास्थ्य नीति में स्वास्थ्य बीमा के लिये 2000 करोड़ रूपये का जो प्रावधान हैं वह केरल राज्य के बजट में स्वास्थ्य मद में प्रावधानित रकम से भी ज्यादा नहीं है. खुदा खैर करे भारत की सेहत की।