अपने अस्तित्व में आयी हर वस्तु का एक जीवन होता है. सजीव वस्तुएं अपना जीवन पूरा करती हैं और मृत्यु के साथ मुक्त होती हैं. निर्जीव वस्तुओं को यह सहूलियत हासिल नहीं होती. उन्हें फिर से कुछ सुधारों, तब्दीलियों के साथ काम पर लौटना होता है और यही उनका परवर्ती जीवन होता है.

हम रोजमर्रा के इस्तेमाल में आने वाली कई चीजों को रद्दी मान कर हटा देते हैं. लेकिन एक दुनिया इन्हीं कबाड़ के इंतजार में होती है जो उसे फिर से नया जीवन देकर इस्तेमाल के लायक बनाती है. यह कहानी मुम्बई स्थित उसी दुनिया की है, जहाँ मैं आपको रसोईघर, स्नानघर आदि में इस्तेमाल होने वाले लोहे के पाइप की पुनर्यात्रा के बारे में बताउंगी. इसमें उन मजदूरों की भी अनदेखी, अनसुनी कहानियां होंगी जो इस पुनर्निर्माण के अहम कारीगर होते हैं.

लोहे का पाइप जब नया होता है, हमारे घर के कई हिस्सों में पानी पहुँचाने का काम करता है. पानी रिसने और जंग लगने की स्थिति में आते ही वह हमारे लिए अवांछित हो जाता है. यह कबाड़ गली-मुहल्लों में घुमने और हांक लगाकर ख़ुद को ‘कबाड़ीवाला’ कहने वालों के हाथों हमारे घरों, दफ्तरों, दुकानों से उठकर बड़े पैमाने पर कबाड़ का व्यवसाय करने वालों के पास पहुँच जाता है. ये व्यवसायी इसे आगे उन बड़े व्यवसायियों को बेच देते हैं जो लोहे की चीजों का व्यापार करते हैं. ये बड़े व्यापारी ऐसे तमाम लौह सामग्रियों को इकट्ठा करते हैं, उन्हें दुरुस्त करवाते हैं और वापस बिल्डिंग निर्माण में लगे कम्पनियों या लोहे के दूसरे उत्पाद बनाने वाली कम्पनियों को बेच देते हैं.

उत्पादन व्यवस्था

मुंबई का सरिता इस्टेट जो 30,000 स्क्वायर फीट में फैला है और जहाँ करीब 82 कारखानों की इकाइयां संचालित हैं, उसमें से 71 इकाइयों में निप्पल बनाए जाते हैं. प्रचलित समझ में निप्पल ‘बेबी फीडर’ की दुनिया का एक लोकप्रिय शब्द है पर यहाँ ये निप्पल लोहे के बने वो हिस्से होते हैं जो दो पाइपों को परस्पर जोड़ने का काम करते हैं. विशेषकर पाइपों को घुमावदार स्थिति देने में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है. इनका निर्माण कबाड़ के लोहे से होता है. यहाँ बनने वाले निप्पलों में बैरल, क्लोज और वेल्डिंग निप्पल प्रमुख हैं.

निप्पल बनाने के लिए कबाड़ वाले लोहे अन्ना सागर के व्यवसाइयों से ख़रीदा जाता है. कबाड़ के पाइप को पुराना और कमोबेश जंग लगे होने की वजह से पहले साफ़ किया जाता है. यह सफाई दो स्तरों पर होती है. सबसे पहले लोहे के उपरी परत को चाकू या लोहे के छोटे प्लेट्स से खरोंचा जाता है. फिर उसे एसिड में डूबोया जाता है. इसके बाद उसे लोहे की बुरादों से बनी पट्टियों से घिसा जाता है. इससे लोहे में चमक आ जाती है. ये सारे काम उन मजदूरों के हिस्से होता है जो अपेक्षाकृत नये होते हैं और ‘हेल्पर’ कहलाते हैं.

साफ हुए पाइप को इच्छित आकार देने के लिए ‘लेथ’, ‘लैंडिस’ और ‘प्रेस’ मशीनों से गुजारा जाता है. इन मशीनों पर काम करने वाले लोग ‘टेक्नीशियन’ कहे जाते हैं. अमूमन ‘टेक्नीशियन’ दो तरह के होते हैं. पहले वो, जो पाइप को काटते हैं और दूसरे, जो उसके ‘कोण’ और ‘गुना’ (धारियां) तैयार करते हैं.

बाज़ार तक पहुँच

यहाँ की ज्यादातर इकाइयां स्वरोजगार के तहत आती हैं. इन्हें व्यक्ति विशेष द्वारा खड़ा किया गया है, जो माल बनाते हैं और ख़ुद बेचते हैं. इन्हें किसी आर्डर का इंतज़ार नहीं होता. उत्पादित माल बाज़ार में कहां बेचना है, इन्हें पता है. इसलिए ये लगातार निप्पल का उत्पादन कर रहे होते हैं. उत्पादित माल मुंबई के कॉटन ग्रीन एवं नाग देव मार्केट में डीलर्स के हाथों बेचा जाता है. डीलर्स के पास से इन निप्पलों को प्लम्बिंग की चीजें बेचने वाले थोक विक्रेताओं द्वारा खरीदा जाता है. जहाँ से खुदरा स्टोर्स इन निप्पलों को बाज़ार में बेचने के लिए लेते हैं. मुंबई के सरिता इस्टेट में बने इन निप्पलों की मांग पूरे देश के बाजारों में है. छोटे पैमाने पर घरेलू जरूरतों के लिए खरीदी के अलावे भवन निर्माण में लगी कम्पनियां इसकी सबसे बड़ी खरीददार हैं.

मेहनताना

इस काम में सबसे कम मजदूरी सहायक मजदूरों की होती है. उन्हें महज़ पांच से सात हज़ार प्रति माह का वेतन दिया जाता है. पाइप काटने वाले टेक्नीशियन का वेतन सात से नौ हजार तक और ‘कोण’ और ‘गुना’ बनाने वाले टेक्नीशियन को नौ से बारह हज़ार प्रतिमाह चुकाया जाता है.

मजदूरी महीने के हिसाब से दिया जाता है. लगभग सभी मजदूरों को पूरे हफ्ते खर्च करने के लिए प्रत्येक शनिवार को पांच सौ रूपये दिए जाते हैं, जिसे ‘खर्ची’ कहा जाता है. ‘खर्ची’ का यह हिसाब उनको महीने में दी जाने वाली रकम से काट लिया जाता है.

कार्यस्थल का माहौल


निप्पल बनाने वाली इकाइयों का आकार किसी बड़े डिब्बे की मानिंद होता है जो 15*20 फीट से लेकर 15*30 फीट तक होता है. इन इकाइयों का एक बड़ा हिस्सा रद्दी लोहे के पाइपों से ढंका होता है. भारी मशीनें दीवार के एक हिस्से में होती हैं. शेष जगह विभिन्न प्रकार के तैयार लोहे के उत्पादों को रखने के लिए होता है.

इन डिब्बेनुमा बड़े कमरों में हवा और प्राकृतिक प्रकाश की सर्वथा कमी होती है. कहीं किसी तरह के ‘वेंटीलेशन की कोई सुविधा नहीं होती. तिस पर मशीनों से पैदा हुई गर्मी से कमरे का तापमान सामान्य से कहीं ज्यादा और पूरा माहौल दमघोंटू बना रहता है. लोहे के ऊपरी सतह पर पड़ी जंग को मजदूर बिना किसी ‘मास्क’ और दस्तानों के सहारे हटाते हैं. लोहे को खुरचने के दौरान हवा में उसके कण उड़ रहे होते हैं और ‘मास्क’ न होने की वजह से साँसों के जरिये फेफड़ों तक पहुंचते हैं. लोहे को एसिड में डूबाने-निकालने के दौरान भी मजदूरों के पास दस्ताने नहीं होते.

निशांत और शेखर इसी तरह के निप्पल बनाने की एक इकाई में काम करते हैं, जहाँ उनका काम लोहे को प्राथमिक तौर पर साफ़ करने का है. निशांत एक हाथ से लोहे की पाइप को मजबूती से पकड़े हुए दूसरे हाथ से उसपर तेज़ी से चाक़ू चला रहे थे. मैंने उन्हें इतनी तेज़ी और विश्वास भरे लापरवाही से चाकू चलाते देख कहा, ‘जिस तेज़ी से आप चाकू चला रहे हैं, आपके हाथ कट सकते हैं.’ उन्होंने मुस्कुराकर अपने बांएँ हाथ के अंगूठे के आसपास कटे के निशान दिखाकर कहा, ‘यहां ये सब होता रहता है.’

शेखर पाइप को एसिड से धोने का काम करते हैं. हालांकि उस रोज़ उन्होंने अपने एक हाथ में दस्ताना पहन रखा था और उससे उन्होंने लोहे की पाइप पकड़ी थी. उनके दूसरे हाथ में एक मग था, जिसमें एसिड भरा था. वे एसिड को लोहे पर गिरा रहे थे. मग से लोहे की पाइप पर एसिड गिराने में एसिड के छींटे हाथ पर पड़ने के खतरे होते हैं. मैंने उनसे दूसरे हाथ में दस्ताना न पहनने का कारण पूछा तो बोले, ‘दस्ताने पहनने से एसिड वाला मग पकड़ने में दिक्कत होती है.’

शैलेन्द्र उसी इकाई में टेक्नीशियन का काम करते हैं जिसमें निशांत और शेखर हैं. जब मैं शैलेन्द्र से मिली, वे लोहे का पाइप काट रहे थे. कमरे में प्रवेश द्वार के पास ही मशीन लगी थी. कमरे में कोई बल्ब नहीं था. शैलेन्द्र दरवाजे से आ रही रौशनी के सहारे ही पाइप काटने का काम कर रहे थे. मैंने पूछा, ‘शाम में जब रौशनी नहीं रहती होगी, फिर कैसे काम कर पाते होंगे?’ उन्होंने मेरा ध्यान अंदर लटक रहे दो बल्ब की ओर दिलाया, जो मशीन से काफी दूर कमरे के अंदरूनी हिस्से में थे. वे बोले, ‘इनसे काम चल जाता है.’

काम करने की स्थितियां कमोबेश सभी इकाइयों में एक-समान ही है. मजदूर एक-समान समस्याओं के बीच काम कर रहे होते हैं. बुनियादी सुविधाओं के नाम पर महज़ बिजली के चंद लट्टू लटक रहे हैं. पूरे अहाते में पीने के पानी के लिए महज एक नल लगा है. अहाते में काम करने और रहने वाले लगभग पांच सौ मजदूरों पर दो शौचालय हैं जिनकी स्थिति कस्बाई शहरों के बस अड्डे के शौचालयों जैसी ही है.

रिहाइश

एक इकाई में 6-7 मजदूर कार्यरत हैं. लगभग सभी अपने कार्यस्थल पर ही रहते हैं. रात में सोने के लिए लोहे की पाइप और मशीनों से भरे उसी डिब्बेनुमा कमरे में रहने के लिए जगह बना ली जाती है. रात में सोने के लिए इन्हीं खाली जगहों पर मजदूरों के ‘फोल्डिंग बेड’ बिछते हैं. दिन में ये ‘बेड’ मोड़कर या तो दीवारों के सहारे टांग दिए जाते हैं या बाहर खुले में रख दिए जाते हैं. कुछ इकाइयों के कामगार सोने के लिए लकड़ी के तख्तों का इस्तेमाल करते हैं. कुछ इकाइयों में पीने के पानी और नहाने-धोने की कोई व्यवस्था नहीं है.


खाना बनाने की कोई जगह अलग से कहीं नहीं है. लोग कार्यस्थल के किसी खाली हिस्से में ही धूल की मोटी परतों, कबाड़ और दूसरी गंदगियों के बीच खाना पकाते हैं एवं वहीं खाते हैं. एक रोज जब हम उस अहाते में थे, दोपहर का वक्त था और सारे कामगार खाना खाने के बाद अपने जूठे बर्तन लिए नल के पास इकट्ठे थे. यह वह वक्त था जब हम उनका थोड़ा इत्मिनान का समय पा सकते थे.

उन कामगारों में से एक राजेन्द्र ने बताया कि भोजन बनाने की जिम्मेदारी सबकी बारी-बारी से बंटी हुई है. कोई दो लोग दोपहर के खाने से ठीक एक घंटे पहले काम करना बंद कर भोजन बनाने में लग जाते हैं. एक सब्जी काटता, बनाता है तो दूसरे को चावल-दाल धोना, बनाना होता है. यह किसी नियम की तरह हो गया है. यहाँ किसी को बढ़िया पकाने का होश नहीं है, जो जैसे मिला पर्याप्त है. पेट भरना चाहिए. खाना तो दूर किसी को बीमार पड़ने की फुर्सत नहीं है.

घर-परिवार से दूर इतने बड़े महानगर में इस तरह की छोटी-बड़ी तमाम समस्याओं से जूझते हुए हमारी अर्थव्यवस्था में हर मिनट कुछ जोड़ने वाले इन मजदूरों की यह एक अलग अदृश्य सी दुनिया है, जो उनके बीच जाने पर ही खुलती है. इस दुनिया की बातें न अखबारों में है, न किसी पाठ्यक्रम में, न सरकार की फाइलों में. एक असुरक्षित, कठिन, अस्वस्थ, अभावों और मज़बूरी के बीच जी जा रही इन जिंदगियों की हाड़तोड़ श्रम की बदौलत हमारे द्वारा उत्सर्जित न केवल एक विशाल कबाड़ का नियोजन हो रहा है बल्कि शहरी जिंदगियों को सुविधाओं से भरपूर करने के लिए साजो-सामान की निर्बाध आपूर्ति भी हो रही है. बावजूद शायद ही कोई इतिहास इनका संघर्ष दर्ज करे.