देश के जाने माने पत्रकार कुलदीप नैयर एक किस्सा सुनाया था। गोविंद बल्लभ पंत देश के गृह मंत्री और कुलदीप नैयर उनके प्रेस सचिव थे। संसद की भारतीय भाषाओं के संबंध में एक समिति थी । उस समिति के अधीन एक खैर उप समिति थी।उस समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि संसद को हर पांच वर्ष के बाद यह बताना होगा कि देश में किस हद तक हिन्दी का प्रचार प्रसार हुआ हैं और क्या ऐसा वक्त आ गया है कि हिन्दी में सारे काम काज किए जा सकें? सभी को पता है कि देश में भाषाओं को लेकर राजनीतिक विवाद रहा है।राज्यों का पुनर्गठन तक भाषाओं के आधार पर करना पड़ा।जिस समय संसद की ये समिति काम कर रही थी उस समय भी दो खेमे थे।

चूंकि देश में भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की एक पृष्ठभूमि थी लिहाजा जब ये समिति काम कर रही थी उस समय भाषा का विवाद फिर से गर्माने लगा। गृहमंत्री इस बात को लेकर बेहद चिंतित थे। उन्होने समिति के सदस्यों से कहा कि वे कृपया समिति के अंदर चल रही चर्चाओं को सार्वजनिक नहीं करें। क्योंकि उन्हें इस बात की जानकारी मिली थी कि कई संसद सदस्य ऐसे हैं जो पत्रकारों को बुलाकार भाषा के सवाल पर अपना नजरिया रख रहे थे।अखबार समिति से कोई संपर्क नहीं होने के कारण सदस्यों के साथ बातचीत के आधार पर कुछ भी छाप दिया करते थे।हर सदस्य की अपने क्षेत्र की भाषा को लेकर अलग अलग राजनीति थी। आखिरकार पंत जी को पत्रकारों से अपील करनी पड़ी। लेकिन बात नहीं बनी। फिर उन्होने अपने प्रेस सचिव कुलदीप नैयर से सलाह मांगी । कुलदीप नैयर ने उन्हें सुझाव दिया कि इस बारे में संपादकों से बातचीत करनी चाहिए। लेकिन पंत जी इस सुझाव पर सफलता को लेकर आश्वस्त नहीं थे। बावजूद इसके उन्होने कुलदीप नैयर को स्थानीय संपादकों से बातचीत करने के लिए कहा। लेकिन जब संपादकों से कुलदीप नैयर ने बातचीत का सिलसिला शुरू किया तो संपादकों ने उनसे पूछा कि क्या वे इस बात की गारंटी दे सकते हैं कि कोई भी समाचार पत्र इसे प्रकाशित नहीं करेगा? ये आश्वासन कुलदीप नैयर नहीं दे सकते थे। तब कुलदीप नैयर ने एक तरीका निकाला।

उन्होने गृह मंत्रालय की रिपोर्टिंग (कवर करने वाले) करने वाले पत्रकारों को बुलाया और कहा कि उनके समाचार पत्रों में जो कुछ छप रहा है वो सब विशेषाधिकार हनन के तहत आता है। उनमें से कुछ पत्रकारों ने ये बताते समय ये जरूर पूछा कि ये कैसे विशेषाधिकार हनन के तहत आता है। कुलदीप नैयर ने उन्हें मात्र इतना जवाब दिया कि समिति को विशेषाधिकार प्राप्त हैं। तब किसी ने इसका प्रतिवाद नहीं किया। इसके बाद खबरें छपनी बंद हो गई। किसी पत्रकार ने ये जानने की कोशिश नहीं की कि वास्तव में समिति को विशेषाधिकार प्राप्त है या नहीं। इस तरह समिति के भीतर चल रही खबरों का एक झटके से आना बंद हो गया। समिति ने डेढ़ वर्ष बाद अपनी रिपोर्ट पेश की।जबकि इस समिति को न तो विशेषाधिकार प्राप्त था और ना ही विशेषाधिकार हनन के दायरे में वे खबरें आ रही थी।

कुलदीप नैयर ने ये किस्सा राज्य सभा कवर करने वाले पत्रकारों के ओरिएंटेशन के कार्यक्रम को संबोधित करते हुए सुनाया था और इस मौके पर वर्षों पुरानी घटना के लिए उन्होने माफी भी मांगी थी। कुलदीप नैयर को बस ये कहना काफी लगा कि समिति को विशेषाधिकार प्राप्त है। गृह मंत्रालय को कवर करने वाले सारे के सारे पत्रकार बिल्कुल शांत हो गए। इस उदाहरण में तो कहा जा सकता है कि गृह मंत्री के प्रेस सचिव ने पत्रकारों को डराने के लिए झुठ बोल दिया और उस पर पत्रकारों ने सहज रूप से ये सोचकर मान लिया हो कि प्रेस सचिव द्वारा बतायी गई बात को न मानने का कोई कारण समझ में नहीं आता है। जबकि पत्रकारों को सिखाया जाता है कि किसी भी खबर को सार्वजनिक करने से पहले उसे क्रॉस चेक कर लेना चाहिए। कुलदीप नैयर तो ये कह सकते हैं कि उन्होने ये झुठ देश के हित में किया था और उन्होने इस झुठ के लिए हम सभी के सामने माफी भी मांग ली।

कुलदीप नैयर का यह उदाहरण ऐसा है जो हमारे सामने आ गया।लेकिन न जानें कितनी खबरें रोज ब रोज पाठकों, दर्शकों और श्रोताओं के बीच परोसी जाती हैं जिसे पत्रकार ऑखें मूंदकर सच मान लेते है और खासकर ताकतवर और सत्ता मं बैठे हुए लोगों के वाक्य उनके लिए अंतिम सत्य होते हैं।