हमारे देश में वैज्ञानिकों को जनता के बीच आने और अपने काम को बताने की आजादी नहीं है, पर विदेशों के वैज्ञानिक अब यह करने लगे हैं. दरअसल विज्ञान की विडम्बना यह है कि सामान्य लेखक (भले ही पृष्ठभूमि विज्ञान की नहीं हो) ही विज्ञान को सामान्य जन तक पहुंचा रहे हैं. वैज्ञानिक तो अपनी बात रिसर्च पेपर्स के माध्यम से केवल दूसरे वैज्ञानिकों तक ही पहुंचा रहे हैं. हमारे देश में विज्ञान को सामान्य जन तक पहुंचाने का काम प्रोफेसर यशपाल ने बखूबी निभाया, पर यह परंपरा भी उनके साथ ही ख़त्म हो गयी.

विदेशों में कुछ बड़े वैज्ञानिकों ने, जिनमे थॉमस हक्सले और लुईस अगासिज प्रमुख हैं, ने भाषण देने की शुरुआत की, जिसे बाद में समाचारपत्रों और पत्रिकाओं में प्रकाशित किया जाता था. चार्ल्स डार्विन ने अपने विकासवाद के सिद्धांत को लोगों तक पहुंचाने के लिए सामान्य भाषा में पुस्तक लिखी. वाटसन और क्रिक ने भी डीएनए की खोज के बाद “द डबल हेलिक्स” नामक पुस्तक लिखी. विज्ञान की पृष्ठभूमि के साथ रशेल कार्सन ने “साइलेंट स्प्रिंग” लिखी और पूरी दुनिया में पर्यावरण संरक्षण के लिए लोगों को जागरूक किया. पर, विज्ञान की अंतहीन दुनिया में ये सारे प्रयास बहुत छोटे साबित हो रहे हैं.

वर्त्तमान समय सोशल मीडिया का है. सोशल मीडिया के जरिये कम समय में एक बड़ी आबादी तक पहुंचा जा सकता है. ऐसे में, इसका फायदा वैज्ञानिक जागरूकता के लिए आसानी से उठाया जा सकता है, पर इस क्षेत्र में वैज्ञानिक बहुत पीछे हैं. वर्ष 2014 में दुनियाभर के 3500 वैज्ञानिकों के एक सर्वेक्षण में पाया गया कि कुल 13 प्रतिशत वैज्ञानिक की सोशल मीडिया का प्रयोग वैज्ञानिक जानकारी के लिए कर रहे हैं. अनुमान है कि वर्त्तमान में 40 प्रतिशत वैज्ञानिक सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं.

सोशल मीडिया पर वैज्ञानिकों का सक्रिय होने क्यों जरूरी है, यह समझने के लिए हमारे देश के सत्ताधारी दल के मंत्रियों, प्रधानमंत्री और नेताओं के विज्ञान से सम्बंधित हास्यास्पद कथनों को याद करना जरूरी है. किसी ने कहा, गाय सांस लेने के समय ऑक्सीजन लेती है और सांस छोड़ने के समय भी ऑक्सीजन ही निकलती है तो किसी ने कहा शंकर प्लास्टिक सर्जरी के जन्मदाता हैं. वायुयान तो हजारों साल से भारत में बनाए जा रहे हैं और दूसरे ग्रहों पर जाने वाले राकेट भी. हजारों साल पहले परमाणु हथियार बना लिए गए थे. ऐसे हरेक कथन सोशल मीडिया पर खूब चर्चित हुए और बीजेपी समर्थकों ने अपने तरफ से ऐसे सभी कथनों को सही साबित करने का प्रयास किया. जाहिर है, समाज का एक बड़ा वर्ग ऐसे कथनों को सही मानता है. अमेरिका में हाल में ही एक अध्ययन में यह स्पष्ट हुआ कि सत्ता पक्ष कितना भी बड़ा झूठ बोले अधिकतर जनता उसपर भरोसा करती है. हालांकि, यह अध्ययन तापमान बृद्धि से जुड़े कथनों पर किया गया था, पर इसे सभी मामलों में सही मान सकते हैं, कम से कम हमारे देश में तो यही हो रहा है.

एक तरफ जहाँ वैज्ञानिक सोशल मीडिया से अपनी दूरी बनाए हुए हैं, दूसरी तरफ विज्ञान के फेक न्यूज़ फैलाने वाले वर्ग इसपर बहुत सक्रिय है. सबसे अधिक सक्रियता तो तापमान बृद्धि और जलवायु परिवर्तन के विरोधियों की है. तापमान बृद्धि के तथ्यों से सबसे अधिक प्रभावित जीवाष्म ईंधन उद्योग है, इसीलिये ये इसके विरोध में बहुत सारे झूठी खबरें फैलाता है. हाल में ही अमेरिका के मार्क मोरानो का मामला सामने आया है, जिन्होंने सोशल मीडिया के माध्यम से तापमान बृद्धि एक झूठ है, से सम्बंधित विडियो को 50 लाख लोगों तक पहुंचाने में कामयाबी पाई है. मार्क मोरानो अनेक जीवाष्म इंधन उद्योगों के प्रचार से जुड़े हैं, साइबरकास्ट न्यूज़ सर्विस से जुड़े हैं और कुछ डेमोक्रेटिक सीनेटर के मीडिया प्रभारी भी हैं.

वर्त्तमान में पूरे विश्व में चर्चा हो रही है कि वैज्ञानिकों को सोशल मीडिया पर आना चाहिए, पर वैज्ञानिकों की दुविधा यह है कि अपने अनुसंधान को वैज्ञानिक जगत में वे रिसर्च पेपर्स के माध्यम से पहुंचाते ही हैं, ऐसे में सोशल मीडिया का क्या लाभ है. सामान्य जनता क्या वैज्ञानिकों के काम में दिलचस्पी लेगी? इसका जवाब हाल में ही “फेसेट्स” नामक जर्नल में प्रकाशित एक अनुसंधान के माध्यम से इसाबेल कोटे और एमिली डार्लिंग ने दिया है. इस अनुसंधान के अनुसार जब तक किसी वैज्ञानिक के सोशल मीडिया पर एक हजार से कम फोलोवेर्स रहते हैं तब इनमे लगभग 65 प्रतिशत तक वैज्ञानिक ही होते हैं और शेष, यानि महज़ 35 प्रतिशत, सामान्य जनता, मीडिया और वैज्ञानिक संस्थान फॉलो करते हैं. पर, यदि वैज्ञानिक लम्बे समय तक सोशल मीडिया पर रहते हुए एक हजार से अधिक लोगों तक पहुँच बनाने में कामयाब होते हैं तब जनता और मीडिया का प्रतिशत 54 प्रतिशत तक पहुँच जाता है. सामान्य जनता और मीडिया तब अधिक पहुँच का सीधा सा मतलब है, आपकी बात तेजी से अधिक लोगों तक पहुँच जाती है क्यों कि वैज्ञानिकों की तुलना में सामान्य जनता के फोलोवर्स अधिक होते हैं. इस अध्ययन में दस से अधिक देशों के कुल 110 वैज्ञानिकों के सोशल मीडिया पर सक्रियता की समीक्षा की गयी थी, जिसमें महिला और पुरुष दोनों वैज्ञानिक शामिल थे. अध्ययन में यह भी स्पष्ट हुआ कि यदि किसी वैज्ञानिक ने अपने किसी रिसर्च पेपर का हवाला प्रकाशित होने के पहले सप्ताह में ही सोशल मीडिया पर दिया तब उस रीसर्च पेपर को अधिक वैज्ञानिकों ने उधृत किया, यानि यह ज्यादा चर्चित रहा.

इस अध्ययन से इतना तो स्पष्ट है, सोशल मीडिया वैज्ञानिकों को अपने तथ्य एक बड़ी जनसंख्या तक पहुँचाने का आसान मौका देता है और वैज्ञानिक समुदाय में चर्चित भी बनाता है.